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Thursday, July 29, 2021

समाधि, समाधातुम्,

ब्रह्मकर्मसमाधिना 4/24,

समधिगच्छति 3/4,

समाधातुम् 12/9,

समाधाय 17/11,

समाधौ 2/44, 2/53,

***

पातञ्ल योगसूत्र का प्रारंभ समाधिपाद से होता है। 

पुनः समाधि के प्रकारों में क्रमशः 

वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात् सम्प्रज्ञातः ।। १७ ।।

तथा 

विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ।।१८ ।।

(समाधिपाद) 

इस प्रकार से मुख्यतः समाधि के  दो प्रकार वर्णित किए गए हैं। 

इसका अर्थ यह हुआ कि समाधिस्थ 'मन' इन दो प्रकारों में से किसी एक में समाधान-पूर्वक अवस्थित होता है ।

वितर्क का अर्थ हुआ तर्क-वितर्कयुक्त, विश्लेषणपरक चिन्तन । 

विचार का अर्थ हुआ किसी व्यवधान से रहित सरलता से किया जानेवाला वैचारिक क्रम, जिसमें तर्क-वितर्क को अधिक महत्व नहीं दिया जाता।

आनन्द का अर्थ हुआ भाव या भावना में निमग्न होने से प्राप्त होने वाला सुख। 

अस्मिता का अर्थ हुआ ज्ञातृत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, और स्वामित्व की भावना में निमग्न होने से प्राप्त होनेवाला सुख अर्थात् अहं-संकल्प। 

इस प्रकार इन चारों के संबंध से युक्त अस्मिता रूप समाधान, या वितर्क, विचार और आनन्द के रूप में होने वाला समाधान, यह  सम्प्रज्ञात समाधि है (उपरोक्त सूत्र १७),

इसी प्रकार इससे अन्य समाधि वह है जिसमें मन ज्ञात- से परे चला जाता है (उपरोक्त सूत्र १८),

किन्तु वहाँ भी संस्काररूप में तो 'मन' होता ही है जो इस समाधि से व्युत्थान की दशा में पुनः पूर्ववत् कार्य करने लगता है ।

यद्यपि इस दूसरी समाधि को प्राप्त कर लेने पर इससे भी 'मन' पर एक नया संस्कार होता है जो पूर्व संस्कारों के बीज को दग्ध कर देता है।

इस प्रकार 'चित्त' नामक वस्तु का अस्तित्व क्रमशः संस्कार, 'मन' की वृत्ति तथा समाधानयुक्त दशा के रूप में हुआ करता है। 

यद्यपि असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति हो जाने पर कुछ या सारे बीजरूप संस्कार दग्ध हो जाते हैं किन्तु उस समाधि में निरंतर बने रहने से वे पूरी तरह भस्म हो जाते हैं और यही वास्तविक ज्ञानाग्नि है ।

पातञ्जल योगसूत्र में 'समाधि' और 'संयम' इन दोनों का अभिप्राय भिन्न भिन्न है, क्योंकि विभूतिपाद के 

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।।१।।

तत्रप्रत्ययैकतानता ध्यानम्  ।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।।३।।

तथा, 

त्रयमेकत्र संयमः।।४।।

से यही प्रतीत होता है। 

इसी प्रकार 'तदेवार्थमात्रनिर्भासं' की पुनरावृत्ति समाधिपाद के

स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ।।४३।। 

सूत्र से सुसंगत है। 

पुनः 'अर्थ' का अभिप्राय वही है जो 

इन्द्रियार्थान् 3/6,

इन्द्रियार्थेभ्यः  2/58, 2/68,

तथा 

इन्द्रियार्थेषु 5/9, 6/4, 13/8,

में है, अर्थात् इन्द्रियों के विषय ।

किन्तु 'समाधातुम्' का प्रयोग अध्याय १२ में :

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थितम् ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ।।९।।

दृष्टव्य है। यह भी उल्लेखनीय है कि उपरोक्त श्लोक में 'योग'  शब्द भी देखा जा सकता है। 

पुनः अध्याय ३ के निम्न श्लोक में समधिगच्छति शब्द का प्रयोग भी उपलब्धि के अर्थ में किया गया है 

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।

न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति  ।।४।।

समाधान और समाधि एक ही प्रक्रिया का प्रारंभ और पूर्णता है । यह अध्याय २ के निम्न श्लोकों से भी स्पष्ट होता है --

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।४४।।

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।५३।।

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ।।५४।।

किन्तु गीता में भी उसी प्रकार से 'संयम' को 'समाधि' की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है, जैसा महर्षि पतञ्जलि ने उनके योगसूत्र में दिया है। 

इस बारे में अगले पोस्ट में! 

***








Tuesday, September 3, 2019

इव ... 2.

श्रीमद्भगवद्गीता 
शब्दानुक्रम -Index 
--
इव 15/17, 15/20, 16/11, 16/15, 17/2, 17/11, 17/16, 17/20,
--

Saturday, August 31, 2019

इति ... 5.

