Showing posts with label 3/26. Show all posts
Showing posts with label 3/26. Show all posts

Tuesday, June 1, 2021

कालेन

5.

(उत्तरगीता) 

महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा :

हे प्रभु! 

पात्रता की दृष्टि से अर्जुन में और मुझमें क्या समानता और क्या भिन्नता है, कृपया कहें! 

तब भगवान् श्रीकृष्ण बोले :

युधिष्ठिर! जैसा कि तुम्हारा नाम और गुण है, तुम युद्ध के समय भी स्थिरबुद्धि होते हो, जबकि अर्जुन ऐसे समय में कर्तव्य क्या है तथा अकर्तव्य क्या है, इस द्वन्द्व से मोहित-बुद्धि हो गया था। 

इस प्रकार उसकी निष्ठा साङ्ख्य के अनुकूल न होकर कर्म के अनुकूल थी। तुममें ऐसा द्वन्द्व या संशय नहीं उत्पन्न होता है।

उसे उसके अनुकूल शिक्षा देने हेतु मैंने उससे कहा :

(अध्याय ३)

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्ताश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ।। २५

तथा, 

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्। 

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।। २६

इस प्रकार उसकी निष्ठा कर्म में होने से उसमें कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व और ज्ञातृत्व रूपी अज्ञान और तज्जनित दुविधा एवं संशय भी थे ही। 

इसलिए मैंने परिस्थिति के अनुरूप उसे वह शिक्षा दी जिससे कि समय आने पर वह भी तुम्हारी तरह साङ्ख्य की शिक्षा का पात्र हो सके। 

इसीलिए मैंने उसे कर्मयोग अर्थात् राजयोग, राजविद्या की वही शिक्षा प्रदान की जो कि महान काल के प्रभाव से विलुप्तप्राय हो चुकी थी।

इसलिए तुम्हारे लिए मैं पुनः जिस उत्तरगीता का उपदेश करूँगा, उसे सुनकर तुम्हारी यह जिज्ञासा शान्त हो जाएगी कि क्या मैंने अर्जुन को तुमसे भिन्न कोई विशेष शिक्षा दी थी।

(अध्याय ४)

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।। १

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।। २

स एवायं मया तेऽद्य योगं प्रोक्तः पुरातनः।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।। ३

अर्जुन उवाच :

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।। ४

तब मैंने अर्जुन से कहा :

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। 

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप।। ५

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। 

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।। ६

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। 

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। 

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। ८

तथा --

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः। 

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।। ९

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।। ३७

--

हे युधिष्ठिर! 

उपरोक्त श्लोकों से तुम समझ सकते हो कि यहाँ मुझ परमात्मा अर्थात् ईश्वर, जीवात्मा अर्थात् जीव, और आत्मा की अनन्यता को इंगित किया गया है। 

'अहं' पद (शब्द) का प्रयोग उत्तम पुरुष एकवचन तथा अन्य पुरुष एकवचन दोनों अर्थों में ग्राह्य है। 

इसी प्रकार से क्रिया-पद 'वेद' भी उत्तम पुरुष एकवचन तथा अन्य पुरुष एकवचन से सुसंगत है। 

इसलिए जो इसे जान लेता है कि मेरा जन्म तथा कर्म दिव्य है, उसे पुनर्जन्म प्राप्त नहीं होता, और वह मुझे ही प्राप्त हो जाता है।

जिस तरह एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए मनुष्य पैदल या वाहन आदि के मार्ग से जाते हैं, किन्तु पक्षी आकाश के मार्ग से उड़कर शीघ्र ही वहाँ पहुँच जाता है, उसी प्रकार कर्मयोग के मार्ग का अधिकारी पुरुष यद्यपि कुछ समय व्यतीत करते हुए अनेक माध्यमों से मुझे प्राप्त हो सकता है, किन्तु साङ्ख्य-योग का अधिकारी ज्ञानमार्ग का अवलंबन करते हुए, तत्काल ही मुझे प्राप्त हो जाता है।

किन्तु यह भेद भी वैसा ही औपचारिक और आभासी है, जैसे कि स्वप्न के पूर्ण हो जाते ही, जाने पर, स्वप्न में प्रतीत होनेवाला समय मिथ्या प्रतीत होने लगता है।

