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Tuesday, August 13, 2024

युधिष्ठिर

कौन है युधिष्ठिर ?

अध्याय ४

श्रीभगवानुवाच --

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।।

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एव मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।।

भक्तोऽसि सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच --

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्रीभगवानुवाच --

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

इस युद्ध में अर्जुन मोहित बुद्धि के वश में हो, अनिश्चय से ग्रस्त हो गया अर्थात् वह अस्थिरमति हो गया। जबकि भगवान् श्रीकृष्ण की बुद्धि अर्थात् मति सदा की भाँति एक जैसी स्थिर थी। जिसकी बुद्धि युद्ध के समय स्थिर होती है उसे युधिष्ठिर कहा जाता है-

युधि स्थिरा मतिः यस्य स युधिष्ठिरो उच्यते।।

इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश भगवान् श्रीकृष्ण के  द्वारा किंकर्तव्यविमूढ अस्थिरमति अर्जुन को दिया गया, न कि उसके बड़े भाई युधिष्ठिर को।

युधिष्ठिर को इसीलिए धर्मराज भी कहा जाता है। 

***

Wednesday, January 12, 2022

गीता : शिक्षा का प्रयोजन

गीता : प्रयोजन की शिक्षा

--------------©--------------


भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।।

विवस्वान मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।२।।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।।

भक्तो मेऽसि सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।३।।

(ज्ञान-कर्म-सन्न्यास-योग, अध्याय ४)

इससे पूर्व अध्याय ३ में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म-योग की शिक्षा दी थी । इसी अध्याय के अन्तर्गत भगवान् श्रीकृष्ण ने मनुष्य में विद्यमान उस स्वाभाविक निष्ठा का वर्णन किया, जिसे साङ्ख्य-योग के सन्दर्भ में ज्ञान तथा कर्म-योग के सन्दर्भ में कर्म कहा जाता है।

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ  ।।

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३।।

और इससे भी पहले अध्याय २ में अर्जुन को साङ्ख्य-योग की शिक्षा दी थी।

इस प्रकार से, शिक्षा का प्रयोजन अपने भीतर उस मौलिक निष्ठा की पहचान कर लेना है, जिसके आधार पर अपने मार्ग को जान लिया जाता है।

किन्तु उस प्रयोजन की शिक्षा का प्राप्त हो जाना भी उतना ही महत्वपूर्ण और आवश्यक है। 

इसी ओर संकेत करते हुए अगले अध्याय ५ में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।।४।।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।।

एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।५।।

***






Friday, September 3, 2021

गीता-नवनीत

सर्वोपनिषदो गावः

--

जीवन पथ पर वैसे तो हर मनुष्य को चाहे-अनचाहे चलना ही होता है किन्तु अपने इस कार्य को वह चार तरीकों के आधार पर इस प्रकार से सुनिश्चित कर सकता है कि अंततः उसे जीवन में श्रेयस् की प्राप्ति हो जाए। 

गीता का अध्याय ७ का यह श्लोक इसी ओर संकेत करता है :

श्री भगवान् उवाच :

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।।१७।।

वहीं गीता के अध्याय १२ के इस श्लोक में कहा गया है :

श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागस्त्याच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२।।

इस प्रकार इस श्लोक से श्रेयस् अर्थात् सत्य, ईश्वर, मन की पूर्ण और परम शान्ति की प्राप्ति की अभिलाषा रखनेवाले जिज्ञासुओं के भेद की ओर संकेत किया गया है।

किन्तु इन सभी जिज्ञासुओं के बीच में जो भी भेद दिखलाई देता है वह भी मूलतः पुनः उनकी उसी दो प्रकार की निष्ठा का ही भेद है, जिसे कि अध्याय ३ के इस श्लोक से स्पष्ट किया गया है :

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । 

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनां ।।३।।

इस प्रकार निष्ठा के भेद से ही उपरोक्त चार प्रकार के भिन्न भिन्न तरीकों के प्रयोग में भी अंतर हो सकता है ।

पुनः इसका ही संक्षेप में वर्णन अध्याय ५ के इन श्लोकों में किया गया है :

अर्जुन उवाच :

सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि । 

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ।।१।।

श्री भगवान् उवाच :

सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।

तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ।।२।।

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।३।।

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।।४।।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।

एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।५।।

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। 

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति।।६।।

इस प्रकार भिन्न भिन्न जिज्ञासुओं को एक ही श्रेयस् की प्राप्ति साङ्ख्य या योग की अपनी अपनी निष्ठा के अनुसार होती है। 

भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता के अध्याय २ में साङ्ख्यरूपी योग का महत्व प्रतिपादित किया, अध्याय ३ में कर्मयोग का, एवं अध्याय ४ में यज्ञ और कर्म के महत्व का वर्णन समान रूप से किया। सन्न्यास का अर्थ है वह, जिसे योग अथवा साङ्ख्य की अपनी निष्ठा के अनुसार सन्न्यास की प्राप्ति हो गई। 

अध्याय ५ में इसीलिए कर्मसन्न्यास-योग का वर्णन किया गया, और उसके महत्व को प्रतिपादित किया गया।

किन्तु इसी क्रम को आगे बढ़ाने हुए अध्याय ६ का प्रारंभ निम्न श्लोक से किया गया :

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः । 

स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ।।१।।

इसलिए सन्न्यासी यज्ञरूपी कर्म करे या न करे, अग्नि का स्पर्श करे या नहीं, कर्मफल का आश्रय नहीं ग्रहण करता। किन्तु इस सन्न्यास की उपलब्धि के लिए मनुष्य को जो योगाभ्यास करना होता है उस अभ्यास में उस मुनि की परिपक्वता के अनुसार उसे आरुरुक्षु अथवा योगारूढ कहा जाता है। इस प्रकार यद्यपि मुनि का कर्म या तो श्रेयस् की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है, या कर्म के शमन के लिए, यह उसकी परिपक्वता के अनुसार होता  है। पुनः यहाँ यह भी कहा गया है कि दोनों ही स्थितियों में योग का अवलम्बन लिया जाता है। इसलिए नित्यसन्न्यासी और योगी में समानता और भिन्नता भी देखी जा सकती है । 

इसे ही अगले श्लोकों में कहा गया है :

श्री भगवान् उवाच :

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।

न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ।।२।।

तथा,

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ।।३।।

अध्याय ६ को इसलिए योग अथवा अभ्यासयोग कहा गया। 

इसी क्रम को अध्याय ७ में विस्तारपूर्वक ज्ञानविज्ञानयोग का नाम दिया गया। 

ज्ञानविज्ञानयोग के ही क्रम में अगले अध्याय ८ में ब्रह्मविद्या के माध्यम से ब्रह्म की प्राप्ति के महत्व को तारकब्रह्मयोग नामक अध्याय में स्पष्ट किया गया।

गीता अध्याय २ में यद्यपि साङ्ख्य का तथा अध्याय ३ में कर्म को महत्व देकर उनका वर्णन किया गया, किन्तु इस प्रकरण को अध्याय ४ में इस प्रकार से उद्घाटित किया गया है कि साङ्ख्य की निष्ठा और दुरूहता के कारण उस मार्ग को न ग्रहण करने के इच्छुक और कर्म में रुचि और उसकी निष्ठा रखनेवाले मनुष्य के लिए जो उचित और ग्राह्य है, वह उस राजविद्या राजयोग रूपी कर्मनिष्ठा का अवलम्बन लेकर श्रेयस् की प्राप्ति का अभ्यास कर सके। यह वही योगविद्या है जिसका उपदेश सृष्टि करने के समय परमेश्वर ने विवस्वान (सूर्य) को दिया था, सूर्य से यह उपदेश मनु को प्राप्त हुआ और मनु से इक्ष्वाकु को, इस प्रकार यह भगवान् श्रीराम के वंश में परम्परा से प्राप्त होता रहा। 

अध्याय ४ इस प्रकार से प्रारंभ होता है :

श्री भगवान् उवाच :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।२।।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः । 

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।३।।

इस प्रकार रामायण के अन्तर उत्तररामायण और उत्तररामायण के अन्तर गीता का प्राकट्य हुआ। 

***











Tuesday, June 1, 2021

कालेन

5.

