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Sunday, February 13, 2022

नासतो विद्यते भावो

श्रीमद्भगवद्गीता :

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अध्याय २,

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।१६।।

अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।१७।।

अध्याय ४,

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।३४।।

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भगवान् श्री रमण महर्षि कृत सद्दर्शनम् :

सत्प्रत्ययाः किन्नु विहाय सन्तं ।

हद्येष चिन्तारहितं हृदाख्यः ।।

कथं स्मरामस्तममेयमेकम् ।

तस्य स्मृतिस्तत्र दृढैव निष्ठा ।।१।।

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प्रस्तुत प्रविष्टि (पोस्ट) के प्रारंभ के ३ श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता से उद्धृत किए गए हैं किन्तु यहाँ इसका उद्दिष्ट प्रयोजन, श्री रमण महर्षि-कृत सद्दर्शनम् नामक ग्रन्थ के प्रारंभ में उल्लिखित :

"सत्प्रत्ययाः"

पद की विवेचना करना है।

जिस सत् (Reality) पद को अहम्, निज, सत्य, ब्रह्म, आत्मा, अव्यय, अविनाशी, ईश्वर, इत्यादि पदों के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है वह वाणी का विषय नहीं होने से उसका वर्णन करना  बहुत कठिन है। 

अतः उसके बारे में जानने और कहने के लिए एकमात्र उपलब्ध और संभव उपाय यही है, कि उस 'सत्' नामक तत्त्व के द्योतक उसके चिह्नों और लक्षणों, उसके अर्थात् उसे इंगित करने वाले उन संकेतों के माध्यम से ही उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास किया जाए। 

उसके ऐसे कौन से चिह्न, लक्षण, द्योतक संकेत हैं, जिनके द्वारा  शास्त्रों में उसे इंगित किया गया है, और जिन्हें सामान्य बुद्धि से युक्त मनुष्य भी सफलतापूर्वक ग्रहण कर अन्ततः हृदयङ्गम कर सकता है?

अथर्वशीर्ष ऐसा ही एक उपक्रम है जिसका पाठ, अध्ययन कर अल्पबुद्धियुक्त ऐसा मनुष्य जिसका चित्त निर्मल, मन परिपक्व और विवेक जागृत हो, उस तत्त्व का साक्षात्कार कर सकता है। अथर्वशीर्ष उस परमात्मा के ऐसे चिह्नों या संकेतों के माध्यम से उसकी उपासना और स्तवन करने का अनुष्ठान है ।

संक्षेप में :

त्वं, अहम् तथा तत् (एवं यह) इन तीन सर्वनामों के माध्यम से उसे ही क्रमशः गणपति, रुद्र, देवी, नारायण तथा सूर्य आदि की संज्ञा देकर उसके ही स्वरूप का वर्णन श्री गणपति-अथर्वशीर्ष, शिव-अथर्वशीर्ष, श्री देवी-अथर्वशीर्ष, नारायण-अथर्वशीर्ष तथा सूर्य-अथर्वशीर्ष के रूप में किया गया है ।

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Friday, April 11, 2014

आज का श्लोक, ’सात्त्विकाः’ / 'sAttvikAH',

आज का श्लोक, ’सात्त्विकाः’ / 'sAttvikAH',
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’सात्त्विकाः’ / 'sAttvikAH' -सात्त्विक प्रवृत्तिवाले मनुष्य