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
इति 16/11, 16/15, 17/2, 17/11, 17/16, 17/20, 17/23, 17/24,
--

इज्यते, इज्यया, इतरः, इतः

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
इज्यते 17/11, 17/12,
इज्यया 11/53,
इतरः 3/21,
इतः 7/5, 14/1,   
--       

Saturday, August 10, 2019

अफलप्रेप्सुना, अफलकाङ्क्षिभिः, अबुद्धयः

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
अफलप्रेप्सुना 18/23,  
अफलकाङ्क्षिभिः 17/11, 17/17,
अबुद्धयः 7/24,
--     

Thursday, August 28, 2014

आज का श्लोक, ’विधिदृष्टः’ / ’vidhidṛṣṭaḥ’

आज का श्लोक,
’विधिदृष्टः’ /  ’vidhidṛṣṭaḥ’   
________________________

’विधिदृष्टः’ /  ’vidhidṛṣṭaḥ’   - शास्त्रनिर्दिष्ट, शास्त्र-प्रमाण पर आधारित,

अध्याय 17, श्लोक 11,

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यनेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥
--
अफलाकाङ्क्षिभिः यज्ञः विधिदृष्टः यः इज्यते ।
यष्टव्यम् एव इति मनः समाधाय सः सात्त्विकः ॥
--
भावार्थ :
जो शास्त्रविधि से सम्मत और नियत है, यज्ञ करना ही कर्तव्य है इस प्रकार से मन का समाधान करते हुए, जिसे फल की आकाङ्क्षा न रखते हुए किया जाता है, वह सात्त्विक यज्ञ है ।
--
’विधिदृष्टः’ /  ’vidhidṛṣṭaḥ’  - according to the injunctions given in the scriptures.

Chapter  17, śloka 11, 

aphalākāṅkṣibhiryajño 
vidhidṛṣṭo ya ijyate |
yaṣṭavyaneveti manaḥ 
samādhāya sa sāttvikaḥ ||
--
aphalākāṅkṣibhiḥ yajñaḥ 
vidhidṛṣṭaḥ yaḥ ijyate |
yaṣṭavyam eva iti manaḥ 
samādhāya saḥ sāttvikaḥ ||
--
Meaning :
The sacrifice, that is performed because it is a duty without expecting any favorable result, and is in according to the the injunctions of the scriptures, is  sāttvika in essence. 
--
 


Sunday, July 6, 2014

आज का श्लोक, ’समाधाय’ / ’samādhāya’

आज का श्लोक,
’समाधाय’ / ’samādhāya’
_________________________

’समाधाय’ / ’samādhāya’ -  औचित्य अनुभव होना,

अध्याय 17, श्लोक 11,

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यनेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥
--
अफलाकाङ्क्षिभिः यज्ञः विधिदृष्टः यः इज्यते ।
यष्टव्यम् एव इति मनः समाधाय सः सात्त्विकः ॥
--
भावार्थ :
जो शास्त्रविधि से सम्मत और नियत है, यज्ञ करना ही कर्तव्य है इस प्रकार से मन का समाधान करते हुए, जिसे फल की आकाङ्क्षा न रखते हुए किया जाता है, वह सात्त्विक यज्ञ है ।
--
’समाधाय’ / ’samādhāya’ - pleases and appeals to the mind, gives satisfaction,

Chapter  17, śloka 11,

aphalākāṅkṣibhiryajño
vidhidṛṣṭo ya ijyate |
yaṣṭavyaneveti manaḥ
samādhāya sa sāttvikaḥ ||
--
aphalākāṅkṣibhiḥ yajñaḥ
vidhidṛṣṭaḥ yaḥ ijyate |
yaṣṭavyam eva iti manaḥ
samādhāya saḥ sāttvikaḥ ||
--
Meaning :
The sacrifice, that is performed because it is a duty without expecting any favorable result, and is in according to the the injunctions of the scriptures, is  sāttvika in essence.
--


Wednesday, April 23, 2014

आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (17)

आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’,
__________________________

’सः’ / ’saḥ’   - वह,

अध्याय 17, श्लोक 3,

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः एव सः
__
(सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयः अयम् पुरुषः यः यत्-श्रद्धः सः एव सः
--
भावार्थ :
हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त एवं ’मैं’-भावना रूपी चतुष्टय तथा उनका अधिष्ठान साक्षी-बुद्धि / शुद्ध चेतनता) के अनुरूप हुआ करती है । यह पुरुष श्रद्धामय है, अतएव जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है ।
--
टिप्पणी:
चूँकि श्रद्धा अन्तःकरण से अभिन्न है, इसलिए जैसा अन्तःकरण होता है, मनुष्य भी बिल्कुल वही होता है । इसीलिए मनुष्य में श्रद्धा भी सात्त्विकी, तामसी या राजस या उन तीनों गुणों की उपस्थिति के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार की होती है ।
--

अध्याय 17, श्लोक 11,
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यनेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥
--
अफलाकाङ्क्षिभिः यज्ञः विधिदृष्टः यः इज्यते ।
यष्टव्यम् एव इति मनः समाधाय सः सात्त्विकः ॥
--
भावार्थ :
जो शास्त्रविधि से सम्मत और नियत है, यज्ञ करना ही कर्तव्य है इस प्रकार से मन का समाधान करते हुए, जिसे फल की आकाङ्क्षा न रखते हुए किया जाता है, वह सात्त्विक यज्ञ है ।
--
’सः’ / ’saḥ’ - he, that,

