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Saturday, January 28, 2023

पञ्चश्लोकी गीता

साङख्य दर्शन और  योग दर्शन

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पतञ्जलि योगदर्शन के अनुसार :

अथ योगानुशासनम्।।१।।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।१०।।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।।११।।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ६ 

तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।।

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।२३।।

निश्चय - अनिर्वेदयोः - निश्चय और अध्यवसायपूर्वक, - इस योग का अनुष्ठान किया जाना चाहिए, जिसे दुःखसंयोग से वियोग - अर्थात् दुःख (से संयोग) का वियोग कहा जाता है।

यः पश्यति सः पश्यति - 

ऊपर उद्धृत प्रमाण का उल्लेख 'वृत्ति' के रूप में किया गया है। योग की परिभाषा-सूत्र के अनुसार प्रमाण भी विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति की ही तरह वृत्ति ही है। 

इसलिए महर्षि पतञ्जलि के योगशास्त्र के अनुसार प्रमाण भी सत्य के दर्शन हेतु अपर्याप्त है।

इसकी विवेचना न्याय-दर्शन के सन्दर्भ में इस प्रकार से की जा सकती है : प्रमाणों (Evidence) की परीक्षा करने के बाद जो निष्कर्ष अकाट्यतः सिद्ध होता है वह यथार्थ (Proof) होता है, जबकि इनके परोक्ष (Indirct) उल्लेख को आप्तवाक्य / वेद / निगम कहा जाता है। किन्तु इस वेद का विशुद्ध और संशयरहित तात्पर्य क्या है, इसे कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है? इसका एकमात्र आधार साक्ष्य अर्थात् दर्शन (Witness) ही है।

दर्शन ईश्वर का हो या आत्मा का ही एकमात्र साक्ष्य है। 

अतएव दर्शन ही सत्य की एकमात्र कसौटी (Criteria), उपाय है, जो पुनः केवल ६ रूपों में ही हो सकता है और उसी आधार पर वेद-सम्मत दर्शन यही षट्-दर्शन है जिसका उल्लेख क्रमशः :

साङ्ख्य, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, योग और वेदान्त (उत्तर-मीमांसा) की तरह किया जाता है। चूँकि सभी अपने आप में स्वतंत्र और सम्पूर्ण हैं, इसलिए अन्य सभी दर्शन जैसे बौद्ध या जैन जैसे वेद के प्रमाण को अस्वीकार करनेवाले सिद्धान्तों को  भी साङ्ख्य के ही अन्तर्गत दर्शन कहा जा सकता है।

दूसरी ओर, एकेश्वरवाद (Monotheism) और बहुदेवतावाद (Polytheism) आदि भी वेदविरोधी नहीं, बल्कि वेदसम्मत ही अवश्य हैं, किन्तु परंपरा और इतिहास के प्रभावों के परिणाम से आज वे वेदविरोधी दिखाई देने लगे हैं।

वैसे यह भी विवेचनीय है कि क्या Monotheism का अर्थ एकेश्वरवाद, और Polytheism का अर्थ बहुदेवतावाद कहाँ तक उपयुक्त है! क्योंकि Monotheism और Polytheism शब्दों की व्युत्पत्ति करने पर पता चलता है कि ग्रीक शब्द थिओ मूलतः संस्कृत के "धी" अर्थात् "बुद्धि" का सजात / cognate  है। इसलिए  Monotheism और Polytheism का अर्थ क्रमशः एकेश्वरवाद और बहुदेवतावाद नहीं, बल्कि एक बुद्धि, और अनेक बुद्धियाँ होगा।

श्रीमद्भगवद्गीता में इसका ही वर्णन  व्यवसायात्मिका बुध्दि की तरह से अध्याय २ में इस प्रकार से किया गया है :

व्यवसायात्मिका बुध्दिरेकेह कुरुनन्दन।।

बहुशाखः ह्यनन्ताश्चश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।४१।।

पुनः इस व्यवसायात्मिका बुध्दि से जिनकी बुद्धि अन्य है, वे :

