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Saturday, November 12, 2022

कुरुक्षेत्र-घोषणा

Kurukshetra-declaration 

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अध्याय २,

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम अध्याय इस ग्रन्थ की केवल प्रस्तावना मात्र है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनविषादयोगः नामक इस अध्याय में अर्जुन के विषाद को जानकर उस विषाद का निवारण करने के लिए अर्जुन को इस ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में साङ्ख्य-योग अर्थात् बुद्धियोग का उपदेश देते हैं क्योंकि कर्म स्वरूप से जड होने से किसी नित्यफल की प्राप्ति का साधन नहीं हो सकता। कर्म स्वयं अनित्य होने से जिस किसी भी फल की प्राप्ति करने के लिए सहायक होता है, वह फल स्वयं भी अनित्य ही होता है इसलिए जिसे परम समाधान को प्राप्त करने की अभिलाषा है, वह उस निष्ठा का आश्रय ग्रहण करता है, जिससे प्रेरित होकर मनुष्य किसी कर्म से संलग्न होता है। किन्तु मनुष्य की बुद्धि को कौन सी निष्ठा प्रेरित कर उसे कर्म करने के लिए प्रवृत्त करती है, इसे बुद्धि से नहीं जाना जा सकता। कर्म परिस्थितियों, इच्छा, आशा और मनुष्य के सामर्थ्य के अनुसार ही संभव हुआ करता है, और कर्म से जो फल प्राप्त होता है वह भी चूँकि अनित्य होता है, इसलिए कर्म की आवश्यकता सदा बनी ही रहती है।

इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि बुद्धि और कर्म परस्पर अत्यन्त ही भिन्न प्रकार के तत्त्व हैं, और कर्म का स्वरूप क्या है इसे तो बुद्धि से जाना जा सकता है, किन्तु बुद्धि का तत्व क्या है इसे बुद्धियोग से ही जाना जाता है। कर्म नितान्त जड है, जबकि बुद्धि कर्म की अपेक्षा चेतन है। इसलिए कर्म पर बुद्धि से नियंत्रण किया जाता है, तथा बुद्धि पर विवेक अर्थात् बुद्धियोग से। अध्याय ४ में भगवान् श्रीकृष्ण इसे ही स्पष्ट करते हुए कहते हैं :

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।।

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१६।।

पुनः अगले ही श्लोक में बुद्धि से कर्म का क्या संबंध है इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं :

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।

कर्म क्या है, अकर्म क्या है और विकर्म क्या है, इसे तो बुद्धि से यद्यपि जाना जा सकता है, किन्तु बुद्धिमान तो वह है जो कर्म में प्रच्छन्न अकर्म को, तथा अकर्म में प्रच्छन्न कर्म को देख पाता है, जिसे इसके बाद के निम्न श्लोक में स्पष्ट किया गया है :

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।।

स बुद्धिमान मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत।।१८।।

कर्म का दूसरा वर्गीकरण अध्याय १८ में उनके सात्त्विक, राजस और तामस गुणों के आधार पर किया गया है :

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।।

अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।२३।।

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।।

क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।२४।।

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।।

मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।२५।।

जैसा कि पहले कहा गया, कर्म नितान्त जड है, और किसी भी कर्म के संभव होने हेतु पाँच कारणों का उल्लेख साङ्ख्यशास्त्र अर्थात् वेदान्त शास्त्र में भी किया गया है, फिर भी दुर्मति- युक्त  / दुर्बुद्धि युक्त मनुष्य केवल अपने-आपके ही स्वतंत्र कर्ता होने की मान्यता से ग्रस्त रहता है :

पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।।

साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१३।।

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।।

न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।१५।।

तथा सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।।

पश्यत्कृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।१६।।

अपने आपको कर्ता मानने-रूपी यह कर्तृत्व-बुद्धि अर्थात् :

"मैं ही कर्म का एकमात्र कर्ता हूँ",

इस प्रकार की विषम-बुद्धि को कर्ता कहा जाता है। जिस मनुष्य में इस प्रकार की कर्तृत्व-बुद्धि का अभाव होता है, और जिसकी बुद्धि "मैं कर्ता हूँ" इस प्रकार के अहंकार की भावना से लिप्त नहीं होती, यदि वह इन समस्त लोकों को नष्ट भी कर देता है, तो भी, न तो वह किसी को मारता है, न ही इस कर्म से बँधता है :

यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।।

हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।१७।।

कर्ममात्र की प्रेरक-बुद्धि के तीन कारक-तत्व -- 

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।।

करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः।।१८।।

इस प्रकार कर्म के तत्त्व को बुद्धि से जाना जा सकता है, और तदनुसार कर्म का अनुष्ठान करना ही कर्म-योग है। बुद्धियोग में इस प्रश्न पर ध्यान दिया जाता है कि समस्त ही कर्म जिन मुख्य  पाँच कारणों से होते हैं वे कारण कौन कौन से हैं? जैसा उपरोक्त श्लोक १४ में कहा गया, प्रथम तो है अधिष्ठान अर्थात् चेतना या अस्तित्व का सहज स्वाभाविक भान जो किसी पिण्ड में चेतना की अभिव्यक्ति होने पर ही संभव है। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि चेतना की अभिव्यक्ति होने पर ही किसी पिण्ड में अपने एवं अपने से इतर का विभाजन अहं-इदं के रूप में संभव होता है।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। 

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।१६।।

(अध्याय २)

तात्पर्य यह कि सत् और चित् एकमेव सत्य हैं।

सत् अर्थात् जो है, उसे जाननेवाला भी कोई है, अन्यथा जो है, उसके होने का क्या प्रमाण होगा! इसी प्रकार इस जानने अर्थात् बोध का अस्तित्व भी अवश्य है। यदि इसका अस्तित्व न हो तो सत् के अस्तित्वमान होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होगा! 

इसलिए सत् ही चित् अर्थात् सत् का भान या बोध है, और इस भान या बोध का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है। 

यही सत्-चित् ब्रह्म है, क्योंकि इसे जाननेवाला इससे भिन्न कोई दूसरा नहीं हो सकता। एकमेवोऽद्वितीयः।

इस एकमेव और अद्वितीय की अपरोक्षानुभूति ही साङ्ख्यज्ञान या साङ्ख्यनिष्ठा है। जबकि कर्म-योग के अभ्यास / अनुष्ठान में मनुष्य स्वयं को कर्म का कर्ता मान्य कर लेता है और उसे इसका आभास भी नहीं होता है कि यह मान्यता स्वयं ही एक बड़ी भूल है। 

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Wednesday, February 16, 2022

3 "I".

Incision into :

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The Inclination,

The Involvement, and

The Indulgence.

Gita chapter 1 is about the foreground what Maharshi VEDAVYASA turned into a greatest classic of all times.

This chapter 1 narrates about the situation in the battlefield where the Great war took place. And it was but natural that Arjuna was overwhelmed by self-pity and could not see what the war meant and was of worth.

So far, so good.

Sri-Krishna explained to him the essentials of Sankhya angle in the next chapter 2.

Arjuna was unable to grasp this teaching of the Sankhya Darshana so a dialogue started between the two. 

From the chapter 2 onwards till the end, that is the chapter 18, throughout this whole text of Gita, Sri-Krisna deals with Yoga aspect of the Karma-Darshana, on the (pretext of the) assumption that this may help Arjuna to take a decision with confidence.

In a way Sri-Krishna performed the role of a motivational speaker / Guru only. 

But the crux / the climax of this text comes and is to be seen in the chapter 18, where Sri-Krishna, - though well aware that Karma (deed), JnAna (knowledge) and the Karta (the notion of 'some-one' who is supposed to execute / perform the deed) are hypothetical, appear and disappear in thought only and as such they have no intrinsic truth whatever, assumes them as to be true for helping and convincing Arjuna.

Though Arjuna is quite unaware of this fact, he listens to Sri-Krishna with all due respect, care, and attention and follows his words.

Sri-Krishna further elaborates His point and takes it for granted, that not only the Karma (deed), but also the Karta (the one who is supposed to execute / perform a deed) along-with the JnAna (knowledge) are as much real and true, the result of the deed / action, -the  (Karma-phala) -is real.

That is how Sri-Krishna then classifies and categorizes the three hypothetical ideas / notions, namely the Karta, the Karma, and the JnAna, accordingly in terms of the three kinds of  satvika, rajasika and tamasika tendencies respectively.

satvika, rajasika and tamasika are the kinds of tendencies of mind that could be treated again as the synonyms of

The Inclination,

The Involvement, and

The Indulgence.

