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Thursday, May 8, 2025

THE ACTION.

2/49, 3/27, 4/13, 5/14, 5/15, 5/16, 15/15

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अध्याय २

सञ्जय उवाच 

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप। 

योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।  

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

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अध्याय ३

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।२७।।

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अध्याय ४

श्रीभगवानुवाच :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान् अहं अव्ययम्। 

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एव मया तेऽद्य योगो प्रोक्तः पुरातनम्। 

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच :

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्रीभगवानुवाच :

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तानि अहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्यापि कर्तारं मां विद्धि अकर्तारमव्ययम्।।१३।।

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अध्याय ५

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः। 

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः। 

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

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अध्याय १५

सर्वस्य अहं हृदि संनिविष्टो

मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। 

वेदैश्च सर्वैः अहम्  एव वेद्यो

वेदान्तकृत् वेदविदेव च अहम्।।१५।।

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अध्याय १८

यदहङ्कारमाश्रित्य  योत्स्य इति मन्यसे।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।

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उपरोक्त सभी श्लोकों में दृष्टव्य है कि संस्कृत भाषा का प्रयोग इस कुशलता से किया गया है कि किसी भी अन्य भाषा में वह तात्पर्य आँखों से ओझल हो जाता है। सभी श्लोकों में अहं पद का प्रयोग उत्तम पुरुष एकवचन में उसकी भिन्न भिन्न विभक्तियों में है जबकि क्रियापद वहाँ दिखाई नहीं देता। जैसे कि हिन्दी भाषा में :

'मैं हूँ' और 'मैं था' जैसे वाक्यों में सहायक क्रिया :

'हूँ' या 'था' से वर्तमान काल या भूतकाल का बोध होता है, संस्कृत भाषा के इन श्लोकों में इस अर्थ का द्योतक कोई शब्द ही नहीं दिखाई देता है और इसलिए इनका अनुवाद किसी दूसरी भाषा में करते ही संस्कृत श्लोक के मूल अर्थ पर ध्यान तक नहीं जा पाता। 

इस बारे में इस या दूसरे ब्लॉग्स में भी विस्तार से लिख चुका हूँ। संक्षेप में यदि इस ओर ध्यान न दिलाया जाए तो कभी यह किसी को सूझता ही नहीं कि 'अहं' पद का प्रयोग उत्तम पुरुष और अन्य पुरुष एकवचन दोनों प्रकार से ग्राह्य हो सकता है।

उदाहरण के लिए -

तानि अहं  वेद सर्वाणि 

में अहं शब्द "मैं" (अर्थात् आत्म / आत्मा) या "वह" (अर्थात् आत्म / आत्मा) के रूप में :

उत्तम पुरुष एकवचन या अन्य पुरुष एकवचन दोनों ही दृष्टियों से व्याकरण-सम्मत है।

क्योंकि "वेद" शब्द 'विद्'  धातु  के लट् लकार का यही रूप है। तात्पर्य यह कि :

अहं वेद 

का अर्थ "मैं जानता हूँ।"  तथा "आत्मा जानता है।" इन दोनों रूपों में ग्रहण किया जा सकता है। तो,  "हूँ" के साथ साथ या अतिरिक्त "है" शब्द भी पूर्णतः उपयुक्त है।

अध्याय ४ के १३वें तथा अध्याय ५ के तीनों ही श्लोकों का अभिप्राय और निहितार्थ भी यही है कि "कर्म" (तथा कर्ता एवं कर्तृत्व भी) केवल मान्यता या कल्पना हैं, और उनकी कोई पारमार्थिक सत्यता नहीं हो सकती है।

अध्याय ५ के श्लोकों में एक ही आत्मा के लिए क्रमशः "प्रभुः" और "विभु:" के प्रयोग से स्पष्ट है कि "ईश्वर" तथा "जीव" का भेद भी मानसिक कल्पना में ही संभव है, न कि वास्तविक है।

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Sunday, November 13, 2022

निष्ठा, बुद्धि, आस्था और संकल्प

Consciousness and Perception,

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The Text Shrimadbhagvad-gita begins at the battlefield of Kurukshetra where Arjuna was tormented by the great sadness, conflict and agony of fighting against his own family, his  very own kith and kin.

In the Chapter 2, However Lord Shrikrishna explains to him the essence of :

Intelligence (प्रज्ञा),

Awareness (चैतन्य),

Consciousness (चेतना),

Perception (संवेदन),

Conscience (विवेक),

Conviction (निष्ठा),

Intellect (बुद्धि),

Thought (विचार, संकल्प)

Conditioning (आस्था) 

And finally;

The Action (कर्म),

In that order.