***





Thursday, August 28, 2014

आज का श्लोक, ’विद्वान्’ / ’vidvān’

आज का श्लोक, ’विद्वान्’ / ’vidvān’
___________________________

’विद्वान्’ / ’vidvān’ -  आत्म-ज्ञानी,

अध्याय 3, श्लोक 25,

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ॥
--
(सक्ताः कर्मणि अविद्वांसः यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्यात् विद्वान् तथा असक्तः चिकीर्षुः लोकसङ्ग्रहम् ॥)
--
भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन)! अज्ञानीजन जिस प्रकार से आसक्ति रखते हुए (आसक्ति होने के कारण) कर्म किया करते हैं, विद्वान् (ज्ञानी) को भी उसी प्रकार से, किन्तु आसक्तिरहित होकर, केवल लोक-सङ्ग्रह (लोक-कल्याण हेतु उदाहरण के माध्यम से शिक्षा देने के लिए)  कर्म करना चाहिए ।
--
अध्याय 3, श्लोक 26,

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥
--
( न बुद्धिभेदम् जनयेत् अज्ञानाम् कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ॥)
--
भावार्थ :
योगयुक्त (जिसकी अवस्थिति परमात्मा में रहती है) मनुष्य को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों के अनुष्ठान के प्रति आसक्त तथा आग्रहशील अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् संशय उत्पन्न न करे, बल्कि उनका विधिवत् आचरण करने के लिए ही उन्हें उत्साहित ही करे । 
--

’विद्वान्’ / ’vidvān’ - The learned, The Realized one,

Chapter 3, śloka 25,

saktāḥ karmaṇyavidvāṃso 
yathā kurvanti bhārata |
kuryādvidvāṃstathāsaktaś-
cikīrṣurlokasaṅgraham ||
--
(saktāḥ karmaṇi avidvāṃsaḥ 
yathā kurvanti bhārata |
kuryāt vidvān tathā asaktaḥ 
cikīrṣuḥ lokasaṅgraham ||)
--
Meaning :
O bhārata (arjuna)!  With a view for the benefit of the whole world and cite an example to teach, One who is though well aware of the Reality (That all action is done by the mutual interaction of the three attributes / guṇa-s of prakṛti only, and Self is never affected, nor participates in any way. and so is unattached from the action) should take part in all actions in the same way as those who are ignorant and prompted by desires and fears engage themselves in various actions. 
-- 
Chapter 3, śloka 26,

na buddhibhedaṃ janayed-
ajñānāṃ karmasaṅginām |
joṣayetsarvakarmāṇi 
vidvānyuktaḥ samācaran ||
--
(na buddhibhedam janayet 
ajñānām karmasaṅginām |
joṣayet sarvakarmāṇi 
vidvān yuktaḥ samācaran ||)
--
Meaning :
One who has realized and is firmly established in the Self, should not cause suspicion / doubts, -in the minds of those who are ignorant (of Self), -about the significance of performing the various rituals as are mentioned in the scriptures. Instead, He should encourage them to perform those rituals accordingly as are laid down in the scriptures, with due procedures .
--     


Sunday, July 6, 2014

आज का श्लोक, ’समाचरन्’ / ’samācaran’

आज का श्लोक,
’समाचरन्’ / ’samācaran’ 
_______________________

’समाचरन्’ / ’samācaran’ - का आचरण करते हुए,

अध्याय 3, श्लोक 26,

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्
--
( न बुद्धिभेदम् जनयेत् अज्ञानाम् कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ॥)
--
भावार्थ :
योगयुक्त (जिसकी अवस्थिति परमात्मा में रहती है) मनुष्य को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों के अनुष्ठान के प्रति आसक्त तथा आग्रहशील अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् संशय उत्पन्न न करे, बल्कि उनका विधिवत् आचरण करने के लिए ही उन्हें उत्साहित ही करे ।
--
’समाचरन्’ / ’samācaran’ - while putting into practice, performing,