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।।

वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।४२।।

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।।

क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।४३।।

ऐसे लोग जिनकी बुद्धि भोगों और ऐश्वर्य की लालसाओं से युक्त है, समाधि के विषय में अनुपयुक्त होती है।

जिनकी बुद्धि भोगों और ऐश्वर्य, स्वर्ग के सुखों की लालसा और आशा से लुब्ध है, उन्हें देवताओं की आराधना से यह सब प्राप्त भी हो सकता है, किन्तु ये सभी सुख क्षणिक होने से श्रेष्ठ बुद्धि से युक्त पुरुष इस दिशा में संलग्न नहीं होते। श्रीमद्भगवद्गीता में इसलिए इस मर्यादा को स्पष्ट किया गया है।

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अध्याय ५

अर्जुन उवाच :

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।

श्रीभगवान् उवाच :

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेसकरावुभौ।।

तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।२।।

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।३।।

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।

एकमप्यास्थितं सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।।

एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।

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Saturday, January 14, 2023

Industry, Business,

Management & Finance. 

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Why Business Empires Crash / Collapse? 

श्रीमद्भगवद्गीता / Shrimadbhagvadgita indirectly points out the reasons.

The word "Business" could be found to have been originated from the Sanskrit roots as a combination of two root words :

√विश् and √न्यस् respectively.

√विश् is used to denote "to enter", while the word √न्यस् (as in न्यास, विन्यास, संन्यास, पंन्यास) is used to mean "to invest", नि (उपसर्ग) / prefix + verb-root - √अस्  to keep secure, safe, and in a good / healthy condition.

Again, the word "invest" could be traced to have roots in अनु-विश् meaning to enter kind of an activity.

There are words like "व्यवसाय" which could be split as "वि अव साय" The root word or the verb-root √सो -- साययति means "to annihilate, or "to completely destroy", while the उपसर्ग / prefix "अव" prefixed to √सो gives us the compound word "अवसाय", -meaning "to save, to protect from destruction", but implies "to prosper" / "to grow"; or to develop.

The उपसर्ग -prefix "वि" turns "अवसाय" into the word : "व्यवसाय" - that means development, growth and progress.

"Business" in this way is quite appropriate a translation of the word "व्यवसाय" that we find in the following shloka / verses --

Chapter 2/41, Chapter 2/44, Chapter 10/36, and Chapter 18/59 :

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।४१।।

(अध्याय २)

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।४४।।

(अध्याय २)

द्यूतं छलयितामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।।

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत् त्ववतामहम्।।३६।।

(अध्याय १०)

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस् त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।

(अध्याय १८)

Maybe, shall elaborate in the next posts.

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Wednesday, September 25, 2019

सुदुराचारः / सुदुराचारी

सुदुराचारः / सुदुराचारी
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गीता अध्याय 9 श्लोक 30 इस प्रकार है :
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि स।।30
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गीता अध्याय 9 श्लोक 29 इस प्रकार है :
समोऽहं सर्वभूतेषु न में द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।29
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गीता अध्याय 2 श्लोक 41  इस प्रकार है :
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।41
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गीता अध्याय 2 श्लोक 44  इस प्रकार है :
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृत चेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।44
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उपरोक्त श्लोकों के हिन्दी तथा अंग्रेज़ी तात्पर्य इसी ब्लॉग में अन्यत्र देखे जा सकते हैं।
The English transcript and translation of the above four stanzas could be found,
in this blog elsewhere, ... so I wanted to avoid unnecessary repetition here.
However, you can click the labels underneath to check the exact location of them.
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'पाहि कृपामयि मामज्ञानम्'
में जैसे 'अज्ञान' का अर्थ है 'अज्ञानी' वैसे ही उपरोक्त श्लोक 9/30 में
'सुदुराचारः' का अर्थ है सुदुराचारी'--अत्यन्त दुराचारी।
उल्लेखनीय बात यह है कि इसी श्लोक में 'भजते मामनन्यभाक्' में 'भज्' धातु का प्रयोग
आत्मनेपदी है,
जबकि श्लोक 9/29 में 'भज्' धातु का प्रयोग परस्मैपदी है, किन्तु इसके तुरंत बाद ही
'मयि ते तेषु चाप्यहम्'
में स्पष्ट कर दिया गया है कि ऐसा 'दुराचारी' भी वस्तुतः अपने आचरण में कर्तृत्व-बुद्धि
से रहित होने से उसे 'साधु-पुरुष' और 'सम्यग्व्यवसित' माना जाना चाहिए।
इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि ऐसा मनुष्य उस स्थिति में है,
जैसा कि गीता अध्याय 6 श्लोक 22 में वर्णन है :
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते। 41
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Wednesday, August 21, 2019

