आज का श्लोक,
’व्यपेतभीः’ / ’vyapetabhīḥ’
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’व्यपेतभीः’ / ’vyapetabhīḥ’ - जिसका भय दूर हो गया है,
अध्याय 11, श्लोक 49,
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो
दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं
तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥
--
(मा ते व्यथा मा च विमूढभावः
दृष्ट्वा रूपम् घोरम् ईदृक् मम इदम् ।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनः त्वम्
तत् एव मे रूपम् इदम् प्रपश्य ॥)
--
भावार्थ :
मेरे इस प्रकार के घोर रूप को देखकर तुम व्यथित मत होओ, और न ही व्याकुल और स्तब्ध । और सर्वथा निर्भय होकर प्रीतियुक्त मन से, मेरे उसी* इस रूप को तुम पुनः देखो ।
--
टिप्पणी :
- *’उसी’ अर्थात् तुम्हारे स्नेही सखा की तरह मानुषरूप में या मेरे चतुर्भुज रूप में ।
यहाँ हमारा सामना उस कठिनाई से होता है जो इस ग्रन्थ (श्रीमद्भग्वद्गीता) को अलग-अलग सन्दर्भों से देखनेवालों में से अधिकाँश को अनुभव होती है, और उन्हें इसकी केवल अपनी व्याख्या ही एकमात्र सत्य और पूर्ण व्याख्या जान पड़ती है ।
वेद और वेदान्त की दृष्टि से जिन अनेक पूर्व आचार्यों ने इसकी व्याख्या की उनमें से भी कुछ, उनके अपने सिद्धान्त और मत पर अधिक आग्रह होने के कारण इस कठिनाई को नहीं देख पाए कि सत्य के कई आयाम होते हैं । जैसे काल और स्थान के अनन्त आयाम भिन्न-भिन्न जीव-मात्र के लिए अन्य सब से भिन्न होते हैं, वैसे ही उसके स्वयं के और मनुष्यों के एक समाज-विशेष के भी, अपने-अपने अनेक आधारभूत, सैद्धान्तिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, एवं कलात्मक आयाम होते हैं । कोई तथ्य किसई आयाम में ’सत्य’ होता है, तो दूसरे आयाम में ’अप्रासंगिक’ होता है, - न कि ’असत्य’ । सत्य, असत्य, तथ्य के अतिरिक्त एक श्रेणी मिथ्या की भी होती है । इसलिए कोई भी ’तथ्य’ कहीं सत्य होता है, तो कहीं अप्रासंगिक । किन्तु पूर्ण सत्य तो समग्र होता है ।
--
अब हम उपरोक्त विवेचन के आधार पर प्रस्तुत श्लोक का भावार्थ पुनः एक बार समझने का यत्न करें :
भगवान् श्रीकृष्ण ने इस ग्रन्थ में अधिकाँश स्थानों पर ’मैं’ शब्द का प्रयोग उत्तम पुरुष एकवचन के अर्थ में किया है, वहीं जहाँ एक ओर इसे व्यावहारिक रूप से अपने व्यक्ति-विशेष के सर्वनाम के रूप में, तो दूसरी ओर परम सत्य (आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, परम-सत्ता, चैतन्य-तत्व) को इंगित करने के लिए भी किया है । इस आधारभूत और महत्वपूर्ण बिन्दु पर सहसा हमारा ध्यान न जाने के कारण ग्रन्थ की परस्पर विरोधाभासी अनेक व्याख्याएँ की जाती रही हैं और इस ओर भी हमारा ध्यान नहीं जा पाता कि श्रीमद्भग्वद्गीता में वस्तुतः कहीं कोई विसंगति नहीं है ।
--
वैदिक और वेदान्तिक सिद्धान्त और सत्य के सन्दर्भ में श्रीमद्भग्वद्गीता की कोई व्याख्या की जाती है तो उस व्याख्या का स्वरूप और शैली पौराणिक सिद्धान्त और सत्य के आधार पर श्रीमद्भग्वद्गीता की किसी अन्य व्याख्या से अवश्य ही भिन्न होगी और दिखलाई भी देगी । इस अन्तर का एकमात्र कारण है वैदिक और पौराणिक शैलियों की भिन्नता । पुराण जहाँ जन-सामान्य या सामन्य-जनों के लिए हैं वहीं वेद और वेदों से संबंधित साहित्य को किसी विशिष्ट धारा में दीक्षित विद्वान ही सरलता से ग्रहण कर सकता है । इसलिए वैदिक शैली में किए गए सत्य के वर्णन में और पौराणिक शैली में किए गए रूपकात्मक वर्णन में विसंगति नहीं हो सकती, हाँ विरोधाभास तो अवश्य ही होंगे । किन्तु विरोधाभास तब दूर हो जाते हैं, जब हम दोनों शैलियों के अपने-अपने सौदर्य को पहचान पाते हैं । तब हमें उन सत्यों का सामञ्जस्य नहीं करना पड़ता ।
--
श्रीमद्भग्वद्गीता अध्याय 11 के इस श्लोक 49 के सन्दर्भ में इस विवेचन को ऐसे समझ सकते हैं :
