वर्तते
16/23
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।२३।।
(अध्याय १६, Chapter 16, verse 23)
5/26
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।२६।।
(अध्याय ५, Chapter 5, verse 26)
6/31
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।३१।।
(अध्याय ६, Chapter 6, verse 31)
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अपने स्वाध्याय के समय यह प्रश्न प्रायः मन में उठता रहा है कि भाषा और व्याकरण के आधार पर, उस कसौटी से शास्त्र के तात्पर्य को ग्रहण किया जाना उचित है, या कि जैसे मातृभाषा अनायास ही सीख ली जाती है और फिर उस ज्ञान के आधार पर प्राप्त हुए संस्कार के आधार पर, उस कसौटी पर शास्त्र का पाठ करते हुए भाषा और उस भाषा के व्याकरण की सिद्धि करते हुए शास्त्र के तात्पर्य का अनुशीलन किया जाना उचित है?
दूसरे शब्दों में,
जैसे मातृभाषा अनायास ही सीखी जाती है, क्या शास्त्र की भाषा को भी अनायास ही, व्याकरण की सहायता लिए बिना ही सीखा जाना अधिक उचित नहीं है?
व्याकरण का प्रयोजन केवल इतना है कि उससे भाषा के, और शास्त्र के अभीष्ट तात्पर्य का संप्रेषण यथासंभव त्रुटिरहित हो।
इससे यह निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है कि आगम या आगमन की प्राप्ति दो युक्तियों से की जा सकती है -
व्याकरण की सहायता लिए बिना सीधे ही, विवेक और विवेचना के माध्यम और आधार से, या फिर व्याकरण की सहायता से शास्त्र-वचनों में प्रयुक्त शब्दों के स्थानीय महत्व (कर्ता / संबोधन, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, संबंध तथा अधिष्ठान को, -- समास और संधि, उपसर्ग, सुबन्त तथा तिङ्गन्त आदि को ध्यान में रखकर आगम को आधार के रूप में उस प्रमाण की तरह ग्रहण किया जाए जिसे पातञ्जल योगसूत्र, समाधिपाद में -
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।
सूत्रों में वृत्ति के एक प्रकार-विशेष की तरह इंगित किया गया है?
प्रमाण क्या है इसे गीता के अध्याय ३ के श्लोक २१ के आधार पर भी देखा जा सकता है -
यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनाः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।२१।।
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