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Sunday, December 8, 2024

प्रत्याहार

विषय - (Object), विषयी - (Subject),

और चित्त - (attention) 

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विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिने।। 

रसोऽपि रसवर्जं तं परं दृष्ट्वा निवर्तते।।५९।।

(श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय २)

स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।।५४।।

(पातञ्जल योगसूत्र - साधनपाद)

।।2.54।।

शांकरभाष्य 

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स्वविषयसंप्रयोगाभावे चित्तस्वरूपानुकार इवेति चित्तनिरोधे चित्तवन्निरुद्धानीन्द्रियाणि नेतरेन्द्रियजयवदुपायान्तरमपेक्षन्ते। यथा मधुकरराजं मक्षिका उत्पतन्तमनूत्पतन्ति निविशमानमनुनिविशन्ते तथेन्द्रियाणि चित्तनिरोधे निरुद्धानीत्येष प्रत्याहारः।।

स्वविषय-असम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इव इन्द्रियाणां प्रत्याहारः।।

स्वविषय-संप्रयोग अभावे चित्त-स्वरूप-अनुकार इव इति चित्त-निरोधे चित्तवत् निरुद्धानि इन्द्रियाणि न इतर इन्द्रिय-जयवत् उपायान्तरम् अपेक्षन्ते। यथा मधुकरराजं मक्षिका उत्पतन्तं अनु उत्पत्ति निविशमानं अनुनिविशन्ते तथा इन्द्रियाणि चित्त-निरोधे निरुद्धानि इति एषः प्रत्याहारः।। 

ततः परमावश्यता इन्द्रियाणाम्।।५५।।

ततः परमा वक्रता इन्द्रियाणाम्।।

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विषयी के चित्त का इन्द्रियों के विषय से संपर्क होने पर वृत्ति-विशेष सक्रिय होती है। चित्त के निरुद्ध हो जाने पर चित्त की तरह से इन्द्रियाँ भी निरुद्ध हो जाती हैं। और  तब विषयी के रूप में विद्यमान अहं-वृत्ति भी अपने स्रोत में विलीन होकर शान्त हो जाती है। तब इन्द्रियाँ पूर्णतः परम वश में हो जाती हैं।

व्यवहार में ऐसा संभव नहीं होता। इसलिए सबसे पहले तो ध्यान (attention) को विषयों से हटाकर सिर्फ "मैं" / "स्वयं" पर लाया जाना होता है।

दूसरी रीति में ध्यान का विषय इष्ट / ईश्वर होता है, जिसका चिन्तन करते हुए अन्य सभी आते-जाते विचारों में लिप्त हुए बिना, उनकी उपेक्षा कर दी जाती है, और ध्यान को इष्ट / ईश्वर पर लौटाया जाता है। स्पष्ट है कि तब "मैं" ध्यानकर्ता के रूप में प्रच्छन्न (छिपा हुआ) रहता है। इसलिए प्रायः होता यह है कि मन विभाजित होकर एक साथ दो कार्यों में संलग्न होता है और दो ही क्या दो से अधिक भागों में भी उसकी गतिविधि जारी रहती है। यह एक बहुत संकटपूर्ण स्थिति होती है जिससे सावधान रहना चाहिए। अधिकतर लोगों का मन इस प्रकार इतना अधिक विभाजित (fragmented) हो जाता है कि यद्यपि वह एक ही समय में एक से अधिक कार्य (multitasking) तो कर सकता है किन्तु एक समय पर केवल किसी एक ही कार्य को कर पाना उसके लिए कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिए आप ड्राइविंग सीखते समय जितना सावधान होते हैं और आपका मन तब जितना शून्य होता है, ड्राइविंग सीख लेने के बाद वैसे सावधान नहीं रह पाते और दूसरा कोई कार्य जैसे कि संगीत सुनना, किसी से फोन पर या वैसे ही बातचीत करने आदि कार्य में संलग्न हो जाते हैं। जैसा कभी सरकस में किसी को करते हुए देखा होगा।

इसका एक कारण यह होता है कि जिस विषय में हमारी स्वाभाविक रुचि होती है, उस विषय पर मन सरलता से एकाग्र हो जाता है और हमें एकाग्रता का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु कभी कभी विचित्र स्थिति ऐसी भी हो जाती है जब हमारी रुचि एक साथ दो या अधिक विषयों में होती है। परिस्थिति के अनुसार भी ऐसा आवश्यक हो जाता है जब हम दुविधा में कुछ तय नहीं कर पाते। 