उपनिषद्-सिद्धान्त के अनुसार श्रीकृष्ण और अर्जुन (और दूसरों की भी) आधारभूत चेतना एकमेव है । और उस रूप में व्यावहारिक धरातल पर अर्जुन ने श्रीकृष्ण के दर्शन पुनः अपने उस पुराने मित्र के रूप में किए और वह इस ’दिव्य-दर्शन’ से हुए आघात (trauma) से उबरकर प्रकृतिस्थ हुआ । पौराणिक-दृष्टि से हम यह भी मान सकते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को चतुर्भुज रूप में दर्शन दिए क्योंकि अर्जुन ने उनसे इस रूप में दर्शन देने की प्रार्थना की थी (श्लोक46) । और इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण के इस रूप को ईश्वर / परमेश्वर का एक और वास्तविक रूप मानने में सन्देह करने का कोई कारण नहीं बनता । किन्तु जब इसी तथ्य की तथाकथित ’ऐतिहासिक’ और तथाकथित वैज्ञानिक व्याख्या करने का प्रयास किया जाता है तो अनेक विरोधाभास उत्पन्न होते हैं जिनका कोई ऐसा उत्तर या समाधान उन व्याख्याकारों के पास नहीं होता जिस पर सब सहमत हों । अर्थात् अन्तहीन विवाद और विरोधाभास ।
--
निष्कर्ष यही, सत्य को समग्रता में ही ग्रहण किया जा सकता है ।
--
’व्यपेतभीः’ / ’vyapetabhīḥ’ - one who has overcome the fear, relieved of his fear,
Chapter 11, śloka 49,
mā te vyathā mā ca vimūḍhabhāvo
dṛṣṭvā rūpaṃ ghoramīdṛṅmamedam |
vyapetabhīḥ prītamanāḥ punastvaṃ
tadeva me rūpamidaṃ prapaśya ||
--
(mā te vyathā mā ca vimūḍhabhāvaḥ
dṛṣṭvā rūpam ghoram īdṛk mama idam |
vyapetabhīḥ prītamanāḥ punaḥ tvam
tat eva me rūpam idam prapaśya ||)
--
Meaning :
Having seen My terrible form of this kind you were troubled, now calm down and put aside your agony and distress, let the fear gone and with a heart loving and happy, see again My that same, this very form.
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’व्यपेतभीः’ / ’vyapetabhīḥ’
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’व्यपेतभीः’ / ’vyapetabhīḥ’ - जिसका भय दूर हो गया है,
अध्याय 11, श्लोक 49,
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो
दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं
तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥
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(मा ते व्यथा मा च विमूढभावः
दृष्ट्वा रूपम् घोरम् ईदृक् मम इदम् ।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनः त्वम्
तत् एव मे रूपम् इदम् प्रपश्य ॥)
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भावार्थ :
मेरे इस प्रकार के घोर रूप को देखकर तुम व्यथित मत होओ, और न ही व्याकुल और स्तब्ध । और सर्वथा निर्भय होकर प्रीतियुक्त मन से, मेरे उसी* इस रूप को तुम पुनः देखो ।
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टिप्पणी :
- *’उसी’ अर्थात् तुम्हारे स्नेही सखा की तरह मानुषरूप में या मेरे चतुर्भुज रूप में ।
यहाँ हमारा सामना उस कठिनाई से होता है जो इस ग्रन्थ (श्रीमद्भग्वद्गीता) को अलग-अलग सन्दर्भों से देखनेवालों में से अधिकाँश को अनुभव होती है, और उन्हें इसकी केवल अपनी व्याख्या ही एकमात्र सत्य और पूर्ण व्याख्या जान पड़ती है ।
वेद और वेदान्त की दृष्टि से जिन अनेक पूर्व आचार्यों ने इसकी व्याख्या की उनमें से भी कुछ, उनके अपने सिद्धान्त और मत पर अधिक आग्रह होने के कारण इस कठिनाई को नहीं देख पाए कि सत्य के कई आयाम होते हैं । जैसे काल और स्थान के अनन्त आयाम भिन्न-भिन्न जीव-मात्र के लिए अन्य सब से भिन्न होते हैं, वैसे ही उसके स्वयं के और मनुष्यों के एक समाज-विशेष के भी, अपने-अपने अनेक आधारभूत, सैद्धान्तिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, एवं कलात्मक आयाम होते हैं । कोई तथ्य किसई आयाम में ’सत्य’ होता है, तो दूसरे आयाम में ’अप्रासंगिक’ होता है, - न कि ’असत्य’ । सत्य, असत्य, तथ्य के अतिरिक्त एक श्रेणी मिथ्या की भी होती है । इसलिए कोई भी ’तथ्य’ कहीं सत्य होता है, तो कहीं अप्रासंगिक । किन्तु पूर्ण सत्य तो समग्र होता है ।
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अब हम उपरोक्त विवेचन के आधार पर प्रस्तुत श्लोक का भावार्थ पुनः एक बार समझने का यत्न करें :