Chapter 3, śloka 26,

na buddhibhedaṃ janayed-
ajñānāṃ karmasaṅginām |
joṣayetsarvakarmāṇi
vidvānyuktaḥ samācaran ||
--
( na buddhibhedam janayet
ajñānām karmasaṅginām |
joṣayet sarvakarmāṇi
vidvān yuktaḥ samācaran ||)
--
Meaning :
One who has realized and is firmly established in the Self, should not cause suspicion / doubts, -in the minds of those who are ignorant (of Self), -about the significance of performing the various rituals as are mentioned in the scriptures. Instead, He should encourage them to perform those rituals with due procedures according-ly as are laid down in the scriptures.
--    





Thursday, July 3, 2014

आज का श्लोक, ’सर्वकर्माणि’ / ’sarvakarmāṇi’

आज का श्लोक,
’सर्वकर्माणि’ / ’sarvakarmāṇi’ 
______________________

’सर्वकर्माणि’ / ’sarvakarmāṇi’ - सम्पूर्ण, समस्त (यथोचित) कर्मों में,

अध्याय 3, श्लोक 26,

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥
--
( न बुद्धिभेदम् जनयेत् अज्ञानाम् कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ॥)
--
भावार्थ :
योगयुक्त (जिसकी अवस्थिति परमात्मा में रहती है) मनुष्य को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों के अनुष्ठान के प्रति आसक्त तथा आग्रहशील अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् संशय उत्पन्न न करे, बल्कि उनका विधिवत् आचरण करने के लिए ही उन्हें उत्साहित ही करे ।
--
अध्याय 4, श्लोक 37,

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
--
(यथा एधांसि समिद्धः अग्निः भस्मसात् कुरुते अर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥)
--
भावार्थ :
जिस प्रकार से प्रज्वलित हुई अग्नि ज्वलनशील पदार्थों को जलाकर भस्म कर देती है, हे अर्जुन !प्रज्वलित हुई ज्ञान रूपी अग्नि  उसी प्रकार से समस्त कर्मों को जलाकर भस्म कर देती है ।
--

अध्याय 5, श्लोक 13,

सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥
--
(सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्य आस्ते सुखम् वशी ।
नवद्वारे पुरे देही न- एव कुर्वन् न कारयन् ॥)
--
भावार्थ :
नव-द्वारों (इन्द्रियों) वाले घर (पुर) में रहता हुआ (पुरुष) और अपने मन-बुद्धि को वश में कर लेनेवाला, मन की सहायता से ( विवेकपूर्वक अपनी कर्तृत्व-भावना का निरसन हो जाने से) कर्मों को न तो स्वयं करते हुए और न किसी और के माध्यम से करवाते हुए सुखपूर्वक अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है ।
--

--
अध्याय 18, श्लोक 56,

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥
--
(सर्वकर्माणि अपि सदा कुर्वाणः मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादात् अवाप्नोति शाश्वतम् पदम् अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
मुझमें समाहित चित्त से सदैव सभी (विभिन्न) कर्मों को करते हुए भी (पिछले श्लोक 55 में वर्णित मेरा भक्त) मेरी कृपा से अविनाशी परम पद (अर्थात् मुझको ) पा लेता है ।
--
टिप्पणी :
अध्याय 18, श्लोक 55,

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥
--
(भक्त्या माम् अभिजानाति यावान् यः च अस्मि तत्त्वतः।
ततः माम् तत्त्वतः ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।)
--
भावार्थ :
मुझमें भक्ति होने से वह (मेरा भक्त) भली-भाँति जान जाता है, कि तत्त्वतः मेरा स्वरूप क्या और कितना (असीम, अखण्ड, अनिर्वचनीय) है, जो कि तत्त्वतः हूँ । इसके बाद मुझको तत्वतः जानकर मुझमें प्रविष्ट हो जाता है, मुझसे एकत्व को प्राप्त हो जाता है ।
--

अध्याय 18, श्लोक 57,

चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥
--
(चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगम् उपाश्रित्य मच्चित्तः सततम् भव ॥)
--
भावार्थ :
निष्ठा और भावना सहित सभी कर्मों को मुझमें अर्पण करके मेरे परायण (मेरे में संलग्न) होकर, सांख्य-बुद्धि से प्राप्त विवेक द्वारा, मुझ पर ही आश्रित रहकर, निरन्तर मेरे ही प्रति लगावयुक्त चित्तवाले हो जाओ ।
--


’सर्वकर्माणि’ / ’sarvakarmāṇi’ - one established firmly in the Self.