तीसरी रीति से, जब ध्यान को इन्द्रियों से लौटाकर ब्रह्म के स्वरूप पर स्थिर किया जाता है तो अहं-वृत्ति ब्रह्म से पृथक् न रहकर ब्रह्म से उसका तादात्म्य हो जाता है। अर्थात् तब इसे ही ब्रह्माकार वृत्ति कहा जाता है। इस स्थिति में जो अनुभव होता है उसे "अहं ब्रह्मास्मि" कहा जा सकता है। किन्तु यह अपरोक्षानुभूति (आत्मज्ञान) नहीं है।

अपरोक्षानुभूति वह है जिसका उल्लेख "रसवर्जं" के रूप में प्रारंभ में किया गया है।

इन तीनों विधियों में योग के बहिरङ्ग उपायों :

निरोध, एकाग्रता, समाधि से प्राप्त "समापत्ति" के साथ साथ प्रत्याहार का प्रयोग अपरिहार्यतः आवश्यक है।

इससे यह स्पष्ट है कि प्रत्याहार (withdrawing of attention from external objects) कितना महत्वपूर्ण है।

यतो यतो हि निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्। 

ततो ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।

***

 


Wednesday, September 27, 2023

The Thinking.

Thinking, Thought and Thinker.

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निर्विषय चेतना  / The consciousness devoid of object is ever so in the same way is also devoid of the विषयी / subject as well.

Wherever / यत्र through the sense-organs / ज्ञानेन्द्रिय, there is contact / सङ्गः between this pure consciousness associated with a living being (person - विषयी / पुरुष / पुंसः) with an object / विषय, the person as the Thinker / विषयी and the object / विषय as the World appear together at the same time.

Memory creates the illusion आभास / प्रत्यय that the निर्विषय चेतना / pure consciousness where this division takes place is the Thinker, and still the memory persists in the background as a Thought.

I-sense, as the Timeless Reality remains unaffected throughout.

A Practicing Yogi tries to exclude vRitti / Thought either by removing all the 5 kinds of vRitti, or attention fixed on one specific - a mantra or any such object of meditation.

The practice of removing all vRitti  वृत्ति  is called वृत्तिनिरोधः / vRitti-nirodhaH.

The practice of fixing the attention on a specific vRitti वृत्ति is called the एकाग्रता / ekAGratA.

Abidance in a specific vRitti for a long time is called समाधि / samAdhi.

The perfection संयम / samyama of Yoga is the state of the mind when the above,

विवेकवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।  

निरोध-परिणामः / the nirodha-pariNama,

एकाग्रता परिणामः / the ekAgratA-pariNama

and

the समाधि-परिणाम / samAdhi-pariNama are combined in one whole.

Maharshi Patanjali has described how this संयम / samyama is further applied in different ways so as to attain any occult or mystic power : सिद्धि / a siddhi.

This is the Yoga of कर्म / Karma.

However, the Way of  साँख्य / sAmkhya is the one where through inquiry into the Core Reality is attempted.

Where one through this enquiry, that begins with the question :

What is that abides for ever and what is that not so?

नित्य क्या है और अनित्य क्या है?

A sincere and earnest seeker soon or later on discovers and comes onto the realization that the दृक् / consciousness alone might be the origin, foundation and the very first, the prime source of and from where arises the appearance - the दृश्य प्रपञ्च Phenomenal Existence.

Accordingly the two spiritual paths are available for all and every sincere and earnest seeker / aspirant.

But in effect both the above two kind of seekers attain the same Realization at the end of their practice.

***





2/59 

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य योगिनः।।

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।५९।।

(अध्याय 2, Chapter 2, verse 59)