भगवान् श्रीकृष्ण ने इस ग्रन्थ में अधिकाँश स्थानों पर ’मैं’ शब्द का प्रयोग उत्तम पुरुष एकवचन के अर्थ में किया है, वहीं जहाँ एक ओर इसे व्यावहारिक रूप से अपने व्यक्ति-विशेष के सर्वनाम के रूप में, तो दूसरी ओर परम सत्य (आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, परम-सत्ता, चैतन्य-तत्व) को इंगित करने के लिए भी किया है । इस आधारभूत और महत्वपूर्ण बिन्दु पर सहसा हमारा ध्यान न जाने के कारण ग्रन्थ की परस्पर विरोधाभासी अनेक व्याख्याएँ की जाती रही हैं और इस ओर भी हमारा ध्यान नहीं जा पाता कि श्रीमद्भग्वद्गीता में वस्तुतः कहीं कोई विसंगति नहीं है ।
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वैदिक और वेदान्तिक सिद्धान्त और सत्य के सन्दर्भ में श्रीमद्भग्वद्गीता की कोई व्याख्या की जाती है तो उस व्याख्या का स्वरूप और शैली पौराणिक सिद्धान्त और सत्य के आधार पर श्रीमद्भग्वद्गीता की किसी अन्य व्याख्या से अवश्य ही भिन्न होगी और दिखलाई भी देगी । इस अन्तर का एकमात्र कारण है वैदिक और पौराणिक शैलियों की भिन्नता । पुराण जहाँ जन-सामान्य या सामन्य-जनों के लिए हैं वहीं वेद और वेदों से संबंधित साहित्य को किसी विशिष्ट धारा में दीक्षित विद्वान ही सरलता से ग्रहण कर सकता है । इसलिए वैदिक शैली में किए गए सत्य के वर्णन में और पौराणिक शैली में किए गए रूपकात्मक वर्णन में विसंगति नहीं हो सकती, हाँ विरोधाभास तो अवश्य ही होंगे । किन्तु विरोधाभास तब दूर हो जाते हैं, जब हम दोनों शैलियों के अपने-अपने सौदर्य को पहचान पाते हैं । तब हमें उन सत्यों का सामञ्जस्य नहीं करना पड़ता ।
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श्रीमद्भग्वद्गीता अध्याय 11 के इस श्लोक 49 के सन्दर्भ में इस विवेचन को ऐसे समझ सकते हैं :
उपनिषद्-सिद्धान्त के अनुसार श्रीकृष्ण और अर्जुन (और दूसरों की भी) आधारभूत चेतना एकमेव है । और उस रूप में व्यावहारिक धरातल पर अर्जुन ने श्रीकृष्ण के दर्शन पुनः अपने उस पुराने मित्र के रूप में किए और वह इस ’दिव्य-दर्शन’ से हुए आघात (trauma) से उबरकर प्रकृतिस्थ हुआ । पौराणिक-दृष्टि से हम यह भी मान सकते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को चतुर्भुज रूप में दर्शन दिए क्योंकि अर्जुन ने उनसे इस रूप में दर्शन देने की प्रार्थना की थी (श्लोक46) । और इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण के इस रूप को ईश्वर / परमेश्वर का एक और वास्तविक रूप मानने में सन्देह करने का कोई कारण नहीं बनता । किन्तु जब इसी तथ्य की तथाकथित ’ऐतिहासिक’ और तथाकथित वैज्ञानिक व्याख्या करने का प्रयास किया जाता है तो अनेक विरोधाभास उत्पन्न होते हैं जिनका कोई ऐसा उत्तर या समाधान उन व्याख्याकारों के पास नहीं होता जिस पर सब सहमत हों । अर्थात् अन्तहीन विवाद और विरोधाभास ।
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निष्कर्ष यही, सत्य को समग्रता में ही ग्रहण किया जा सकता है ।
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’व्यपेतभीः’ / ’vyapetabhīḥ’ - one who has overcome the fear, relieved of his fear,
Chapter 11, śloka 49,
mā te vyathā mā ca vimūḍhabhāvo
dṛṣṭvā rūpaṃ ghoramīdṛṅmamedam |
vyapetabhīḥ prītamanāḥ punastvaṃ
tadeva me rūpamidaṃ prapaśya ||
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(mā te vyathā mā ca vimūḍhabhāvaḥ
dṛṣṭvā rūpam ghoram īdṛk mama idam |
vyapetabhīḥ prītamanāḥ punaḥ tvam
tat eva me rūpam idam prapaśya ||)
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Meaning :
Having seen My terrible form of this kind you were troubled, now calm down and put aside your agony and distress, let the fear gone and with a heart loving and happy, see again My that same, this very form.
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