अध्याय 7, श्लोक 12,
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥
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(ये च एव सात्त्विकाः भावाः राजसाः तामसाः च ये ।
मत्तः एव इति तान् विद्धि न तु अहम् तेषु ते मयि ॥
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भावार्थ :
परमात्मा विशुद्ध चैतन्य मात्र है, उसमें ’अस्मि’ की भावना तक नहीं है । इस दृष्टि से जीव भी वही है । किन्तु किसी देह-विशेष में व्यक्त हुआ वही चैतन्य, देह के नाम-रूप से अपने पृथक् होने का विचार कर लेता है । और तब भी उसे यह स्पष्ट नहीं होता कि इस ’पृथक्’ सत्ता के रूप में वह क्या है ।’जानना’ और ’होना’ ’चित्’ और ’सत्’ तब भी उसके लिए स्वतःप्रमाणित सत्य होते हैं, जबकि यह ’पृथक्-ता’ का विचार मस्तिष्क में उत्पन्न हुआ अन्य विचारों की तरह का ही एक विचार ही होता है । किन्तु इस अर्थ में यह शेष सभी विचारों से भिन्न होता है कि यह दूसरे सभी विचारों की पृष्ठभूमि में सतत् बना रहता है । यद्यपि निद्रावस्था में यह ’पृथक्-ता’ का विचार दूसरे सभी की तरह ही विलीन हो जाता है और ’चित्’ और ’सत्’ यथावत् तब भी अविच्छिन्न रहते हैं । क्योंकि निद्रा टूटने पर दूसरे विचार, और उनकी पृष्ठभूमि में विद्यमान ’पृथक्-ता’ पुनः आ धमकते हैं, जबकि उनके अभाव में निद्रा की गहरी अवस्था में भी मनुष्य मात्र को किसी अद्भुत् आनन्द की अनुभूति अवश्य होती है । संक्षेप में कहें तो गहरी निद्रा में ’चित्’, ’सत्’ और ’आनन्द’ भी प्रत्यक्ष ही जाने जाते हैं । हाँ यह अवश्य है कि ’विचार’ की भाषा में उनका वर्णन नहीं किया जा सकता । किन्तु इस तथ्य पर ध्यान देने से कि ’चित्’ ’सत्’ और ’आनन्द’ ही वस्तुतः पृथक्-ता की भावना की भी आधारभूत पृष्ठभूमि है, और हमारा चित्त कभी कभी अनायास ही इस आधारभूत पृष्ठभूमि को जागृत अवस्था में भी छू लेता है, हम उसे उस परमात्मा की तरह देख सकते हैं जिसका वर्णन उपरोक्त श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने ’अहम्’ नाम देकर किया है ।
वे संस्कृत व्याकरण के ’उत्तम पुरुष’ एकवचन ’अहम्’ शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसमें सात्त्विक राजस और तामस सारे भाव उठते-गिरते रहते हैं वे पुनः स्पष्ट करते हैं :
ये जो भी सात्त्विक, और ये जो राजस और तामस भाव हैं, वे उनका उद्भव मुझसे ही होता है, उन्हें इस तरह से जानो । और मैं उनमें नहीं हूँ बल्कि वे ही मुझमें हैं । प्रथम दृष्टि में इस वक्तव्य में विरोधाभास दिखलाई देगा किन्तु जब हम ’परमात्मा’ का अर्थ ’चित्’ ’सत्’ और आनन्द रूपी अविकारी सत्ता समझें और उसे ’अहम्’ कहें तो हम ’उत्तम पुरुष’ / ’पुरुषोत्तम’ का मर्म अवश्य देख लेंगे । वास्तव में अहम् एवम् अहंकार दोनों भिन्न तत्त्वों के नाम हैं । अहंकार सदैव सीमित और खण्डित होता है, ’अहम्’ सदा असीमित, अखण्ड, और ....।
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अध्याय 17, श्लोक 4,

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥
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(यजन्ते सात्त्विकाः देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान् भूतगणान् च अन्ये यजन्ते तामसाः जनाः ॥)
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भावार्थ :
सात्त्विक मन-बुद्धि वाले मनुष्य तो देवताओं की उपासना करते हैं, राजस प्रवृत्तिवाले यक्ष और राक्षसों की, तथा तामस प्रवृत्ति से युक्त मनुष्य प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं ।
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’सात्त्विकाः’ / 'sAttvikAH' -

