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Thursday, August 19, 2021

तप, ज्ञान, कर्म और योग

अभ्यासयोग 

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अध्याय ३ में भगवान् श्रीकृष्ण ने अध्यात्म-विषयक जिज्ञासुओं में दो प्रकार की निष्ठा का वर्णन किया है :

लोकेऽस्मिन्द्विविधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३।।

दो प्रकार की निष्ठाएँ क्रमशः साँख्य एवं योग की दृष्टि से कहने के अनंतर अर्जुन को इस विषय में शंका होती है कि निष्ठा की भिन्नता से क्या मुमुक्षु की उपलब्धि भी भिन्न भिन्न प्रकार की होती है?

अतः तब अध्याय ५ में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन की इस शंका का निवारण करते हुए उससे कहते हैं :

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः। 

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

इस प्रकार गीता में ज्ञान-विषयक दो धारणाएँ प्राप्त होती हैं:

एक तो साङ्ख्यदर्शन के अनुसार होनेवाला आत्म-ज्ञान, जो कि मुक्ति का साधन है, तथा दूसरा सैद्धान्तिक तत्त्वज्ञान, जो केवल शास्त्रीय होता है और वस्तुतः अज्ञान का ही विशेष प्रकार है। 

इस प्रकार का ज्ञान भी यद्यपि सैद्धान्तिक होता है, किन्तु फिर भी वह ज्ञानरहित अभ्यास की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है। 

इसलिए अध्याय १२ में भगवान् श्रीकृष्ण (सैद्धान्तिक ज्ञान से रहित) तप करनेवाले अभ्यासयोगियों अर्थात् तपस्वियों से इस ज्ञान से युक्त ज्ञानियों को अधिक श्रेष्ठ कहते हुए ध्यानयोगियों को ऐसे ज्ञानियों से भी श्रेष्ठतर कहते हैं। पुनः ऐसे ध्यानयोग में संलग्न, ध्यानरूपी कर्म करने की तुलना में उन्हें और भी अधिक श्रेष्ठ कहते हैं, जो कर्मफल (की आशा) को भी त्याग देते हैं।

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।९।।

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव। 

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।।१०

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। 

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।११।।

तथा अंत में :

श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासाज्ज्ञाद्ध्यानं विशिष्यते। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२।।

इस प्रकार तप, कर्म, ज्ञानरहित अभ्यास अर्थात् तप और ज्ञान-सहित कर्म को क्रमशः श्रेष्ठतर कहते हुए, अन्त में कर्मफल को ही त्याग देने को शान्ति की प्राप्ति का साधन कहते हैं। 

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Friday, May 21, 2021

पुनः अभ्यासयोग

3.

इस प्रकरण के क्रमांक 2 में अभ्यासयोग का वर्णन किया गया था। उसे ही आगे बढ़ाते हुए पुनः क्रमशः अध्याय १२ के उसी श्लोक १२ पर यह क्रम निम्न तरीके से पूर्ण होता है :

भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से आगे कहा :

युधिष्ठिर! अर्जुन को जिस प्रकार से मेरे स्वरूप (अर्थात् आत्मा) का दर्शन हुआ उसमें यद्यपि तत्वतः उसे अखिल विश्व का दर्शन हुआ, किन्तु उससे यह भी कहा गया कि वह जो कुछ और भी देखना चाहता है, उस सबको मुझमें देख सकता है।

चेतना के जिस तल पर अर्जुन को मेरे स्वरूप का दर्शन हुआ,  उसके विस्तार में जाना तुम्हारे लिए अनावश्यक है। अर्जुन ने मेरे उस स्वरूप का दर्शन किया क्योंकि यह उसकी अभिलाषा थी, किन्तु किसी भी मनुष्य का सामर्थ्य नहीं कि मेरे ऐसे दर्शन कर वह व्याकुल, व्यथित और भयभीत न हो। तब मैंने उसके भय को दूर करते हुए उससे कहा :

(अध्याय ११)

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।

व्यपेतभीः प्रीतमना पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ।। ४९

सञ्जय उवाच :

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः।

आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ।। ५०

अर्जुन उवाच :

दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन। 

इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतौ।। ५१

तब मैंने अर्जुन से पुनः यह कहा :

सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम। 

देवाऽप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।। ५२

क्यों? 