Sunday, January 22, 2023

रसवर्जं / rasavarjaṃ

रसवर्जं / rasavarjaṃ
________________

अध्याय 2, श्लोक 59,

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
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(विषयाः विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जम् रसः अपि अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते ।)
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भावार्थ :
जो मनुष्य इन्द्रियों से विषयों का सेवन नहीं करता, उसकी विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है (किन्तु विषयों से आसक्ति, अर्थात् उनमें सुख है ऐसी बुद्धि निवृत्त नहीं हो पाती) किन्तु जिसने परमात्मा का दर्शन कर लिया है, उसकी ऐसी सुख-बुद्धि अर्थात् लालसा (रसवर्जना) और आसक्ति भी उस दर्शन से सर्वथा निवृत्त हो जाती है ।
--
टिप्पणी :
लालसा को रसवर्ज इसलिए कहते हैं, क्योंकि लालसा सुख के अभाव का ही द्योतक होती है ।  जब तक लालसा होती है, सुख नहीं होता । और लालसा तृप्त हो जाने पर भी  सुख नहीं रहता । केवल उसके पूर्ण होने की प्रतीति के समय में कभी कभी सुख का आभास होता है, और वह आभास भी बाद में शेष नहीं रहता ।
विकल्प से, यदि हम ’रसवर्जम्’ को कर्म अर्थात् द्वितीया विभक्ति के अर्थ में ग्रहण करें तो वह ’परम्’ के तुल्य होकर ’ब्रह्म’ का पर्याय है, चूँकि ’ब्रह्म’ स्वयं ही रसस्वरूप अद्वैत तत्व है जिसका आनन्द लेनेवाला उससे अन्य नहीं है, इसलिए उसमें इस दृष्टि से रस का भी अत्यन्त अभाव है ।
--
’रसवर्जम्’ / ’rasavarjam’ -  craving for the pleasures, longing for,

Chapter 2, śloka 59,

viṣayā vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjaṃ raso:'pyasya
paraṃ dṛṣṭvā nivartate ||
--
(viṣayāḥ vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjam rasaḥ api asya
param dṛṣṭvā nivartate |)
--
Meaning :
One who abstains from objects (of the senses) is of course free from them, but his craving for the pleasures (and aversion to the pains) that seem to come from those (gross and subtle) objects ceases not. However, One who has realized the Supreme (Brahman that is Bliss), attains freedom from the cravings also.
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Saturday, August 24, 2019

अस्य

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अस्य 2/17, 2/40, 2/59, 2/65, 2/67, 3/18, 3/34, 3/40, 6/39,
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Wednesday, September 24, 2014

आज का श्लोक, ’रसवर्जम्’ / ’rasavarjam’

आज का श्लोक, ’रसवर्जम्’ / ’rasavarjam’
_______________________________

’रसवर्जम्’ / ’rasavarjam’ - लालसा,

अध्याय 2, श्लोक 59,

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
--
(विषयाः विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जम् रसः अपि अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते ।)
--
भावार्थ :
जो मनुष्य इन्द्रियों से विषयों का सेवन नहीं करता, उसकी विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है (किन्तु विषयों से आसक्ति, अर्थात् उनमें सुख है ऐसी बुद्धि निवृत्त नहीं हो पाती) किन्तु जिसने परमात्मा का दर्शन कर लिया है, उसकी ऐसी सुख-बुद्धि अर्थात् लालसा (रसवर्जना) और आसक्ति भी उस दर्शन से सर्वथा निवृत्त हो जाती है ।
--
टिप्पणी :
लालसा को रसवर्ज इसलिए कहते हैं, क्योंकि लालसा सुख के अभाव का ही द्योतक होती है ।  जब तक लालसा होती है, सुख नहीं होता । और लालसा तृप्त हो जाने पर भी  सुख नहीं रहता । केवल उसके पूर्ण होने की प्रतीति के समय में कभी कभी सुख का आभास होता है, और वह आभास भी बाद में शेष नहीं रहता ।
विकल्प से, यदि हम ’रसवर्जम्’ को कर्म अर्थात् द्वितीया विभक्ति के अर्थ में ग्रहण करें तो वह ’परम्’ के तुल्य होकर ’ब्रह्म’ का पर्याय है, चूँकि ’ब्रह्म’ स्वयं ही रसस्वरूप अद्वैत तत्व है जिसका आनन्द लेनेवाला उससे अन्य नहीं है, इसलिए उसमें इस दृष्टि से रस का भी अत्यन्त अभाव है ।
--
’रसवर्जम्’ / ’rasavarjam’ -  craving for the pleasures, longing for,

Chapter 2, śloka 59,

viṣayā vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjaṃ raso:'pyasya
paraṃ dṛṣṭvā nivartate ||
--
(viṣayāḥ vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjam rasaḥ api asya
param dṛṣṭvā nivartate |)
--
Meaning :
One who abstains from objects (of the senses) is of course free from them, but his craving for the pleasures (and aversion to the pains) that seem to come from those (gross and subtle) objects ceases not. However, One who has realized the Supreme (Brahman that is Bliss), attains freedom from the cravings also.
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Wednesday, August 27, 2014