Chapter 7, shloka 12,

ye chaiva sAttvikA bhAvA
rAjasAstAmasAshcha ye |
matta eveti tAnviddhi
na tvahaM teShu te mayi ||
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Meaning :
These tendencies of sAttvika (of harmony, peace and light ), of rAjasa (passion, restlessness, confusion), and also tAmasa (indolence, inertia, ignorance and darkness) of mind though all they have their emergence from ME; know well, They  are in ME, and not I, in them.
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There is a ground wherefrom and wherein these tendencies emerge, express them-self and dissolve again and again. That ground is 'consciousness' which is devoid of even the 'I'-sense of being 'some-one'. This 'I'-sense, -of being 'some-one' is a thought and inference on the part of intellect (the faculty of brain). This 'I'-sense, intellect and tendencies keep rising and setting, but the ground neither rises nor sets. This ground is The timeless consciousness, undivided, unlimited, while the 'person', a bundle of memories associated with and caught together in 'I'-sense is always a person, limited in a specific body, time and space. Knowing thus ...
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Chapter 17, shloka 4,
yajante sAttvikA devAn-
yakSharakShAMsi rAjasAH |
pretAnbhUtagaNAnchAnye
yajante tAmasA janAH ||
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Those who have the sAttvika tendencies worship divine beings, those with rAjasika worship yakSha (those who have occult powers) and rAkShasA (those who have purely material powers only) and those with tAmasika, worship spirits and ghosts.
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Wednesday, July 3, 2013

’श्री रमण महर्षि से बातचीत’ पुस्तक से उद्धृत अंश -२.

’श्री रमण महर्षि से बातचीत’ पुस्तक से उद्धृत अंश -२.
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24 जनवरी,1935.
§17.