(उत्तरगीता) 

महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा :

हे प्रभु! 

पात्रता की दृष्टि से अर्जुन में और मुझमें क्या समानता और क्या भिन्नता है, कृपया कहें! 

तब भगवान् श्रीकृष्ण बोले :

युधिष्ठिर! जैसा कि तुम्हारा नाम और गुण है, तुम युद्ध के समय भी स्थिरबुद्धि होते हो, जबकि अर्जुन ऐसे समय में कर्तव्य क्या है तथा अकर्तव्य क्या है, इस द्वन्द्व से मोहित-बुद्धि हो गया था। 

इस प्रकार उसकी निष्ठा साङ्ख्य के अनुकूल न होकर कर्म के अनुकूल थी। तुममें ऐसा द्वन्द्व या संशय नहीं उत्पन्न होता है।

उसे उसके अनुकूल शिक्षा देने हेतु मैंने उससे कहा :

(अध्याय ३)

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्ताश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ।। २५

तथा, 

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्। 

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।। २६

इस प्रकार उसकी निष्ठा कर्म में होने से उसमें कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व और ज्ञातृत्व रूपी अज्ञान और तज्जनित दुविधा एवं संशय भी थे ही। 

इसलिए मैंने परिस्थिति के अनुरूप उसे वह शिक्षा दी जिससे कि समय आने पर वह भी तुम्हारी तरह साङ्ख्य की शिक्षा का पात्र हो सके। 

इसीलिए मैंने उसे कर्मयोग अर्थात् राजयोग, राजविद्या की वही शिक्षा प्रदान की जो कि महान काल के प्रभाव से विलुप्तप्राय हो चुकी थी।

इसलिए तुम्हारे लिए मैं पुनः जिस उत्तरगीता का उपदेश करूँगा, उसे सुनकर तुम्हारी यह जिज्ञासा शान्त हो जाएगी कि क्या मैंने अर्जुन को तुमसे भिन्न कोई विशेष शिक्षा दी थी।

(अध्याय ४)

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।। १

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।। २

स एवायं मया तेऽद्य योगं प्रोक्तः पुरातनः।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।। ३

अर्जुन उवाच :

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।। ४

तब मैंने अर्जुन से कहा :

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। 

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप।। ५

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। 

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।। ६

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। 

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। 

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। ८

तथा --

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः। 

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।। ९

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।। ३७

--

हे युधिष्ठिर! 

उपरोक्त श्लोकों से तुम समझ सकते हो कि यहाँ मुझ परमात्मा अर्थात् ईश्वर, जीवात्मा अर्थात् जीव, और आत्मा की अनन्यता को इंगित किया गया है। 

'अहं' पद (शब्द) का प्रयोग उत्तम पुरुष एकवचन तथा अन्य पुरुष एकवचन दोनों अर्थों में ग्राह्य है। 

इसी प्रकार से क्रिया-पद 'वेद' भी उत्तम पुरुष एकवचन तथा अन्य पुरुष एकवचन से सुसंगत है। 

इसलिए जो इसे जान लेता है कि मेरा जन्म तथा कर्म दिव्य है, उसे पुनर्जन्म प्राप्त नहीं होता, और वह मुझे ही प्राप्त हो जाता है।

जिस तरह एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए मनुष्य पैदल या वाहन आदि के मार्ग से जाते हैं, किन्तु पक्षी आकाश के मार्ग से उड़कर शीघ्र ही वहाँ पहुँच जाता है, उसी प्रकार कर्मयोग के मार्ग का अधिकारी पुरुष यद्यपि कुछ समय व्यतीत करते हुए अनेक माध्यमों से मुझे प्राप्त हो सकता है, किन्तु साङ्ख्य-योग का अधिकारी ज्ञानमार्ग का अवलंबन करते हुए, तत्काल ही मुझे प्राप्त हो जाता है।

किन्तु यह भेद भी वैसा ही औपचारिक और आभासी है, जैसे कि स्वप्न के पूर्ण हो जाते ही, जाने पर, स्वप्न में प्रतीत होनेवाला समय मिथ्या प्रतीत होने लगता है।

***





Saturday, August 31, 2019

इति ... 1.