This Great Text is only a part of a Chapter from the Great Epic महाभारत  / Mahabharata, from a section भीष्म-पर्व / Bhishma-Parva.

Of this Bhishma-Parva, the chapters 25 to 42  together are titled Shrimadbhagvad-gita.

All these texts like The Veda वेद, The Purana पुराण Mahabharata इतिहास and Mahabharata is said to have been authored by the Great Sage Maharshi Veda-Vyasa  महर्षि वेदव्यास .

The name Maharshi Veda-Vyasa is again may be a title only of one who is perfectly well-versed in the scriptural / the Supreme knowledge, and may not strictly point out to one single individual.

Again, irrespective of the fact, who-so-ever might have written down this text, it is also said that the Sage Veda-Vyasa narrated the same to him. Likewise, the one who-so-ever might have noted down this in script, is said to have the name (The Lord) Ganesha / गणेश.

These titles do suggest that the author who narrated, and the person, -one who scripted, might be a Sage and a Divine Element in that order.

So even if, the text Gita might have been so narrated by the Great Sage Veda-Vyasa to Lord Ganesha, it was there as a theme in the mind of the Sage which He spontaneously and slowly developed in the style and form of a story.

These ancient people of wisdom knew and understood what they conveyed to the other people around them and the scriptures then were recorded in their memory and in the written form also.

This might be understood the Genesis of this text Shrimadbhagvad-gita.

In the Chapter 2 the theme is the Sankhya Principle (साङ्ख्य- सिद्धान्त) of Wisdom (तत्व) that was the only connecting thread of the whole text, -till the Chapter 18 of this concise and essence development Shrimadbhagvad-gita.

Even more so, there is One typical verse / श्लोक, No. 49 of this Chapter 2, that could be referred to be as the essential theme itself.

This is :

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

Where it has been declared that the very conviction (निष्ठा) an aspirant may have, is of the two kinds :

Sankhya (साङ्ख्य) and Karma (कर्म) .

This is how aspirants (seeker of the truth)  differ from one to another.

In the next chapters the same point has been dealt with in details.

Shrimadbhagvad-gita is therefore kind of a Declaration made at this battlefield that is otherwise Kurukshetra indeed, where the  battle was Mahabharata was fought between the Princes of Kuruvansha.

***

 




Saturday, November 12, 2022

कुरुक्षेत्र-घोषणा

Kurukshetra-declaration 

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अध्याय २,

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम अध्याय इस ग्रन्थ की केवल प्रस्तावना मात्र है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनविषादयोगः नामक इस अध्याय में अर्जुन के विषाद को जानकर उस विषाद का निवारण करने के लिए अर्जुन को इस ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में साङ्ख्य-योग अर्थात् बुद्धियोग का उपदेश देते हैं क्योंकि कर्म स्वरूप से जड होने से किसी नित्यफल की प्राप्ति का साधन नहीं हो सकता। कर्म स्वयं अनित्य होने से जिस किसी भी फल की प्राप्ति करने के लिए सहायक होता है, वह फल स्वयं भी अनित्य ही होता है इसलिए जिसे परम समाधान को प्राप्त करने की अभिलाषा है, वह उस निष्ठा का आश्रय ग्रहण करता है, जिससे प्रेरित होकर मनुष्य किसी कर्म से संलग्न होता है। किन्तु मनुष्य की बुद्धि को कौन सी निष्ठा प्रेरित कर उसे कर्म करने के लिए प्रवृत्त करती है, इसे बुद्धि से नहीं जाना जा सकता। कर्म परिस्थितियों, इच्छा, आशा और मनुष्य के सामर्थ्य के अनुसार ही संभव हुआ करता है, और कर्म से जो फल प्राप्त होता है वह भी चूँकि अनित्य होता है, इसलिए कर्म की आवश्यकता सदा बनी ही रहती है।

इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि बुद्धि और कर्म परस्पर अत्यन्त ही भिन्न प्रकार के तत्त्व हैं, और कर्म का स्वरूप क्या है इसे तो बुद्धि से जाना जा सकता है, किन्तु बुद्धि का तत्व क्या है इसे बुद्धियोग से ही जाना जाता है। कर्म नितान्त जड है, जबकि बुद्धि कर्म की अपेक्षा चेतन है। इसलिए कर्म पर बुद्धि से नियंत्रण किया जाता है, तथा बुद्धि पर विवेक अर्थात् बुद्धियोग से। अध्याय ४ में भगवान् श्रीकृष्ण इसे ही स्पष्ट करते हुए कहते हैं :

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।।

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१६।।

पुनः अगले ही श्लोक में बुद्धि से कर्म का क्या संबंध है इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं :

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।

कर्म क्या है, अकर्म क्या है और विकर्म क्या है, इसे तो बुद्धि से यद्यपि जाना जा सकता है, किन्तु बुद्धिमान तो वह है जो कर्म में प्रच्छन्न अकर्म को, तथा अकर्म में प्रच्छन्न कर्म को देख पाता है, जिसे इसके बाद के निम्न श्लोक में स्पष्ट किया गया है :

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।।

स बुद्धिमान मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत।।१८।।

कर्म का दूसरा वर्गीकरण अध्याय १८ में उनके सात्त्विक, राजस और तामस गुणों के आधार पर किया गया है :

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।।

अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।२३।।

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।।

क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।२४।।

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।।

मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।२५।।

जैसा कि पहले कहा गया, कर्म नितान्त जड है, और किसी भी कर्म के संभव होने हेतु पाँच कारणों का उल्लेख साङ्ख्यशास्त्र अर्थात् वेदान्त शास्त्र में भी किया गया है, फिर भी दुर्मति- युक्त  / दुर्बुद्धि युक्त मनुष्य केवल अपने-आपके ही स्वतंत्र कर्ता होने की मान्यता से ग्रस्त रहता है :

पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।।

साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१३।।

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।।

न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।१५।।

तथा सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।।

पश्यत्कृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।१६।।

अपने आपको कर्ता मानने-रूपी यह कर्तृत्व-बुद्धि अर्थात् :

"मैं ही कर्म का एकमात्र कर्ता हूँ",

इस प्रकार की विषम-बुद्धि को कर्ता कहा जाता है। जिस मनुष्य में इस प्रकार की कर्तृत्व-बुद्धि का अभाव होता है, और जिसकी बुद्धि "मैं कर्ता हूँ" इस प्रकार के अहंकार की भावना से लिप्त नहीं होती, यदि वह इन समस्त लोकों को नष्ट भी कर देता है, तो भी, न तो वह किसी को मारता है, न ही इस कर्म से बँधता है :

यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।।

हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।१७।।

कर्ममात्र की प्रेरक-बुद्धि के तीन कारक-तत्व -- 

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।।

करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः।।१८।।

इस प्रकार कर्म के तत्त्व को बुद्धि से जाना जा सकता है, और तदनुसार कर्म का अनुष्ठान करना ही कर्म-योग है। बुद्धियोग में इस प्रश्न पर ध्यान दिया जाता है कि समस्त ही कर्म जिन मुख्य  पाँच कारणों से होते हैं वे कारण कौन कौन से हैं? जैसा उपरोक्त श्लोक १४ में कहा गया, प्रथम तो है अधिष्ठान अर्थात् चेतना या अस्तित्व का सहज स्वाभाविक भान जो किसी पिण्ड में चेतना की अभिव्यक्ति होने पर ही संभव है। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि चेतना की अभिव्यक्ति होने पर ही किसी पिण्ड में अपने एवं अपने से इतर का विभाजन अहं-इदं के रूप में संभव होता है।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। 

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।१६।।

(अध्याय २)

तात्पर्य यह कि सत् और चित् एकमेव सत्य हैं।

सत् अर्थात् जो है, उसे जाननेवाला भी कोई है, अन्यथा जो है, उसके होने का क्या प्रमाण होगा! इसी प्रकार इस जानने अर्थात् बोध का अस्तित्व भी अवश्य है। यदि इसका अस्तित्व न हो तो सत् के अस्तित्वमान होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होगा! 

इसलिए सत् ही चित् अर्थात् सत् का भान या बोध है, और इस भान या बोध का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है। 

यही सत्-चित् ब्रह्म है, क्योंकि इसे जाननेवाला इससे भिन्न कोई दूसरा नहीं हो सकता। एकमेवोऽद्वितीयः।

इस एकमेव और अद्वितीय की अपरोक्षानुभूति ही साङ्ख्यज्ञान या साङ्ख्यनिष्ठा है। जबकि कर्म-योग के अभ्यास / अनुष्ठान में मनुष्य स्वयं को कर्म का कर्ता मान्य कर लेता है और उसे इसका आभास भी नहीं होता है कि यह मान्यता स्वयं ही एक बड़ी भूल है। 

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Thursday, August 15, 2019

अवध्यः, अवनिपालसंघैः, अवरम्, अवशम्

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अवध्यः, 2/30,
अवनिपालसंघैः 11/26,
अवरम् 2/49,
अवशम् 9/8,
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Friday, August 9, 2019

अन्वशोचः, अन्विच्छ, अन्विताः

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अन्वशोचः 2/11,
अन्विच्छ 2/49,
अन्विताः 9/23, 17/1,
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Saturday, August 2, 2014