Chapter 17, shloka 3,

sattvānurūpā sarvasya
śraddhā bhavati bhārata |
śraddhāmayo:'yaṃ puruṣo
yo yacchraddhaḥ sa eva saḥ ||
__
(sattvānurūpā sarvasya
śraddhā bhavati bhārata |
śraddhāmayaḥ ayam puruṣaḥ
yaḥ yat-śraddhaḥ saḥ eva saḥ ||
--
Meaning :
According to the sattva, every-one has the own specific construct of mind (thought, intellect, consciousness and ego, these 4 together form the tendencies and modes of mind, and this is the inherent spontaneous instinct śraddhā, of a man) . This man is verily the śraddhā, so one is of the kind, what-ever and of what-so-ever kind is the inborn tendencies of the mind / śraddhā, he has from the birth.
--

Chapter 17, shloka 11,

aphalākāṅkṣibhiryajño
vidhidṛṣṭo ya ijyate |
yaṣṭavyaneveti manaḥ
samādhāya sa sāttvikaḥ ||
--
aphalākāṅkṣibhiḥ yajñaḥ
vidhidṛṣṭaḥ yaḥ ijyate |
yaṣṭavyam eva iti manaḥ
samādhāya saḥ sāttvikaḥ ||
--

Meaning :
The sacrifice, that is performed because it is a duty without expecting any favorable result, and is in according to the the injunctions of the scriptures, is sāttvika in essence.
--

Saturday, April 12, 2014

आज का श्लोक, ’सात्त्विकः’ / 'sAttvikaH',

आज का श्लोक, ’सात्त्विकः’ / 'sAttvikaH',
________________________________

’सात्त्विकः’ / 'sAttvikaH', - सात्त्विक अर्थात् मनःप्रसाद का कारक,
 
अध्याय 17, श्लोक 11,

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यनेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः
--
अफलाकाङ्क्षिभिः यज्ञः विधिदृष्टः यः इज्यते ।
यष्टव्यम् एव इति मनः समाधाय सः सात्त्विकः
--
भावार्थ :
जो शास्त्रविधि से सम्मत और नियत है, यज्ञ करना ही कर्तव्य है इस प्रकार से मन का समाधान करते हुए, फल की आकाङ्क्षा न रखते हुए किया जाता है, वह सात्त्विक यज्ञ है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 9,
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥
--
(कार्यम् इति एव यत्कर्म नियतम् क्रियते अर्जुन ।
सङ्गम् त्यक्त्वा फलं च एव सःत्यागः सात्त्विकः मतः ॥)
--
भावार्थ :
शास्त्रविहित त्याग, अर्थात् ऐसा कर्म जिसे करना कर्तव्य है, जो कर्तव्य के रूप में प्राप्त हुआ है, आसक्ति से रहित होकर तथा फल की अभिलाषा न करते हुए जिसे किया जाना चाहिए, वही त्याग सात्त्विक है ।
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अध्याय 18, श्लोक 26,

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥

(मुक्त-सङ्गः अनहंवादी धृति-उत्साहसमन्वितः ।
सिद्धि-असिद्ध्योः निर्विकारः कर्ता सात्विकः उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
सङ्ग-दोष से रहित, अर्थात् ’मैं कर्ता हूँ’ इस भ्रम से मोहित न होते हुए , ’मैं’ से जुड़े विशेषणों का प्रयोग न करते हुए, निर्दोष समझ (धृति) तथा उत्साह से संपन्न, कर्म के परिणाम की सफलता और असफलता से अप्रभावित रहनेवाला उस कर्म का कर्ता सात्त्विक कहा जाता है ।
--

’सात्त्विकः’ / 'sAttvikaH', -That is of the nature of purity, peace and harmony.

Chapter 17, shloka 11,
aphalAkAnkShibhiryajno
vidhidRShTo ya ijyate |
yaShTavyameveti manaH
samAdhAya sa sAttvikaH ||
--
Meaning :
The sacrifice, that is performed because it is a duty without expecting any favorable result, and is in according to the the injunctions of the scriptures, is sAttvika in essence.
--
Chapter 18, shloka 9,
kAryamityeva yatkarma
niyataM kriyate'rjuna |
sangaM tyaktvA phalaM chaiva
sa tyAgaH sAttviko mataH ||
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Meaming :
The action that is performed for the sake of duty, without no attachment or anticipation of anything in return, it is sAttvika action, arjuna!


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Chapter 18, shloka 26,
muktasango'nahaMvAdI
dhRtyutsAhasamanvitaH |
siddhyasiddhyornirvikAraH
kartA sAttvika uchyate ||
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Meaning :
One who is not mentally involved in the (results of the) actions, but lets them happen with due vigour and right perception of them, indifferent to success or failure, such a man is called 'sAtvika' (noble) man of action.
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