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
इति 1/25, 1/44, 2/9, 2/42, 3/27, 3/28, 4/3, 4/4, 4/14, 4/16,
--

Thursday, August 22, 2019

असंयतात्मना, असंशयम्, असंशयः, असि

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
असंयतात्मना 6/36,
असंशयम् 6/35, 7/1,
असंशयः 18/68,
असि 4/3, 4/36,
--        

Tuesday, August 13, 2019

अयम् -continued.

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
... 
अयम् 2/24, 2/25, 2/30, 2/58, 3/9, 3/36, 4/3, 4/31, 4/40, 6/21, 6/33,
....
....
--   

Friday, August 2, 2019

अद्भुतम्, अद्य, अद्रोहः,

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
अद्भुतम् 11/20, 18/74, 18/76,
अद्य 4/3, 11/7, 16/13,
अद्रोहः 16/3,
--        

Wednesday, October 15, 2014

आज का श्लोक, ’योगः’ / ’yogaḥ’

आज का श्लोक, ’योगः’ / ’yogaḥ’
__________________________

’योगः’ / ’yogaḥ’ - योग की विधि,

अध्याय 2, श्लोक 48,

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
--
(योगस्थः  कुरु  कर्माणि  सङ्गम्  त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धि-असिद्ध्योः समः भूत्वा समत्वम् योगः उच्यते ॥)
भावार्थ :
(देह, मन, बुद्धि या प्रकृति से) किए जानेवाले कर्मों से अपना तादात्म्य न करते हुए, अर्थात् उनकी संगति को त्यागते हुए, बुद्धियोग में स्थित रहकर, सिद्धि और असिद्धि, सफलता और विफलता को समान समझते हुए कर्म करो, इस प्रकार की समत्व-बुद्धि ही योग है ।
--
अध्याय 2, श्लोक 50,

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
--
(बुद्धियुक्तः जहाति इह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्मात्-योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ।)
--
भावार्थ :
समबुद्धि रखनेवाला मनुष्य शुभ तथा अशुभ, दोनों ही प्रकार के कर्मों को इसी लोक में (जीवित रहते हुए ही) भली प्रकार से त्याग देता है (-कर्मसंन्यास), इसलिए (समत्वबुद्धि के माध्यम से योगरत हो जाओ, क्योंकि योग का तात्पर्य है कर्म करने के कौशल में कुशल हो जाना ।
--
अध्याय 4, श्लोक 2,

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥
--
(एवम् परम्पराप्राप्तम् इमम् राजर्षयो विदुः ।
सः कालेन इह महता योगः नष्टः परंतपः ॥)
--
भावार्थ :
इस प्रकार से परम्परा से (देखिए, श्लोक1) प्राप्त होते चले आये इस (योग) को राजर्षियों ने जाना / राजर्षि जानते हैं । वह यह योग बहुत काल के बीत जाने पर इस धरती से लुप्तप्राय हो गया ।
--
अध्याय 4, श्लोक 3,
--
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥
--
(सः एव अयम् मया ते अद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तः असि मे सखा च इति रहस्यम् हि एतत् उत्तमम् ॥)
--
भावार्थ :
वही पुरातन योग मेरे द्वारा आज तुम्हारे लिए कहा गया, क्योंकि तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो और यह (योग) अत्यन्त श्रेष्ठ एक रहस्य है, इसलिए ।
--
अध्याय 6, श्लोक 16,

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥
--
(न अति अश्नतः योगः अस्ति न च एकान्तम् अनश्नतः ।
न च अति स्वप्नशीलस्य जाग्रतः न एव च अर्जुन ॥)
--
भावार्थ :
यह योगसाधन हे अर्जुन ! न तो बहुत खानेवाले के लिए और न बिल्कुल ही न खाने वाले के लिए, न तो बहुत सोनेवाले के लिए, और न बहुत जागते रहने वाले के लिए सरल है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 17,

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
--
(युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगः भवति दुःखहा ॥)
--
भावार्थ :
जिसका आहार-विहार मर्यादित है, जिसकी विभिन्न कर्मों में की जानेवाली चेष्टाएँ भी इसी भाँति मर्यादित हैं, जिसकी निद्रा तथा जागृति भी मर्यादा में है, उसके लिए योग दुःखों का नाश करनेवाला हो जाता है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 23,

तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णमानसः ।
--
(तम् विद्यात् दुःखसंयोग-वियोगम् योगसञ्ज्ञितम् ।
सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णमानसः ॥)
--
भावार्थ :
जो दुःख के संयोग से विरहित है -अर्थात् जिसमें दुःख का नितान्त अभाव है, जिसे योग की संज्ञा दी जाती है -अर्थात् जो ऐसा योग है, उसे इस प्रकार से निश्चयपूर्वक जानकर, उस योग को धैर्यसहित, बिना उकताए, अथक् प्रयास सहित, उत्साहपूर्ण चित्त से सिद्ध किया जाना चाहिए ।
--
अध्याय 6, श्लोक 33

अर्जुन उवाच :

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥
--
(यः अयम् योगः त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्य अहम् न पश्यामि चञ्चलत्वात् स्थितिम् स्थिराम् ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने कहा; ’हे मधुसूदन (कृष्ण)! आपके द्वारा (श्लोक 29 से 32 तक) समतायुक्त योग के विषय में यह जो कहा गया, अपने मन के चञ्चल होने से मैं उसका नित्य आचरण करने में अपने आप को असमर्थ पाता हूँ ।
--

अध्याय 6, श्लोक 36,

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥
--
(असंयतात्मना योगः दुष्प्रापः इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्यः अवाप्तुम् उपायतः ॥)
--
भावार्थ :
जिसके मन, इन्द्रियाँ, बुद्धि आदि वश में नहीं हैं, उसके लिए योग की प्राप्ति करना अत्यन्त कठिन है, ऐसा मेरा मत है । किन्तु जिसके मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ वश में हैं उसके द्वारा यत्न किए जाने पर उचित उपाय द्वारा उसे योग की प्राप्ति अवश्य संभव है ।  
--

Chapter 2, śloka 48,

yogasthaḥ kuru karmāṇi
saṅgaṃ tyaktvā dhanañjaya |
siddhyasiddhyoḥ samo bhūtvā
samatvaṃ yoga ucyate ||
--
(yogasthaḥ  kuru  karmāṇi
saṅgam  tyaktvā dhanañjaya |
siddhi-asiddhyoḥ samaḥ bhūtvā
samatvam yogaḥ ucyate ||)
--
Meaning :
Staying in the right understanding (wisdom), without mentally associating yourself  with  the notions 'I do' / 'I don't do', let the actions take place. Welcome the success or failure in your attempts with the same spirit of equanimity. (This) equanimity is called 'yoga' / 'samatva-yoga'.
--
’योगः’ / ’yogaḥ’ - the practice of yoga,

Chapter 2, śloka 50,

buddhiyukto jahātīha
ubhe sukṛtaduṣkṛte |
tasmādyogāya yujyasva
yogaḥ karmasu kauśalam ||
--
(buddhiyuktaḥ jahāti iha
ubhe sukṛtaduṣkṛte |
tasmāt-yogāya yujyasva
yogaḥ karmasu kauśalam |)
--
Meaning :

One, who has attained Wisdom, is Wise, renounces the noble and ignoble both kinds of actions (by understanding the fact and refusing to accept the notion ; 'I do' / 'I don't do', - he is aware that actions / incidences, happen on their own.)
--
Chapter 4, śloka 2,

evaṃ paramparāprāpta-
mimaṃ rājarṣayo viduḥ |
sa kāleneha mahatā
yogo naṣṭaḥ paraṃtapa ||
--
(evam paramparāprāptam
imam rājarṣayo viduḥ |
saḥ kālena iha mahatā
yogaḥ naṣṭaḥ paraṃtapaḥ ||)
--
Meaning :
This yoga that was transferred in succession and was / is acquired traditionally (as described in śloka1) was / is known by the king-sages (rājarṣi), And in the long passage of time, the same has become almost lost to us.
--
Chapter 4, śloka 3,