अव्यवसायिनाम्, अशक्तः, अशमः, अशस्त्रम्

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अव्यवसायिनाम् 2/41,
अशक्तः 12/ 21,
अशमः 14/12,
अशस्त्रम् 1/46,
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Sunday, August 4, 2019

अनन्तम्, अनन्तः, अनन्ताः

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अनन्तम् 11/11, 11/47,
अनन्तः 10/29,
अनन्ताः 2/41,
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Thursday, August 25, 2016

निष्ठा अर्थात् व्यवसायात्मिका बुद्धि

निष्ठा अर्थात् व्यवसायात्मिका बुद्धि
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लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञनयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
(श्रीमद्भग्वद्गीता, ३/३)
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हे अर्जुन! जिस निष्ठा से मनुष्य सर्वोत्तम गति को प्राप्त करता है, उसके बारे में मैं बहुत प्राचीन काल में ही बता चुका हूँ कि वह अपने-अपने स्वभाव से मनुष्य में दो प्रकार की होती है, कोई तो कर्म को ही श्रेष्ठ मानते हैं और कोई अन्य ज्ञान को । किन्तु चूँकि किसी भी एक के माध्यम से दूसरे की प्राप्ति होती है, इसलिए उनमें वस्तुतः विरोध नहीं है ।
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O Arjuna! As I had said in the earliest times, To reach the Supreme state, there are two approches. There are those who seek this through action (karma), and others through understanding (jnAna).
(And there is no contradiction because one becomes the other.)
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अध्याय 3, श्लोक 3 
श्रीभगवान् उवाच :

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
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(लोके-अस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया अनघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानाम् कर्मयोगेन योगिनाम् ॥)
भावार्थ :
हे अनघ अर्जुन! इस लोक में (अधिकारी-भेद के अनुसार भिन्न-भिन्न मनुष्यों में) जो दो निष्ठाएँ  (परमार्थ की सिद्धि / प्राप्ति कैसे होती है, इस विषय में) होती हैं, उनके बारे नें मेरे द्वारा बहुत पहले ही कहा जा चुका है । साङ्ख्ययोग के प्रति ज्ञानयोगियों की निष्ठा, और कर्मयोग के प्रति कर्मयोगियों की निष्ठा ।
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Chapter 3, śloka 3,

śrībhagavān uvāca :

loke:'smindvividhā niṣṭhā
purā proktā mayānagha |
jñānayogena sāṅkhyānāṃ
karmayogena yoginām ||
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(loke-asmin dvividhā niṣṭhā
purā proktā mayā anagha |
jñānayogena sāṅkhyānām
karmayogena yoginām ||)
--
Meaning :

Lord śrīkṛṣṇa said :

O sinless arjuna of pure mind! Long ago in times, there are two different kinds of ways to follow for approaching the Supreme which were described by ME (for those who deserve, according to the specific bent of their mind). Those who are inclined to follow the way of sāṅkhyayoga (by deduction and enquiry into the nature of Reality, Self) are the jñānayogins. Others, who emphasize and are inclined to follow the way of action are the karmayogins.
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अध्याय 2, श्लोक 41,