Accordingly the Karta, the Karma and the JnAna are also described in terms of these three tendencies, which are basically the 3 constituents of Maya only.

In conclusion, the whole text of Gita deals with beautifully and fits perfectly well with the way one would approach the Reality.

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This Reminds me of -

(Thus spake Sri Nisargadatta Maharaj:)

"If you know what you teach, you can teach what you know".

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Tuesday, August 13, 2019

अयुक्तः, अयोगतः, अरतिः, अरागद्वेषतः

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index
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अयुक्तः 5/12, 18/28, 
अयोगतः 5/6,
अरतिः 13/10,
अरागद्वेषतः 18/23,
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Saturday, August 10, 2019

अफलप्रेप्सुना, अफलकाङ्क्षिभिः, अबुद्धयः

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
अफलप्रेप्सुना 18/23,  
अफलकाङ्क्षिभिः 17/11, 17/17,
अबुद्धयः 7/24,
--     

Friday, July 18, 2014

आज का श्लोक, ’सङ्गरहितम्’ / ’saṅgarahitam’

आज का श्लोक,
’सङ्गरहितम्’ / ’saṅgarahitam’
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’सङ्गरहितम्’ / ’saṅgarahitam’ - अलिप्त, अनासक्त,

अध्याय 18, श्लोक 23,

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥)
--
(नियतम् सङ्गरहितम् अरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत् तत् सात्त्विकम् उच्यते ॥)
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भावार्थ :
शास्त्रविधि से अपने लिए निर्दिष्ट / निर्धारित किया गया, कर्तापन के अभिमान से रहित, राग अथवा द्वेष के बिना, फल की आकाङ्क्षा न रखते हुए, जो कर्म किया जाता है, उस कर्म को सात्त्विक कहा जाता है ।
--
’सङ्गरहितम्’ / ’saṅgarahitam’ - aloof, detached,

Chapter 18, śloka 23,

niyataṃ saṅgarahitam-
arāgadveṣataḥ kṛtam |
aphalaprepsunā karma
yattatsāttvikamucyate ||)
--
(niyatam saṅgarahitam 
arāgadveṣataḥ kṛtam |
aphalaprepsunā karma
yat tat sāttvikam ucyate ||)
--
Meaning :
An action that is done because has been ordained (by the scriptures or providence), without indulging in attachment to it , without attraction or repulsion, and that which is free from the motive, any is called of the sāttvika kind..
--

Sunday, April 13, 2014

आज का श्लोक, ’सात्त्विकम्’ / ’sāttvikam’,

आज का श्लोक, ’सात्त्विकम्’ /  ’sāttvikam’,
______________________________

’सात्त्विकम्’ /  ’sāttvikam’, - सात्त्विक स्वरूपयुक्त,
 
अध्याय 14, श्लोक 16,

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥
--
(कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकम् निर्मलम् फलम् ।
रजसस्तु फलम् दुःखमज्ञाम् तमसः फलं ॥)
--
भावार्थ :
श्रेष्ठ कर्म का फल तो सात्त्विक और निर्मल कहा जाता है, जबकि राजस कर्म का फल दुःख एवम् तामस कर्म का फल अज्ञान कहा जाता है ॥
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अध्याय 17, श्लोक 17,

श्रद्धया परया तप्तं तपस्त्रिविधं नरैः ।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥
--
(श्रद्धया परया तप्तम् तपस्त्रिविधम् नरैः ।
अफलाकाङ्क्षिभिः युक्तैः सात्त्विकम् परिचक्षते ॥)
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भावार्थ :
श्लोक 16 में वर्णित तीन प्रकार के तप को, जिन्हें मनुष्यों द्वारा तप को फल की आकाङ्क्षा न करते हुए, पूर्ण श्रद्धा सहित किया जाता है, सात्त्विक तप कहा जाता है ।
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अध्याय 17, श्लोक 20,

दातव्यमितियद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥
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(दातव्यम् इति यत् दानम् दीयते अनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तत् दानम् सात्त्विकम् स्मृतम् ॥)
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भावार्थ :
दान देना ही कर्तव्य है ऐसा समझते हुए, जो दान उपयुक्त देश काल एवम् पात्र को देखते हुए तदनुसार प्रत्युपकार की आशा न रखते हुए दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है ।
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अध्याय 18, श्लोक 20,