आज का श्लोक, ’विनिवर्तन्ते’ / ’vinivartante’

आज का श्लोक,
’विनिवर्तन्ते’ / ’vinivartante’
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’विनिवर्तन्ते’ / ’vinivartante’ - निवारित हो जाते हैं, छूट जाते हैं,

अध्याय 2, श्लोक 59,

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
--
(विषयाः विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जम् रसः अपि अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते ।)
--
भावार्थ :
जो मनुष्य इन्द्रियों से विषयों का सेवन नहीं करता, उसकी विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है (किन्तु विषयों से आसक्ति, अर्थात् उनमें सुख है ऐसी बुद्धि निवृत्त नहीं हो पाती) किन्तु जिसने परमात्मा का दर्शन कर लिया है, उसकी ऐसी सुख-बुद्धि अर्थात् लालसा (रसवर्जना) और आसक्ति भी उस दर्शन से सर्वथा निवृत्त हो जाती है ।
--
टिप्पणी :
लालसा को रसवर्ज इसलिए कहते हैं, क्योंकि लालसा सुख के अभाव का ही द्योतक होती है ।  जब तक लालसा होती है, सुख नहीं होता । और लालसा तृप्त हो जाने पर भी  सुख नहीं रहता । केवल उसके पूर्ण होने की प्रतीति के समय में कभी कभी सुख का आभास होता है, और वह आभास भी बाद में शेष नहीं रहता ।
--
’विनिवर्तन्ते’ / ’vinivartante’ - are got rid of, are got release from,

Chapter 2, śloka 59,

viṣayā vinivartante 
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjaṃ raso:'pyasya
paraṃ dṛṣṭvā nivartate ||
--
(viṣayāḥ vinivartante 
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjam rasaḥ api asya
param dṛṣṭvā nivartate |)
--
Meaning :
One who abstains from objects (of the senses) is of course free from them, but his craving for the pleasures (and aversion to the pains) that seem to come from those (gross and subtle) objects ceases not. However, One who has realized the Supreme (Brahman that is Bliss), attains freedom from the cravings also.
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Tuesday, August 12, 2014

आज का श्लोक, ’विषयाः’ / ’viṣayāḥ’

आज का श्लोक, ’विषयाः’ / ’viṣayāḥ’
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’विषयाः’ / ’viṣayāḥ’ - इन्द्रियों के भोग के विभिन्न स्थूल विषय या उनका सूक्ष्म संवेदन,

अध्याय 2, श्लोक 59,

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
--
(विषयाः विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जम् रसः अपि अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते ।)
--
भावार्थ :
जो मनुष्य इन्द्रियों से विषयों का सेवन नहीं करता, उसकी विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है (किन्तु विषयों से आसक्ति, अर्थात् उनमें सुख है ऐसी बुद्धि निवृत्त नहीं हो पाती) किन्तु जिसने परमात्मा का दर्शन कर लिया है, उसकी ऐसी सुख-बुद्धि अर्थात् लालसा (रसवर्जना) और आसक्ति भी उस दर्शन से सर्वथा निवृत्त हो जाती है ।
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टिप्पणी :
लालसा को रसवर्ज इसलिए कहते हैं, क्योंकि लालसा सुख के अभाव का ही द्योतक होती है ।  जब तक लालसा होती है, सुख नहीं होता । और लालसा तृप्त हो जाने पर भी  सुख नहीं रहता । केवल उसके पूर्ण होने की प्रतीति के समय में कभी कभी सुख का आभास होता है, और वह आभास भी बाद में शेष नहीं रहता ।
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’विषयाः’ / ’viṣayāḥ’ - objects (gross) of senses or their subtle experience,

Chapter 2, śloka 59,

viṣayā vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjaṃ raso:'pyasya
paraṃ dṛṣṭvā nivartate ||
--
(viṣayāḥ vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjam rasaḥ api asya
param dṛṣṭvā nivartate |)
--
Meaning :
One who abstains from objects (of the senses) is of course free from them, but his craving for the pleasures (and aversion to the pains) that seem to come from those (gross and subtle) objects  still persists on. However, One who has realized the Supreme (Brahman that is Bliss), attains freedom from the cravings also.
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