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन चेज्यया। 

शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।। ५३

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप।। ५४

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। 

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।। ५५

--

अध्याय ११ यहाँ पूर्ण हुआ। 

इसी क्रम में, अगले अध्याय १२ के पहले श्लोक में अर्जुन ने जिज्ञासा प्रस्तुत की :

अर्जुन उवाच :

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।

ये चाप्यमक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।। १

तब मैंने अर्जुन से कहा :

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।। २

ये त्वमक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। 

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।।३

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। 

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।। ४

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।

अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।। ५

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि  सन्न्यस्य मत्पराः। 

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।। ६

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।। ७

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिः निवेशय ।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।। ८

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरं ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।। ९

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्म परमं भव।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।।१०

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। 

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।। ११

क्यों? 

क्योंकि, 

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२

क्रमशः

***


 

 





 



 

Friday, August 30, 2019

आश्रितः, आश्रिताः

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
आश्रितः 12/11, 15/14,
आश्रिताः 7/15, 9/13,
--        

Thursday, August 22, 2019

असि,... continued..., असितः, असिद्धौ

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
असि 12/10, 12/11, 16/5, 18/64, 18/65,
असितः 10/13,
असिद्धौ 4/22,
--    

Thursday, August 1, 2019

अथ

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
अथ 1/20, 1/26, 2/26, 2/33, 3/36, 11/5, 11/40, 12/9, 12/11, 18/58,
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Thursday, July 3, 2014

आज का श्लोक, ’सर्वकर्मफलत्यागम्’ / ’sarvakarmaphalatyāgam’

आज का श्लोक,
’सर्वकर्मफलत्यागम्’ / ’sarvakarmaphalatyāgam’
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’सर्वकर्मफलत्यागम्’ /’sarvakarmaphalatyāgam’ - अपने समस्त कर्मों के फल (पर अपने अधिकार) को त्याग देना,

अध्याय 12, श्लोक 11,

अथैतद्प्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥
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(अथ एतत् अपि अशक्तः असि कर्तुम् मद्योगम् आश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागम् ततः कुरु यतात्मवान् ॥)
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भावार्थ : और हे यतात्मवान् ! यदि तुम इसमें भी असमर्थ हो कि मेरी (ईश्वर की) उपलब्धि हेतु मेरे (उसके) निमित्त कर्म कर पाना भी तुम्हें कठिन प्रतीत होता हो, तो तुम समस्त कर्मों के फल (पर अपने अधिकार) को ही त्याग दो और इस प्रकार से आत्मा अर्थात अपनी मन्-बुद्धि को संयत करो, ।
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टिप्पणी :
अध्याय 12 के श्लोक 3, 4 एवं  5 में बतलाया गया कि अगम-अचिन्त्य कूटस्थ अचल और ध्रुव तत्व-रूपी ब्रह्म की उपासना करना बहुत क्लेशप्रद है । श्लोक 6 में भगवान् श्रीकृष्ण ने यह बतलाया कि अनन्य-भक्तिरूपी योग से मुझमें कर्मों का संन्यास अपेक्षाकृत सरल है । श्लोक 7 में कहा कि जो मुझमें, मेरे परायण हुए समस्त कर्मों का संन्यास (त्याग / अर्पण)  करते  हुए, मेरा ध्यान करते हुए मेरी उपासना इस प्रकार से करते हैं,  मृत्युसंसाररूपी सागर से मैं उनका उद्धार करता हूँ । वह कर्म-संन्यास कैसे किया जाता है, इसे भगवान् श्रीकृष्ण ने श्लोक 8 में स्पष्ट किया । किन्तु जो पुनः इसमें भी कठिनाई समझते हैं, उनके लिए श्लोक 9 में अभ्यासयोग कैसे किया जाता है, यह बतलाया । श्लोक 10 में भगवान् श्रीकृष्ण ने इससे भी सरल तरीका बतलाया, और प्रस्तुत श्लोक संख्या 11 में बतलाया कि सम्पूर्ण कर्मों के फल (पर अपने अधिकार ) का त्याग करते हुए कोई किस प्रकार परमात्मा की प्राप्ति के लिए उसकी उपासना कर सकता है ।

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अध्याय 18, श्लोक 2,

श्रीभगवानुवाच :

काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥
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(काम्यानाम् कर्मणाम् न्यासं सन्न्यासं कवयः विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागम् प्राहुः त्यागं विचक्षणाः ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
विद्वान् पुरुष कामनाओं की प्राप्ति के उद्देश्य से किए जानेवाले कर्मों का त्याग ही संन्यास है, ऐसा समझते हैं, जबकि (अन्य) विचारपूर्वक देखने-जाननेवालों के मतानुसार समस्त कर्मफल का त्याग ही वस्तुतः त्याग होता है ।
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टिप्पणी :
उपरोक्त श्लोक में संक्षेप में संन्यास को परिभाषित किया गया है । यह जानना रोचक होगा कि इसका शाब्दिक अर्थ व्युत्पत्ति के आधार पर मुख्यतः दो प्रकार से प्राप्त होता है ।
’नि’ उपसर्ग के साथ ’अस्’ धातु (’होने) के अर्थ में संयुक्त करने पर ’न्यस्’ और फिर इससे अपत्यार्थक ’न्यास’ व्युत्पन्न होता है ।
’नि’ उपसर्ग के साथ ’आस्’ धातु (बैठने, स्थिर होने के अर्थ में) से ’न्यास्’ और ’न्यास’ प्राप्त होता है ।
तात्पर्य यह कि एक ओर जहाँ किसी वस्तु को उसके यथोचित स्थान पर रखना ’न्यास’ है, तो दूसरी ओर अपने स्वाभाविक स्वरूप (आत्मा) में मन को स्थिरता से रखना भी ’न्यास’ ही है । इसी को गौण अर्थ में न्यास अर्थात् अंग्रेज़ी भाषा के trust के लिए हिन्दी में प्रयुक्त किया जाता है ।
यह तो हुआ ’न्यास’ । इसके साथ ’सं’ उपसर्ग लगा देने से इसे पूर्णता प्राप्त हो जाती है और ’संन्यास’ प्राप्त हो जाता है  ।
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’सर्वकर्मफलत्यागम्’ / ’sarvakarmaphalatyāgam’ - giving up, renunciation of the right to fruits of all one's actions, claiming not, the fruits of any of one's actions.

Chapter 12, śloka 11,

athaitadpyaśakto:'si
kartuṃ madyogamāśritaḥ |
sarvakarmaphalatyāgaṃ
tataḥ kuru yatātmavān ||
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(atha etat api aśaktaḥ asi
kartum madyogam āśritaḥ |
sarvakarmaphalatyāgam 
tataḥ kuru yatātmavān ||)
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Meaning :
And if you find that striving to realize Me through working for Me alone (as said in the last śloka 10) is also difficult for you, then controlling your senses relinquish the fruits of all your actions to Me.
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Note :
We see, this Chapter 12 starts  with arjuna's question who is a superior  yogī, the one whois constantly associated with You in mind and spirit, or the one Who worships You as the Eternal, Immanent principle?
And the answer gradually develops and unfolds in bhagavān śrīkṛṣṇa telling him (to arjuna) a comparatively easy and even easier way, one may / should follow according to one's ability to attain Him / Me.
śloka-s 3, 4, 5 begin with telling arjuna that worshiping the Eternal, Immanent  principle is very difficult and not easy for all. In the next śloka-s, -6, 7, 8 and the relatively more and more easy ways have been deduced. And finally this one, śloka 11 points out what is the easiest way. This emphasizes control of senses, mind and body and surrendering the fruits of all one's actions to Him. This is the most important part of the teaching, because one can easily fall under the deception of having surrendered the fruits to the Lord and yet get keep involved in the actions that seem to give him pleasure.
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Chapter 18, śloka 2,

śrībhagavānuvāca :

kāmyānāṃ karmaṇāṃ nyāsaṃ
sannyāsaṃ kavayo viduḥ |
sarvakarmaphalatyāgaṃ 
prāhustyāgaṃ vicakṣaṇāḥ ||
--
(kāmyānām karmaṇām nyāsaṃ
sannyāsaṃ kavayaḥ viduḥ |
sarvakarmaphalatyāgam
prāhuḥ tyāgaṃ vicakṣaṇāḥ ||)
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Meaning :
śrīkṛṣṇa said :
Learned know, giving up of the actions prompted by the desires of enjoyments is the right kind of Renunciation,  And giving up the fruits of each and every action is termed as tyāgaṃ by the wise, vicakṣaṇāḥ --.
Note : Summarily there is a renunciation of action (karma), and there is another, -of the fruits of all action (phalatyāgam ).
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