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्
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(सर्वभूतेषु येन एकम् भावम् अव्ययम् ईक्षते ।
अविभक्तम् विभक्तेषु तत्-ज्ञानम् विद्धि सात्त्विकम् ॥)
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भावार्थ :
जिस ज्ञान (के माध्यम) से मनुष्य  सब भूतों में  अविभक्त अर्थात् समान रूप से विद्यमान एक ही अविनाशी परमात्मभाव को देखता है उस ज्ञान को (तुम) सात्त्विक (ज्ञान) जानो ।
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अध्याय 18, श्लोक 23,

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥)
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(नियतम् सङ्गरहितम् अरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत् तत् सात्त्विकम् उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
शास्त्रविधि से अपने लिए निर्दिष्ट / निर्धारित किया गया, कर्तापन के अभिमान से रहित, राग अथवा द्वेष के बिना, फल की आकाङ्क्षा न रखते हुए, जो कर्म किया जाता है, उस कर्म को सात्त्विक कहा जाता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 37,

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ।
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यत् तत् अग्रे विषम् इव परिणामे अमृतोपमम् ।
तत् सुखम् सात्त्विकम् प्रोक्तम् आत्मबुद्धिप्रसादजम् ॥
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(पिछले श्लोक में वर्णित,) जो यह सुख है,जो अभ्यासकाल में यद्यपि विषवत् (अरुचिप्रद) प्रतीत होता हो, किन्तु परिणाम में वस्तुतः अमृततुल्य होता है, उस परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद
से उत्पन्न होनेवाले सुख को सात्त्विक कहा गया है ।
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’सात्त्विकम्’ /  ’sāttvikam’,  - having harmony, peace, light and intelligence as the prominent aspects.
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Chapter 14, shloka 16,

karmaṇaḥ sukṛtasyāhuḥ
sāttvikaṃ nirmalaṃ phalam |
rajasastu phalaṃ duḥkham-
ajñānaṃ tamasaḥ phalam ||

Meaning :
As is said by the wise : The action performed with a sāttvika attitude of mind results in peace, purity and clarity, The action performed with a rajasa attitude results in misery, while the action performed with a tamasa attitude results in ignorance.
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Chapter 17, shloka 17,

śraddhayā parayā taptaṃ
tapastrividhaṃ naraiḥ |
aphalākāṅkṣibhiryuktaiḥ
sāttvikaṃ paricakṣate ||

Meaning :
The three kinds of austerities (as described in the earlier shloka 16 of this chapter,) practiced by men without expectation of a favour in return, and with full trust are called the austerities of the sāttvika kind.
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Chapter 17, shloka 20,

dātavyamitiyaddānaṃ
dīyate:'nupakāriṇe |
deśe kāle ca pātre ca
taddānaṃ sāttvikaṃ smṛtam ||

Meaning :
Help of the appropriate kind at appopriate time and place, and offered to the right one who needs it, without anticipating or motive of a reward for the same is termed sāttvika dānaṃ.

Chapter 18, shloka 20,

sarvabhūteṣu yenaikaṃ
bhāvamavyayamīkṣate |
avibhaktaṃ vibhakteṣu
tajjñānaṃ viddhi sāttvikam ||

Meaning :
The knowledge (wisdom) that helps one realize that the same imperishable principle is ever present and manifest in all forms as undivided divine whole, know this as of the sāttvika kind.  

Chapter 18, shloka 23,

niyataṃ saṅgarahitam-
arāgadveṣataḥ kṛtam |
aphalaprepsunā karma
yattatsāttvikamucyate ||

Meaning :
An action that is done because has been ordained (by the scriptures or providence), without indulging in attachment to it , without attraction or repulsion, and that which is free from the motive, any is called of the sāttvika kind.

Chapter 18, shloka 37,

yattadagre viṣamiva
pariṇāme:'mṛtopamam |
tatsukhaṃ sāttvikaṃ proktam-
ātmabuddhiprasādajam ||

Meaning :
A happiness that may though appear like poison in the beginning and results as sweet as nectar in the end, and is the joy that which has the wisdom of Self-reazation as its source, is of the sāttvika kind.  
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