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Wednesday, November 3, 2021

निमित्त और उपादान

अध्याय १,

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।।३१।।

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अध्याय ११,

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व

जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।

मयैवेते निहताः पूर्वमेव

निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ।।३३।।

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अध्याय १३

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।

पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ।।१३।।

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।

प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ।।१४।।

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सद्दर्शनम् 

सर्वैर्निदानं जगतोऽहमश्च,

वाच्यः प्रभुः कश्चिदपारशक्तिः ।

चित्रेऽत्रेऽत्र लोक्यं च विलोकिता च

पटः प्रकाशोऽप्यभवत् स एकः ।।१।।

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क्या इसका अर्थ यह हुआ कि सृष्टि तो वस्तुतः कभी होती ही नहीं, क्योंकि परमात्मा स्वयं ही जगत् है ।

ऊपर के श्लोकों में यह कहा गया कि परमात्मा ही वैश्वानर तथा सोम का रूप लेता है (न कि उनकी सृष्टि करता है), किन्तु अब यदि अध्याय १० के इन श्लोकों का अवलोकन करें, जिनमें कहा गया है :

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।

अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ।।२०।।

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।

मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ।।२१।।

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।

इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ।।२२।।

रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ।

वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्  ।।२३।।

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।

सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ।।२४।।

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालय ।।२५।।

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ।।२६।।

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् ।

ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ।।२७।।

आयुधानामहं वज्रं धेनूनानस्मि कामधुक् ।

प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकि ।।२८।।

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।

पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्  ।।२९।।

('पितृणामर्यमा' में 'तृ' दीर्घ है, जिसे यहाँ यथावत् प्रस्तुत print / typeset करने में कठिनाई है, कृपया 10/29 में देखें, शायद मिल जाएगा,  या फिर अन्यत्र देखें।) 

प्रह्लादास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्  ।

मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ।।३०।।

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ।।३१।।

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।

अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ।।३२।।

अक्षराणामकारोस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च ।

अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ।।३३।।

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।

कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ।।३४।।

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ।।३५।।

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्वितामहम् ।

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्वमतामहम् ।।३६।।

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ।।३७।।

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ।।३८।।

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।

एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतिर्विस्तरो मया ।।३९।।

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ।।४०।।

यद्यद्विभूतिमत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ।।४१।।

10/30 एवं 10/33 में परमात्मा के 'काल' के स्वरूप को दो प्रकार  से व्यक्त किया गया है। 

एक तो वह है जो भौतिकीविदों (कलयतां) के द्वारा प्रतिपादित किया जानेवाला 'काल' है जो कि क्रमशः पुनः पुनः व्यक्त और अव्यक्त (manifest and unmanifest)  होता है, तो दूसरा वह जो अक्षय-स्वरूप अर्थात् अक्षर-स्वरूप है। 

इसे ही शिव-अथर्वशीर्ष में इस प्रकार से कहा गया है :

"अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो... "

तात्पर्य यह कि भौतिकीविदों द्वारा जिस "काल" का आकलन किया जाता है, वह बनती-मिटती रहनेवाली वस्तु है जो सतत व्यक्त और अव्यक्त होता रहता है। 

इसकी तुलना में परमात्मा वह "अक्षय-स्वरूप" काल है जिससे कि यह सापेक्ष काल पुनः पुनः अस्तित्व ग्रहण करता हुआ और पुनः पुनः विलीन होता हुआ प्रतीत होता है। 

इसी आभासी "काल" से स्थान / आकाश का उद्भव होता है ।

क्या परमात्मा सृष्टि का 'कर्ता' है?

स्पष्ट है कि सृष्टि अभिव्यक्ति है, न कि उसके द्वारा की जानेवाली निर्मिति, क्योंकि परमात्मा स्वयं ही सृष्टि का :

एकमात्र (unique) निमित्त कारण तथा, 

उपादान कारण (effective and material cause),

दोनों ही एक साथ है, या कहें कि परमात्मा स्वयं ही सृष्टा तथा सृष्टि भी है, किन्तु सृष्टिकर्त्ता नहीं है, और न उससे अलग दूसरा कोई सृष्टिकर्ता है। 

अतः यद्यपि यह तय किया जा सकता है कि भौतिक सृष्टि कब हुई, किन्तु उस तथ्य का संबंध केवल सूर्य के उद्भव से ही हो सकता है, न कि शेष अस्तित्व, या काल और स्थान (Time and Space) से ।

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Monday, August 26, 2019

अहम् / अहं ...7.

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अहम् / अहं 10/30, 10/31, 10/32, 10/33, 10/34, 10/35, 10/36,
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Saturday, August 24, 2019

अस्मि, ... continued ...

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अस्मि 10/21, 10/22, 10/23, 10/24, 10/25, 10/28, 10/29, 10/30,
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Wednesday, August 6, 2014

आज का श्लोक, ’वैनतेयः’ / ’vainateyaḥ’

आज का श्लोक, ’वैनतेयः’ / ’vainateyaḥ’
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’वैनतेयः’ / ’vainateyaḥ’ - गरुड़,

अध्याय 10, श्लोक 30,
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥
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(प्रह्लादः च अस्मि दैत्यानाम् कालः कलयताम् अहम् ।
मृगाणाम् च मृगेन्द्रः अहम् वैनतेयः च पक्षिणाम् ॥)
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भावार्थ :
दैत्यों में प्रह्लाद हूँ, और काल की (पल, घटी, दिन-रात्रि, तिथि, वार, मास वर्ष, संवत्सर आदि के माध्यम से) गणना करनेवालों का (सापेक्ष) काल अर्थात् ’समय’ मैं हूँ । पशुओं में मैं सिंह मैं हूँ, और पक्षियों में गरुड़ मैं हूँ ।
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(अहम् और महत् दोनों तत्व मूल बीजाक्षरों ’ह’ और ’म’ से  व्युत्पन्न होने से, जो समष्टि में ’महत्-तत्त्व’ है, वही व्यष्टि में ’अहम्-तत्त्व’ है । इसलिए ’महत्’ अर्थात् ईश्वर तत्व का लक्षण सभी प्राणियों में श्रेष्ठतम में प्रधानतः प्रत्यक्ष होता है, शेष में गौण । )
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’वैनतेयः’ / ’vainateyaḥ’ - Falcon,

Chapter 10, śloka 30,

prahlādaścāsmi daityānāṃ
kālaḥ kalayatāmaham |
mṛgāṇāṃ ca mṛgendro:'haṃ
vainateyaśca pakṣiṇām ||
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(prahlādaḥ ca asmi daityānām
kālaḥ kalayatām aham |
mṛgāṇām ca mṛgendraḥ aham
vainateyaḥ ca pakṣiṇām ||)
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Meaning :
Among the demons (daitya) prahlāda I AM, The time (relative) I AM as a concept among those, who define and calculate time on the basis of event and 'divide' the same into seconds, minutes, hours, day and night and so on. I AM the Lion among the beasts and among the birds I AM the Falcon (garuḍa / vainateya).
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