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Friday, October 27, 2023

तस्याहं निग्रहं मन्ये

Chapter 6,

Verse 34, 35

अध्याय ६,

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।३४।।

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असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।३५।।

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उपरोक्त दोनों श्लोकों में ध्यान दिए जाने योग्य महत्वपूर्ण बिन्दु यह है - अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से प्रश्न पूछते हैं : हे कृष्ण! मन चञ्चल, हठी, अत्यन्त बलवान् और दृढ है। मैं मानता हूँ कि उसका निग्रह करना उसी तरह अत्यन्त कठिन है जैसे कि बहती हुई वायु को रोक सकना।

भगवान् श्रीकृष्ण उत्तर देते हुए कहते हैं :

हे महाबाहो अर्जुन! इसमें संशय नहीं है कि मन चञ्चल है और उसका निग्रह कर सकना कठिन भी है। किन्तु हे कौन्तेय! अभ्यास और वैराग्य से तो (अवश्य ही) उसका निग्रह किया जाता है।

यहाँ अर्जुन असावधानी से 'मन' और अपने आपको दो भिन्न वस्तुएँ मानकर यह प्रश्न पूछते हैं। "अहं मन्ये" -इस वाक्यांश से यही प्रतीत होता है। भगवान् श्रीकृष्ण इसका उत्तर देते हुए "अहं" पद का प्रयोग किए बिना ही अर्जुन से कहते हैं : "हे कौन्तेय! मन अवश्य ही चञ्चल है, और उसका निग्रह कर पाना बहुत कठिन है, फिर भी अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से उसका निग्रह किया जाता है।

यहाँ यह विचारणीय है कि क्या प्रश्नकर्ता अर्जुन का 'मन' उस प्रश्नकर्ता (अर्जुन) से पृथक् कोई भिन्न और अन्य / इतर वस्तु है, या स्वयं 'मन' ही अपने आपको "मैं" और 'मन' में विभाजित कर लेता है?

भगवान् श्रीकृष्ण फिर भी इस काल्पनिक प्रश्न का उत्तर देकर अर्जुन की समस्या का समाधान / निराकरण कर देते हैं।

अर्जुन के विषय में कुछ कहने से पहले यह समझ लिया जाना जरूरी है कि क्या हम सभी के साथ ऐसा ही नहीं होता है? कभी तो हम कहते हैं : "मैं प्रसन्न हूँ।" और कभी कहते हैं "मन प्रसन्न है।" ऐसी स्थिति में ध्यान इस ओर नहीं जाता कि जिसे "मैं" कहा जा रहा है, और जिसे "मन" कहा जा रहा है, क्या वह "मैं" और वह 'मन' एक ही वस्तु है, या दोनों दो भिन्न वस्तुएँ हैं! 

स्पष्ट है कि जो सतत परिवर्तित हो रहा है, कभी प्रसन्न तो कभी खिन्न हो रहा है वह 'मन' है, जबकि इस 'मन' को, अपरिवर्तित रहते हुए "जो" जानता है वह "मैं"। 

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Saturday, August 24, 2019

अहम् /अहं ... 2.

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अहम् /अहं 4/1, 4/5, 4/7, 4/11, 6/30, 6/33, 6/34,
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Tuesday, September 2, 2014

आज का श्लोक, ’वायोः’ / ’vāyoḥ’

आज का श्लोक, ’वायोः’ / ’vāyoḥ’
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’वायोः’ / ’vāyoḥ’ - वायु के,

अध्याय 6, श्लोक 34,

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्य निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
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(चञ्चलम् हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवत् दृढम् ।
तस्य अहम् निग्रहम् मन्ये वायोः इव सुदुष्करम् ॥)
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भावार्थ :
क्योंकि हे कृष्ण, (यह मेरा) मन बड़ा चञ्चल, विक्षोभ के स्वभाववाला, बलशाली तथा दृढ (हठी) है । मैं मानता हूँ कि उसका निग्रह करना वायु को रोकने की तरह एक बहुत कठिन कार्य है ।
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’वायोः’ / ’vāyoḥ’ - of wind,

Chapter 6, śloka 34,

cañcalaṃ hi manaḥ kṛṣṇa
pramāthi balavaddṛḍham |
tasya nigrahaṃ manye
vāyoriva suduṣkaram ||
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(cañcalam hi manaḥ kṛṣṇa
pramāthi balavat dṛḍham |
tasya aham nigraham manye
vāyoḥ iva suduṣkaram ||)
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Meaning : 
O kṛṣṇa! Certainly, (This) mind by very nature, is restless, turbulent, very powerful, and obstinate. Keeping it under check seems to me as difficult as controlling the movement of the wind.
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Friday, March 28, 2014

आज का श्लोक, ’सुदुष्करम्’ / 'suduShkaraM'

आज का श्लोक, ’सुदुष्करम्’ / 'suduShkaraM'
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’सुदुष्करम्’ / 'suduShkaraM' - बहुत कठिन,

अध्याय 6, श्लोक 34,

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्
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(चञ्चलम् हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवत्-दृढम् ।
तस्य-अहं निग्रहम् मन्ये वायोः-इव सुदुष्करम् ॥)
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भावार्थ :
क्योंकि हे कृष्ण, (यह मेरा) मन बड़ा चञ्चल, विक्षोभ के स्वभाववाला, बलशाली तथा दृढ (हठी) है । मैं मानता हूँ कि उसका निग्रह करना वायु को रोकने की तरह एक बहुत कठिन कार्य है ।
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’सुदुष्करम्’ / 'suduShkaraM' - a difficult task,

Chapter 6, shloka 34,

chanchalaM hi manaH kRShNa
pramAthi balavaddRDhaM |
tasyAhaM nigrahaM manye
vAyoH-iva suduShkaraM ||
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O kRShNa! Certainly, (This) mind by the very nature, is restless,, turbulent, very powerful, and obstinate. Keeping it under check seems to me as difficult as controlling the movement of the wind.
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