Chapter 3, śloka 26,

na buddhibhedaṃ janayed-
ajñānāṃ karmasaṅginām |
joṣayetsarvakarmāṇi
vidvānyuktaḥ samācaran ||
--
( na buddhibhedam janayet
ajñānām karmasaṅginām |
joṣayet sarvakarmāṇi 
vidvān yuktaḥ samācaran ||)
--
Meaning :
One who has realized and is firmly established in the Self, should not cause suspicion / doubts, -in the minds of those who are ignorant (of Self), -about the significance of performing the various rituals as are mentioned in the scriptures. Instead, He should encourage them to perform those rituals with due procedures accordingly as are laid down in the scriptures.
--  
Chapter 4, śloka 37,

yathaidhāṃsi samiddho:'gnir-
bhasmasātkurute:'rjuna |
jñānāgniḥ sarvakarmāṇi 
bhasmasātkurute tathā ||
--
(yathā edhāṃsi samiddhaḥ agniḥ
bhasmasāt kurute arjuna |
jñānāgniḥ sarvakarmāṇi 
bhasmasāt kurute tathā ||)
--
Meaning :
arjuna! Like the blazing fire burns down the fuels to ashes, The fire of wisdom burns down the bundle of all action to ashes.
--

Chapter 5, śloka 13

sarvakarmāṇi manasā
sannyasyāstē sukhaṁ vaśī |
navadvārē purē dēhī
naiva kurvanna kārayan ||
--
(sarvakarmāṇi manasā
sannyasya āstē sukham vaśī |
navadvārē purē dēhī
na- ēva kurvan na kārayan ||)
--
Meaning :
The consciouseness (self) that lives in the body as its abode, with nine doors (2 eyes, 2 ears, 2 nostrils, a mouth and 2 organs of excretion), when by way of discrimination and self-enquiry, gets rid of the false notion 'I do / I don't do', and thus neither doing, nor getting done anything by some other agent of action, is freed from all actions, rests peacefully and happily there-after for ever.
--  

Chapter 18, śloka 56,

sarvakarmāṇyapi sadā
kurvāṇo madvyapāśrayaḥ
matprasādādavāpnoti
śāśvataṃ padamavyayam ||
--
(sarvakarmāṇi api sadā
kurvāṇaḥ madvyapāśrayaḥ |
matprasādāt avāpnoti
śāśvatam padam avyayam ||)
--
Meaning :
With mind dedicated to Me, performing all actions (that fall to his lot according to destiny) with dispassion, (My devotee, as described in the earlier śloka 55 of this Chapter 18) by My Grace attains the Supreme Imperishable State (That is Me only).
--
Note :

Chapter 18, śloka 55,

bhaktyā māmabhijānāti
yāvānyaścāsmi tatvataḥ |
tato māṃ tattvato jñātvā
viśate tadanantaram ||
--
(bhaktyā mām abhijānāti
yāvān yaḥ ca asmi tattvataḥ|
tataḥ mām tattvataḥ jñātvā
viśate tadanantaram |)
--
Meaning :
With devotion (My devotee) knows well My extent (Formless, Indivisible, Indescribable) , What and How I AM, And having realized My Reality, enters Me and merges into Me.
--

Chapter 18, śloka 57,

cetasā sarvakarmāṇi 
mayi sannyasya matparaḥ |
buddhiyogamupāśritya
maccittaḥ satataṃ bhava ||
--
(cetasā sarvakarmāṇi 
mayi sannyasya matparaḥ |
buddhiyogam upāśritya
maccittaḥ satatam bhava ||)
--
Meaning :
Having surrendered all your actions to Me, having devoted to Me, following Me, by means of the wisdom of sāṃkhya,(sāṃkhya-buddhi), constantly thinking of Me, ever be absorbed in Me, One in Me .
--