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Tuesday, September 17, 2019

एनम्, एनाम्, एभिः, एभ्यः, एव

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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एनम्
2/19, 2/21, 2/23, 2/25, 2/26, 2/29,
3/37, 3/41,
4/42,
6/27,
11/50,
15/3, 15/11,
एनाम्
2/72,
एभिः 
7/13, 18/40,
एभ्यः 
3/12,
7/13,
एव
1/1, 1/6, 1/8, 1/11, 1/13, 1/14, 1/19, 1/27, 1/30, 1/34, 1/36, 1/42,
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2/5, 2/6, 2/12, 2/24, 2/28, 2/29, 2/47, 2/55,
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3/4, 3/12, 3/17, 3/18, 3/20, 3/21, 3/22,
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4/3, 4/11, 4/15, 4/20, 4/24, 4/25, 4/36,
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5/8, 5/13, 5/15, 5/18, 5/19, 5/22, 5/23, 5/24, 5/27, 5/28,
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6/3, 6/5, 6/6, 6/16, 6/18, 6/20, 6/21, 6/24, 6/26, 6/40, 6/42, 6/44,
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7/4, 7/12, 7/14, 7/18, 7/21, 7/22,
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8/4, 8/5, 8/6, 8/7, 8/10, 8/18, 8/19, 8/23, 8/28,
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9/12, 9/16, 9/17, 9/19, 9/23, 9/24, 9/30, 9/34,
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10/1, 10/4, 10/5, 10/11, 10/13, 10/15, 10/20, 10/32, 10/33, 10/38, 10/41,
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11/8, 11/22, 11/25, 11/26, 11/28, 11/29, 11/33, 11/35, 11/40, 11/45, 11/46, 11/49,
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12/4, 12/6, 12/8, 12/13,
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13/4, 13/5, 13/8, 13/14, 13/15, 13/19, 13,25, 13,29, 13/30,
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14/10, 14/13, 14/17, 14/22, 14/23,
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15/4, 15/7, 15/9, 15/15, 15/16,
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16/4, 16/6, 16/19, 16/20,
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17/2, 17/3, 17/6, 17/11, 17/12, 17/15, 17/18, 17/27,
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18/5, 18/8, 18/9, 18/14, 18/19, 18/29, 18/31, 18/35, 18/42, 18/50, 18/62, 18/65, 18/68,
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Friday, May 30, 2014

श्रीमद्भगवद्गीता 2 / 29

~~  श्रीमद्भगवद्गीता  2 / 29 ~~
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पिछले कितने दिन कैसे बीते यह सोचता हूँ तो आश्चर्य होता है। कहने को तो मनुष्य अपने को एक नाम और एक काया समझता है लेकिन उस नाम और काया से जुड़ा एक (या अनेक?) साकार (या निराकार?) 'मन' नामक तत्व कितने समयों में कितने धरातलों पर गतिशील रहता है, यह शायद ही उसे पता होता है।  यहाँ तक कि इस सरल और नितान्त प्रकट वास्तविकता पर फिर भी उसका ध्यान तब तक नहीं जाता, जब तक कि कोई उसका ध्यान इस ओर आकृष्ट ही न कर दे। और बावज़ूद इसके वह अपने को एक नाम-विशेष, एक काया-विशेष ही मन बैठता है।  'वह' कौन ? मन या मनुष्य ? प्रश्न यह भी है कि वे दोनों सचमुच एक ही चीज़ के दो रूप / दो नाम हैं, या दो अलग अलग चीज़ों के दो नाम / दो रूप ?
मन कभी ठहरा होता है, तो कभी तरंगित।  कभी उदास तो कभी प्रसन्न। कभी चिंतित तो कभी  निश्चिन्त। कभी व्यग्र तो कभी शांत।  कभी भावना के ज्वार पर तो कभी अवसाद के उतार पर।  मन या मनुष्य ? प्रश्न यह भी है कि वे दोनों सचमुच एक ही चीज़ के दो रूप / दो नाम हैं, या दो अलग अलग चीज़ों के दो नाम / दो रूप ?  स्पष्ट है मन या मनुष्य जो भी होता है, एक या (या अनेक?) साकार (या निराकार?), उसका 'जीवन', उसकी 'सत्ता' अवश्य ही दो तलों पर होती है।  मन और मनुष्य वे दोनों सचमुच एक ही चीज़ के दो रूप / दो नाम हों, या दो अलग अलग चीज़ों के दो नाम / दो रूप होते हों, अवश्य ही 'जीवन' के दो परस्पर अंतःस्यूत घनिष्ठतः गुथे हुए पक्ष होते हैं जिनमें भेद कर पाना कठिन होता है। लेकिन उनमें व्याप्त 'जीवन' भी तो उनकी ही तरह  साकार / निराकार, एक / अनेक के मध्य दोनों जैसी ही एक विलक्षण सत्यता है ! क्या वह सत्यता उनसे भिन्न कोई तीसरा तत्व है?
इसलिए मन / मनुष्य / जीवन तीनों ही बस अनिर्वचनीय यथार्थ हैं। वह यथार्थ एक समग्र तथ्य है, वह न सिर्फ आप है, न मैं, न हम, तुम, वे, यह या वह !
पिछले कई दिनों से इसी बारे में कौतूहल, जिज्ञासा और जानने-समझने की उत्कण्ठा थी।
यदि कहूँ 'मुझे' थी तो वह गलतबयानी होगा।  क्योंकि मन / मनुष्य / जीवन तीनों ही बस अनिर्वचनीय यथार्थ हैं। वह यथार्थ एक समग्र तथ्य है, वह न सिर्फ आप है, न मैं, न हम, तुम, वे, यह या वह !
इसलिए पिछले कितने दिन कैसे बीते यह सोचता हूँ, तो बस आश्चर्य होता है।
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आश्चर्यवत् पश्यति कश्चित् एनम्
आश्चर्यवत्  वदति तथा-एव च अन्यः।
आश्चर्यवत् च एनम् अन्यः शृणोति
श्रुत्वा अपि एनम् वेद न च एव कश्चित्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता  2 / 29 )
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