आज का श्लोक, ’शरणम्’ / ’śaraṇam’

आज का श्लोक, ’शरणम्’ / ’śaraṇam’
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’शरणम्’ / ’śaraṇam’ - आश्रय, सहारा,

अध्याय 2, श्लोक 49,

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा फलहेतवः ॥
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(दूरेण हि अवरं कर्म बुद्धियोगात् धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणम् अन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥)
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भावार्थ :
(निश्चय ही बुद्धिरहित) कर्म  बुद्धियोग-सहित कर्म की अपेक्षा निकृष्ट है । इसलिए तुम बुद्धि का ही आश्रय लेने का यत्न करो । फल की कामना से प्रवृत्त होकर जो (बिना बुद्धियोग का आश्रय लिए) कर्म का हेतु बनते हैं वे दीन / दया के पात्र हैं ।  
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अध्याय 9, श्लोक 18,

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥
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(गतिः भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणम् सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानम् निधानम् बीजम् अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
सभी का परम गंतव्य, पालनहारा, स्वामी, सबमें साक्षी की तरह विद्यमान, सबका वास्तव्य, शरण, और सुहृद्, सबके उद्भव तथा लय का हेतु, सब का आधार, निधान, (जिसे त्यागा न जा सके) और  कारण, अव्यय ।
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अध्याय 18, श्लोक 62,
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तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥
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(तम् एव शरणम् गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्-प्रसादात् पराम् शान्तिम् स्थानम् प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥)
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भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन)! अपने सम्पूर्ण हृदय से उस परमेश्वर की ही शरण में जाओ । उसकी कृपा से तुम्हें शान्ति तथा सनातन परम धाम प्राप्त होगा ।
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अध्याय 18, श्लोक 66,

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
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(सर्वधर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणम् व्रज ।
अहम् त्वा सर्वपापेभ्यः मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥)
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भावार्थ :
सम्पूर्ण धर्मों अर्थात् मन के प्रवृत्तिरूपी भिन्न-भिन्न धर्मों को / मानसिक ऊहापोह को त्यागकर मुझ एक परमात्मा की शरण में आओ । मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत करो ।
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’शरणम्’ / ’śaraṇam’ - refuge, shelter, support,

Chapter , śloka 49,

dūreṇa hyavaraṃ karma
buddhiyogāddhanañjaya |
buddhau śaraṇamanviccha
kṛpaṇā phalahetavaḥ ||
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(dūreṇa hi avaraṃ karma
buddhiyogāt dhanañjaya |
buddhau śaraṇam anviccha
kṛpaṇāḥ phalahetavaḥ ||)
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Meaning :
Action without understanding (buddhirahita) the principle, is no doubt inferior to action with proper understanding (buddhiyoga-sahita) of the principle. Therefore hold onto the understanding (buddhiyoga / yoga of Intelligence). Those who driven by (desiring the) fruit of action become the instrument of the action and are pitiable, for they invite misery only.
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Chapter 9, śloka 18,

gatirbhartā prabhuḥ sākṣī
nivāsaḥ śaraṇaṃ suhṛt |
prabhavaḥ pralayaḥ sthānaṃ
nidhānaṃ bījamavyayam ||
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(gatiḥ bhartā prabhuḥ sākṣī
nivāsaḥ śaraṇam suhṛt |
prabhavaḥ pralayaḥ sthānam
nidhānam bījam avyayam ||)
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Meaning :
(I AM) the destination, the protector and savior, the Lord, the witness, the abode, the shelter, the very heart / the Friend and Beloved, I AM the origin, evolution and the dissolution, The Ultimate, the imperishable seed and the only refuge.
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Chapter 18, śloka 62,

tameva śaraṇaṃ gaccha
sarvabhāvena bhārata |
tatprasādātparāṃ śāntiṃ
sthānaṃ prāpsyasi śāśvatam ||
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(tam eva śaraṇam gaccha
sarvabhāvena bhārata |
tat-prasādāt parām śāntim
sthānam prāpsyasi śāśvatam ||)
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Meaning :
Therefore, with all your heart, seek shelter in Him alone. Through His grace, you shall attain the abode that is bliss supreme and peace eternal.
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Chapter 18, śloka 66,

sarvadharmānparityajya
māmekaṃ śaraṇaṃ vraja |
ahaṃ tvā sarvapāpebhyo
mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ ||
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(sarvadharmān parityajya
mām ekam śaraṇam vraja |
aham tvā sarvapāpebhyaḥ
mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ ||)
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Meaning :
Put aside all the different tendencies of mind (vṛtti-s), come to Me, take shelter in Me. I shall liberate you from all sin, Grieve not.
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