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ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के एक अंग्रेज रिसर्च स्कॉलर श्री एम.वाई. इवांस-वैंज श्री ब्रंटन का परिचय-पत्र लेकर दर्शनार्थ आये । यात्रा की थकान होने के कारण उन्हें विश्राम की आवश्यकता थी । अनेक बार भारत आने के कारण वे भारत के रहन-सहन से भलीभाँति परिचित हैं । वे तिब्बती भाषा सीख चुके हैं तथा तिब्बत के सबसे महान योगी ’मिलरेपा की जीवनी’ तथा ’मृतकों की पुस्तक’ तथा एक अन्य पुस्तक ’तिब्बत के गुप्त सिद्धान्त’ का अनुवाद उनकी सहायता से हुआ ।
दोपहर में उन्होंने कुछ प्रश्न पूछने प्रारंभ किये । प्रश्न योग से सम्बन्धित थे । वे जानना चाहते थे कि योग-आसन करने के लिए बाघ, हरिण आदि को उनके चर्म के लिए मारना क्या उचित है ?
महर्षि : मन ही बाघ अथवा हरिण है ।
भक्त : यदि सब कुछ माया हो तो जीवन ले सकते हैं ?
महर्षि : भ्रम किसको है? उसकी खोज करो! वास्तव में अपने जीवन में प्रति क्षण, प्रत्येक व्यक्ति ’आत्मा का हनन’ कर रहा है ।
भक्त : आसनों में कौन-सा श्रेष्ठ है ?
महर्षि : आसन कोई भी हो, जैसे सुखासन; कोई भी सरल आसन (अथवा अर्द्ध-बुद्धासन) अच्छा है । परन्तु ज्ञान मार्ग के लिए इन सबका कोई महत्त्व नहीं ।
भक्त : क्या आसन से व्यक्ति के स्वभाव का अभास होता है ?
महर्षि : हाँ ।
भक्त : व्याघ्र चर्म, नमदा तथा हरिण चर्म के क्या-क्या गुण व प्रभाव हैं ?
महर्षि : कुछ व्यक्तियों ने उनका अध्ययन कर उनका योग के ग्रन्थों में वर्णन किया है । चुम्बकीयता के संचालन-प्रसंचालन से इनका संबंध है, पर ज्ञान-मार्ग का इन चीजों से कोई सम्बन्ध नहीं । वास्तव में आसन का उद्देश्य आत्मा की अनुभूति तथा उसमें दृढ़तापूर्वक स्थिर होना है । यह आन्तरिक है । अन्य आसन बाह्य स्थितियों के वर्णन हैं ।
भक्त : ध्यान करने के लिए कौन-सा समय सबसे उपयुक्त है?
महर्षि : समय क्या वस्तु है ?
भक्त : आप ही बताइए वह क्या है ?
महर्षि : समय एक विचार मात्र है । अस्तित्व केवल सत्य का है । जो कुछ भी संकल्प आप करते हैं कि वह है, वह वैसा ही दीखता है । यदि आप इसे समय कहे तो यह समय है; यदि इसे आप अस्तित्त्व कहें तो यह अस्तित्त्व है और इसी प्रकार इसे समय मानकर आप दिवस तथा रात्रियों में विभाजित कर लेते हैं तथा मास वर्ष, घण्टे एवं मिनट आदि में भी । ज्ञान मार्ग का समय से कोई संबंध नहीं । किन्तु प्रारंभ में साधक के लिए इस प्रकार के कुछ अनुशासन एवं नियमादि सहायक हो सकते हैं ।
भक्त : ज्ञानमार्ग क्या है ?
महर्षि : मन की एकाग्रता तथा योग दोनों साधनों में समान रूप से आवश्यक है । योग का लक्ष्य जीव का ब्रह्म - परम सत्य - से एकीकरण है । यह कोई नवीन वस्तु नहीं हो सकती । यह तो अभी भी विद्यमान होनी चाहिए और यह है भी । इसलिए ज्ञानमार्ग यह शोध करता है कि हमारा सत्य से वियोग क्यों कर हुआ । वियोग केवल सत्य से ही हुआ है ।
भक्त : माया क्या है ?
महर्षि : माया किसको है ? उसे खोज लो तो माया का लोप हो जाएगा ।
प्रायः लोग माया के संबंध में जिज्ञासा  करते हैं, किन्तु माया किसको प्रभावित कर रही है इसकी परीक्षा नहीं करते । यह मूर्खता है । माया बाहर है तथा अज्ञात है । किन्तु जिज्ञासा करनेवाला ज्ञात है तथा अन्तर में है । जो दूर है तथा अज्ञात है उसकी अपेक्षा जो अति समीप तथा अपने अन्दर है उसकी खोज करो । 
