Thursday, November 7, 2013

गीता १४ / २२ gitA 14 / 22

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव । 
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥
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   हे अर्जुन, विवेकवान मनुष्य को चाहिए कि वह मन 
के सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से प्रभावित होने 
की स्थिति में न तो उसे रोके, और न ही उन गुणों के 
प्रभाव के समाप्त हो जाने पर पुनः उनकी पुनरावृत्ति 
की कामना करे ।
(भगवद्गीता१४/२२)
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prakAshaM cha pravRtiM cha 
mohameva cha pANDava |
na dveShTi saMpravRttAni 

na nivRttAni kAMkShati ||
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(gitA 14 / 22).
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  A man of discrimination of right and wrong 
should neither condemn the modes of mind, 
when his mind under the influence of sattva, 
rajas, and tamas, becomes calm and clear, 
engaged in activity, or lost in idleness, neithe
should desire their repetition, once the mode 
is no more.
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   This is because all things happen to body and
mind according to destiny. One's attitude towards 
destiny should be of detachment with their actions.
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गीता १४ / २२ gitA 14 / 22