sa evāyaṃ mayā te:'dya
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhakto:'si me sakhā ceti
rahasyaṃ hyetaduttamam ||
--
(saḥ eva ayam mayā te adya
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhaktaḥ asi me sakhā ca iti
rahasyam hi etat uttamam ||)
--
Meaning :
The very same (Yoga) is imparted by Me unto you today, (as) you are My devotee, and also a beloved friend, and this mystery is the most holy, sacred and a deep secret.
--
Chapter 6, śloka 16,

nātyaśnatastu yogo:'sti
na caikāntamanaśnataḥ |
na cāti svapnaśīlasya
jāgrato naiva cārjuna ||
--
(na ati aśnataḥ yogaḥ asti
na ca ekāntam anaśnataḥ |
na ca ati svapnaśīlasya
jāgrataḥ na eva ca arjuna ||)
--
Meaning :
This practice of yoga is not (easy) for one who takes food in big quantities, neither for one, who keeps on fasting strictly. This practice of yoga is not (easy) for one who sleeps too much, nor for one who keeps awake always.
--
Note :
In summary, yoga is (easy) for one, who is moderate in food and sleep.
--
Chapter 6, śloka 17,

yuktāhāravihārasya
yuktaceṣṭasya karmasu |
yuktasvapnāvabodhasya
yogo bhavati duḥkhahā ||
--
(yuktāhāravihārasya
yuktaceṣṭasya karmasu |
yuktasvapnāvabodhasya
yogaḥ bhavati duḥkhahā ||)
--
Meaning :
One taking diet in moderate quantities, who makes efforts in various actions according to the need of the moment and his within abilities, who has regular sleep and waking hours, yoga removes all his sufferings
--
Chapter 6, śloka 23,

taṃ vidyādduḥkhasaṃyoga-
viyogaṃ yogasañjñitam |
sa niścayena yoktavyo
yogo:'nirviṇṇamānasaḥ |
--
(tam vidyāt duḥkha-saṃyoga-
viyogam yogasañjñitam |
saḥ niścayena yoktavyaḥ
yogaḥ anirviṇṇamānasaḥ ||)
--
Meaning :
Know what is named 'yoga', is that which results in the end of association of sorrow. This should be carefully understood with conviction that such a state is achieved by firm resolve, untiring and zealous spirit.
--
Chapter 6, śloka 33

arjuna uvāca :

yo:'yaṃ yogastvayā proktaḥ
sāmyena madhusūdana |
etasyāhaṃ na paśyāmi
cañcalatvātsthitiṃ sthirām ||
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(yaḥ ayam yogaḥ tvayā proktaḥ
sāmyena madhusūdana |
etasya aham na paśyāmi
cañcalatvāt sthitim sthirām ||)
--
Meaning :
arjuna said :
"O madhusūdana (kṛṣṇa)!" I am unable to see how with this fickle nature of mind, I could practice with steady and firm efforts, this yoga, which has been described by You for me!"
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Chapter 6, śloka 36,

asaṃyatātmanā yogo 
duṣprāpa iti me matiḥ |
vaśyātmanā tu yatatā śakyo:
'vāptumupāyataḥ ||
--
(asaṃyatātmanā yogaḥ 
duṣprāpaḥ iti me matiḥ |
vaśyātmanā tu yatatā śakyaḥ
avāptum upāyataḥ ||)
--
Meaning :
I say: attaining yoga is very difficult for one who has no control over his body, mind and senses. And it is also true that Yoga is attainable for one who, keeping his body mind and senses under control makes right efforts for this goal.
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Sunday, September 14, 2014

आज का श्लोक, ’रहस्यम्’ / ’rahasyam’

आज का श्लोक, ’रहस्यम्’ / ’rahasyam’
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’रहस्यम्’ / ’rahasyam’ - रहस्य, मर्म,

अध्याय 4, श्लोक 3,
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स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥
--
(सः एव अयम् मया ते अद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तः असि मे सखा च इति रहस्यम् हि एतत् उत्तमम् ॥)
--
भावार्थ :
वही पुरातन योग मेरे द्वारा आज तुम्हारे लिए कहा गया, क्योंकि तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो और यह (योग) अत्यन्त श्रेष्ठ एक रहस्य है, इसलिए ।
--