भक्त : क्या महर्षि यूरोपवासियों के लिए किसी विशेष आसन की सलाह देंगे ?
महर्षि : आसन निर्दिष्ट किए जा सकते हैं किन्तु यह जान लीजिए कि आसन, निर्धारित समय, तथा इस प्रकार की अन्य सामग्री के अभाव में ध्यान वर्जित नहीं है ।
भक्त : क्या महर्षि विशेषतया यूरोपवासियों के लिए किसी विशेष पद्धति का निर्देशन करेंगे ?
महर्षि : यह साधक के मानसिक विकास के अनुसार ही होता है । वास्तव में कोई निर्धारित एवं निश्चित नियम नहीं है ।
श्री इवांस-वैंज अधिकतर योग की प्रारम्भिक साधना से संबंधित प्रश्न करते रहे जिन्हें महर्षि ने योग के साधन मात्र कहा तथा योग को भी आत्म-साक्षात्कार का साधन ही बताया जो सबका लक्ष्य है ।
भक्त : क्या सांसारिक कार्य आत्म-साक्षात्कार में बाधक हैं ?
महर्षि : नहीं । ज्ञानी की दृष्टि में केवल आत्मा ही एकमात्र सत्य है, कर्म तो आभास मात्र हैं, वे आत्मा को प्रभावित नहीं करते । ज्ञानी कार्य करते हुए भी स्व्अयं को कर्त्ता नहीं मानता । उसके कार्य भी अपने आप होने जैसे होते हैं तथा वह पूर्णतया निर्लेप रहकर उन कार्यों का केवल साक्षी मात्र रहता है ।
इस प्रकार के कार्य का कोई लक्ष्य नहीं होता । ज्ञानमार्ग का साधक कार्यरत रहता हुआ भी साधना कर सकता है । प्रारंभिक अवस्था में साधक को कुछ कठिनाई हो सकती है, किन्तु कुछ अभ्यास के बाद शीघ्र ही इसका प्रभाव होगा फिर कर्मों से उसके ध्यान में कोई बाधा नहीं होगी ।
भक्त : अभ्यास क्या है ?
महर्षि : ’मैं की निरन्तर खोज, जो अहम् भाव का मूल स्रोत है । यह खोज करो कि ’मैं’ कौन हूँ ?’ शुद्ध ’मैं’ ही सत्य है, वही परब्रह्म सच्चिदानन्द है । उसको भूलने से ही सारे कष्ट एवं क्लेशों का जन्म होता है । जब इसको दृढ़ कर लिया जाय तो व्यक्ति दुःखों से छुटकारा पा जाता है ।
भक्त : क्या आत्म-साक्षात्कार के लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक नहीं ?
महर्षि : ’ब्रह्म में रहना’ ही ब्रह्मचर्य है । सामान्य धारणा में जिसे ब्रह्मचर्य समझा जाता है, उससे इसका कोई संबंध नहीं । वास्तविक ब्रह्मचारी अर्थात् ब्रह्म में ही स्थित रहनेवाला तो ब्रह्म में ही सर्वानन्द की प्राप्ति कर लेता है, वह ब्रह्म आत्मा से भिन्न नहीं । फिर आनन्द के अन्य स्रोतों की खोज क्यों ? वास्तव में आत्मा से बाहर होना ही सारे क्लेशों का मूल है ।
भक्त : क्या ब्रह्मचर्य पालन योग के लिए आवश्यक है? 
महर्षि : यह सही है । साक्षात्कार के अनेक साधनों में  ब्रह्मचर्य भी एक साधन है ।
भक्त : फिर क्या यह अत्यन्त आवश्यक नहीं ? क्या विवाहित पुरुष आत्म-साक्षात्कार कर सकता है ?
महर्षि : निश्चयपूर्वक । यह तो मन की योग्यता का विषय है । विवाहित हो अथवा अविवाहित, मनुष्य आत्म-साक्षात्कार कर सकता है क्योंकि आत्मा यहीं है, तथा अभी है । यदि ऐसा नहीं होता तथा इसकी उपलब्धि कभी आगे होती एवं यह कोई नवीन वस्तु होती जिसे प्राप्त करना होता तो ऐसा प्रयास वृथा ही होता । क्योंकि जो स्वाभाविक नहीं है वह स्थायी भी नहीं हो सकता । पर मैं यह कहता हूँ - आत्मा यहाँ है, अभी है तथा केवल उसी की सत्ता है ।
भक्त : ईश्वर सब में व्यापक है, अतः किसी जीव का जीवन नहीं लेना चाहिए । क्या हत्यारे का जीवन लेने का समाज का अधिकार उचित है ? क्या राज्य भी औसा कर सकता है ? ईसाई देश इस प्रकार का विचार करने लगे हैं कि ऐसा करना उचित नहीं ।