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥
--
(व्यवसायात्मिका बुद्धिः एका इह कुरुनन्दन ।
बहुशाखाः हि अनन्ताः च बुद्धयः अव्यवसायिनाम् ॥)
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भावार्थ :
हे कुरुनन्दन (अर्जुन)!
यहाँ, इस संसार में मनुष्य के लिए कल्याणकारी बुद्धि एक ही है, जबकि कल्याण से विमुख करनेवाली बुद्धियाँ अनेक शाखाओंवाली और असंख्य हैं ।
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Chapter 2, śloka 41,

vyavasāyātmikā buddhi-
rekeha kurunandana |
bahuśākhā hyanantāśca
buddhayo:'vyavasāyinām ||
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(vyavasāyātmikā buddhiḥ
ekā iha kurunandana |
bahuśākhāḥ hi anantāḥ ca
buddhayaḥ avyavasāyinām ||)
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Meaning :
O kurunandana (arjuna)! -- The intellect that is of immense help in attaining the supreme good is unique and only one of its own kind, while there are others with many branches and infinite kinds, that distract one from this goal.
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Tuesday, August 5, 2014

आज का श्लोक, ’व्यवसायात्मिका’ / ’vyavasāyātmikā’

आज का श्लोक,
’व्यवसायात्मिका’ / ’vyavasāyātmikā’
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’व्यवसायात्मिका’ / ’vyavasāyātmikā’ - सार्थक, कल्याणकारी, प्रयोजनपरक,

अध्याय 2, श्लोक 41,

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥
--
(व्यवसायात्मिका बुद्धिः एका इह कुरुनन्दन ।
बहुशाखाः हि अनन्ताः च बुद्धयः अव्यवसायिनाम् ॥)
--
भावार्थ :
हे कुरुनन्दन (अर्जुन)!
यहाँ, इस संसार में मनुष्य के लिए कल्याणकारी बुद्धि एक ही है, जबकि कल्याण से विमुख करनेवाली बुद्धियाँ अनेक शाखाओंवाली और असंख्य हैं ।
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अध्याय 2, श्लोक 44,

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
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(भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम् तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥)
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भावार्थ :
जिनकी बुद्धि भोग और ऐश्वर्य से अत्यन्त लुब्ध और आसक्त है, और इसलिए उनकी ही प्राप्ति के लिए लालायित है, इस प्रकार के लोगों की परमात्मा में कदापि रुचि नहीं होती, और उनकी ध्येयपरक बुद्धि उस परमार्थ तत्व में संलग्न भी नहीं हो पाती ।  
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’व्यवसायात्मिका’ / ’vyavasāyātmikā’ - one-pointed, meaningful, that is of real help in attaining the supreme good.

Chapter 2, śloka 41,

vyavasāyātmikā buddhi-
rekeha kurunandana |
bahuśākhā hyanantāśca
buddhayo:'vyavasāyinām ||
--
(vyavasāyātmikā buddhiḥ
ekā iha kurunandana |
bahuśākhāḥ hi anantāḥ ca
buddhayaḥ avyavasāyinām ||)
--
Meaning :
O kurunandana (arjuna)! -- The intellect that is of immense help in attaining the supreme good is unique and only one of its own kind, while there are others with many branches and infinite kinds, that distract one from this goal.
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Chapter 2, śloka 44,

bhogaiśvaryaprasaktānāṃ
tayāpahṛtacetasām |
vyavasāyātmikā buddhiḥ
samādhau na vidhīyate ||
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(bhogaiśvaryaprasaktānām
tayāpahṛtacetasām |
vyavasāyātmikā buddhiḥ
samādhau na vidhīyate ||)
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Meaning :
Those whose minds are attracted towards the enjoyments of wealth and pleasures of the world, and so have a deep attachment towards them, their intellect of determination never tends to be drawn towards the ultimate destiny (paramārtha tatva) of consciousness.
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