महर्षि : हत्यारे को हत्या करने के लिए किसने प्रेरित किया ? वही शक्ति उसे दण्ड देती है । समाज या राज्य तो उस शक्ति के हाथ में यन्त्र मात्र हैं । तुम एक व्यक्ति के प्राण लेने की बात करते हो युद्धों में असंख्य प्राणियों के जीवन जाते हैं, उसको क्या कहोगे ?
भक्त : ऐसा ही है । जीवन की हानि किसी भी प्रकार हो अनुचित ही है । क्या युद्ध उचित हैं ?
महर्षि : आत्मज्ञानी पुरुष के लिए जो सदैव आत्मा में ही स्थित है, इस लोक में अथवा तीनों लोकों में एक जीव की अथवा सब जीवों की हानि से कोई अन्तर नहीं पड़ता । यदि वह सब को नष्ट कर दे तो भी ऐसी शुद्धात्मा को कोई पाप स्पर्श नहीं कर सकता । महर्षि ने गीता के अठारहवें अध्याय का सत्रहवाँ श्लोक उद्धृत किया -
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
"जो  अहम् के भाव से सर्वथा शून्य है जिसकी बुद्धि संसार में लिपायमान नहीं है, यदि वह सब लोकों का भी संहार कर दे तो भी वह किसी को नहीं मारता और न वह अपने कर्मों के फल से ही बंधायमान होता है ।"
भक्त : व्यक्ति के कर्म क्या उसके बाद के जन्मों पर प्रभाव नहीं डालते ?
महर्षि : क्या तुम अभी जन्मे हो ? तुम दूसरे जन्मों की चिन्ता क्यों करते हो ? यथार्थ में न तो जन्म है न मृत्यु है । जो जन्मा हो उसे मृत्यु तथा शान्ति देनेवाले साधनों पर विचार करने दो ।
भक्त : महर्षि को आत्म-साक्षात्कार में कितना समय लगा ?
महर्षि : यह प्रश्न इसलिए पूछा गया है कि नाम एवं रूप की प्रतीति हो रही है । यह प्रतीति अहम् के स्थूल शरीर से तादात्म्य कर लेने से उत्पन्न हुई है ।
यदि अहम्  स्वयं को सूक्ष्म मन से मिला लेता है, जैसे कि स्वप्नावस्था में तो प्रतीति भी सूक्ष्म हो जाती है; परन्तु सुषुप्ति में कोई प्रतीति नहीं होती । क्या उस समय भी अहम् का अस्तित्व नहीं रहता ? यदि नहीं रहता तो सुषुप्ति की स्मृति भी नहीं रहती । जो सोया था वह कौन था ? अपनी सुषुप्ति में तुम नहीं कह रहे थे कि तुम सो रहे थे । यह तो तुम अब जागने पर कह रहे हो । इससे यह सिद्ध हुआ कि ’अहम्’ का भाव जाग्रत्, स्वप्न व सुषुप्ति में यथावत रहता है । इन अवस्थाओं की तह में जो सत्य (आत्मा) है उसे जानो । वही सत्य इन सब अवस्थाओं की तह में है । उस अवस्था में केवल अस्तित्व अथवा सत्ता है । वहाँ तू, मैं या वह नहीं है; न वर्तमान, भूत या भविष्य है । वह देश अथवा काल से परे है तथा अनिर्वचनीय है । वह तो सदैव है ।
जिस प्रकार केले का वृक्ष फल देकर समाप्त होने से पहले मूल की शाखाएँ बढ़ाता है एवं अन्यत्र रोपे जाने पर ये शाखाएँ पुनः फलवती होकर यही कार्य पुनः करती हैं; इसी प्रकार प्रारम्भिक युग के एवं अत्यन्त प्राचीन समय के गुरु (दक्षिणामूर्ति) जिन्होंने अपने ऋषि शिष्यों के सन्देह मौन से निवारण किये थे, ऐसी शाखाएँ छोड़ गये हैं जो निरन्तर बढ़ रही हैं । गुरु उसी दक्षिणामूर्ति की शाखा है । यह प्रश्न ही नहीं उठता जबकि आत्मा का साक्षात्कार हो चुका है ।
भक्त : क्या महर्षि को निर्विकल्प समाधि होती है ?
महर्षि : यदि नेत्र बन्द हों तो वह निर्विकल्प है; यदि नेत्र खुले हों तो वह सविकल्प् है (यद्यपि इसमें कुछ अन्तर है फिर भी पूर्ण शान्ति रहती है) सर्वथा विद्यमान स्वाभाविक अवस्था सहज समाधि की है ।
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Sunday, June 30, 2013

’श्री रमण महर्षि से बातचीत’ पुस्तक से उद्धृत अंश -१

’श्री रमण महर्षि से बातचीत’ पुस्तक से उद्धृत अंश -१
§ 58.  श्री रंगनाथन, आई.सी.एस. :
श्रीमद्भग्वद्गीता में एक जगह कहा है : व्यक्ति का स्वयं का धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है; दूसरे का धर्म भय देनेवाला है । स्वधर्म का क्या महत्त्व है?
महर्षि : सामान्यतया स्वधर्म  से तात्पर्य विशिष्ट कोटि तथा जातिगत कर्त्तव्यों  से है । भौतिक वातावरण भी ध्यान में रखना चाहिए ।
भक्त : यदि वर्णाश्रम धर्म से आशय है तो इस प्रकार के धर्म का प्रचलन तो भारत में ही है । जबकि गीता का उपयोग तो अखिल जगत् के हेतु होना चाहिए ।
महर्षि : हर देश में किसी न किसी रूप में वर्णाश्रम विद्यमान है । महत्त्व इस बात है कि एकमात्र आत्मा में स्थित रहो, वहाँ से बाहर न भटको इसका वास्तविक भाव यही है ।
 स्व = स्वयं का अर्थात् आत्मा का ।
पर = दूसरे का अर्थात् अनात्मा का ।
आत्मधर्म का प्रतिष्ठान आत्मा में है । वहाँ क्लेश अथवा भय नहीं होंगे । जब कोई अन्य होता है तभी दुःख उत्पन्न होता है । यदि यह अनुभूति हो कि केवल एकमात्र आत्मा ही है, दूसरा कोई नहीं है, तब भय नहीं होगा । आज मानव भ्रमवश अनात्म-धर्म को आत्म-धर्म समझकर दुःख उठाता है ।  उसे (आत्मा को) जानकर उसी में स्थित रहना चाहिए । तब भय का अन्त हो जाता है और संशय भी नहीं रहते । यदि इसका अर्थ वर्णाश्रम धर्म लें तो भी यही आशय निकलेगा । ऐसा धर्म तभी फलदायक होगा जब निःस्वार्थ भाव से किया जाये । अर्थात् यह मान लिया जाय कि कर्त्ता नहीं है परन्तु किसी उच्चतर सत्ता का यन्त्र मात्र है । उच्चतर सत्ता अवश्यम्भावी को होने दे और मैं केवल उसके आदेशों का ही पालन करूँ । कर्म मेरे नहीं हैं । इसलिए कर्मों के परिणाम भी मेरे नहीं हो सकते । यदि इसके अनुरूप विचार तथा कर्म हों तो कष्ट है कहाँ?  चाहे वर्णाश्रम धर्म हो अथवा लौकिक धर्म यह महत्व का नहीं है । अन्ततोगत्वा निष्कर्ष यह निकला :
 स्व = आत्मनः
पर = अनात्मनः
ऐसे संशय स्वाभाविक हैं । शास्त्रानुसार व्याख्या का आधुनिक जीवन से सामञ्जस्य नहीं हो सकता, जिसे जीवनयापन हेतु अनेक प्रकार से कार्य करना होता है ।
पोंडी से आये एक व्यक्ति ने बीच में टोका :
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । सब कर्त्तव्यों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ । 
श्रीभगवान : सर्व अनात्मनः ही है; महत्त्व ’एक’ का है । जिस मनुष्य की दृढ़ स्थिति ’एक’ पर है, उसके लिए धर्म कहाँ है ? तात्पर्य यह है कि "आत्मा में निमग्न हो जाओ ।"
भक्त : गीता का उपदेश तो कार्य करने के लिए किया गया था ।
महर्षि : गीता क्या कहती है ? अर्जुन ने युद्ध करने से इन्कार कर दिया । कृष्ण ने कहा, " जब तक तुम लड़ने से इन्कार करते रहोगे; तुम में कर्त्तापन का भाव रहेगा । युद्ध  करने अथवा न करने वाले तुम हो कौन् ? कर्त्ता भाव को त्यागो । जब तक उस भाव का निवारण नहीं करोगे तुम्हें कर्म तो करना ही होगा । उच्चतर सत्ता तुम्हारा उपयोग कर रही है । उसके आदेश के पालन की अवहेलना कर तुम स्वयं उसी सत्ता को स्वीकार कर रहे हो । इसकी अपेक्षा उस सत्ता को अंगीकार कर उसके आदेशों का यन्त्रवत् पालन करो । (अन्य प्रकार से कहें तो) यदि तुम इन्कार करोगे तो तुम्हें बलपूर्वक युद्ध में खींच लिया जायेगा । अनिच्छुक कर्त्ता की अपेक्षा इच्छापूर्वक कार्य करना श्रेयस्कर है ।"
 "अथवा आत्मा में स्थित हो कर्त्तापन के भाव से रहित होकर स्वभावानुसार कर्म करो । तब कर्म का फल तुम्हें प्रभावित नहीं करेगा । यही पुरुषार्थ एवं वीरता है ।"
’आत्मा में संस्थिति’ ही गीता के उपदेश का सार है । अन्त में महर्षि ने स्वयं फिर कहा, "यदि मनुष्य आत्मा में स्थित है, ये संशय उदय नहीं होंगे । वे तभी तक उदय होते हैं जब तक वह वहाँ स्थित नहीं होता ।"
भक्त : जिज्ञासु का ऐसे उत्तर से क्या हित होगा ?
महर्षि : फिर भी शब्दों में शक्ति होती है जो यथासमय निश्चय ही फल लाएगी ।
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