’रहस्यम्’ / ’rahasyam’ - secret, mystery,
 
Chapter 4, śloka 3,

sa evāyaṃ mayā te:'dya 
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhakto:'si me sakhā ceti 
rahasyaṃ hyetaduttamam ||
--
(saḥ eva ayam mayā te adya 
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhaktaḥ asi me sakhā ca iti 
rahasyam hi etat uttamam ||)
--
Meaning :
The very same (Yoga) is imparted by Me unto you today, (as) you are My devotee, and also a beloved friend, and this mystery is the most holy, sacred and a deep secret.
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Sunday, July 20, 2014

आज का श्लोक, ’सखा’ / ’sakhā’

आज का श्लोक, ’सखा’ / ’sakhā’
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’सखा’ / ’sakhā’ - मित्र,

अध्याय 4, श्लोक 3,
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स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥
--
(सः एव अयम् मया ते अद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तः असि मे सखा च इति रहस्यम् हि एतत् उत्तमम् ॥)
--
भावार्थ :
वही पुरातन योग मेरे द्वारा आज तुम्हारे लिए कहा गया, क्योंकि तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो और यह (योग) अत्यन्त श्रेष्ठ एक रहस्य है, इसलिए ।
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अध्याय 11 , श्लोक 41,
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सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं
हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।
अजानता महिमानं तवेदं
मया प्रमादात्प्रणयेन  वापि ॥
--
(सखा इति मत्वा प्रसभं यत्-उक्तम्
हे कृष्ण हे यादव हे सखे इति ।
अजानता महिमानम् तव इदम्
मया प्रमादात् प्रणयेन वा अपि ।)
--
भावार्थ :
हे कृष्ण, हे यादव, हे सखे! आपकी इस महिमा से अनभिज्ञ होने के कारण, मेरे द्वारा असावधानतावश, हठपूर्वक या प्रीति के आवेश में भी जो भी कहा गया हो, ...
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अध्याय 11, श्लोक 44,
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तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं
प्रसादये त्वाहमीशमीड्यम् ।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः
प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥
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(तस्मात् प्रणम्य प्रणिधाय कायम् प्रसादये त्वाम् अहम् ईशम् ईड्यम् ।
पिता-इव पुत्रस्य सखा-इव सख्युः प्रियः प्रियायाः अर्हसि देव सोढुम् ॥)
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भावार्थ :
अतः आपके समक्ष (चरणों में ) काया और सिर झुकाकर निवेदन करते हुए, ताकि हे पूज्य परमेश्वर आप मुझ पर कृपा करते हुए प्रसन्न हों, और जैसे पिता पुत्र के, सखा सखा के और स्वामी प्रिया के अपराध सहन कर लेता है (और उन्हें क्षमा कर देता है) आप भी मेरे किए अपराध को क्षमा कर दें ।
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Chapter 4, śloka 3,
sa evāyaṃ mayā te:'dya 
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhakto:'si me sakhā ceti 
rahasyaṃ hyetaduttamam ||
--
(saḥ eva ayam mayā te adya 
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhaktaḥ asi me sakhā ca iti 
rahasyam hi etat uttamam ||)
--
Meaning :
The very same (Yoga) is imparted by Me unto you today, (as) you are My devotee, and also a beloved friend, and this mystery is the most holy, sacred and a deep secret.
-- 
Chapter 11, śloka 41,

sakheti matvā prasabhaṃ yaduktaṃ 
he kṛṣṇa he yādava he sakheti |
ajānatā mahimānaṃ tavedaṃ 
mayā pramādātpraṇayena  vāpi ||
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(sakhā iti matvā prasabhaṃ yat-uktam 
he kṛṣṇa he yādava he sakhe iti |
ajānatā mahimānam tava idam 
mayā pramādāt praṇayena vā api |)
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Meaning :
O kṛṣṇa! O yādava! O Friend!
Not knowing Your this Glory, Either through negligence, insistence or in the spirit of friendship, whatever I might have said unto you , ( I apologize for them) 
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Chapter 11, śloka 44,

tasmātpraṇamya praṇidhāya kāyaṃ
prasādaye tvāhamīśamīḍyam |
piteva putrasya sakheva sakhyuḥ
priyaḥ priyāyārhasi deva soḍhum ||
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(tasmāt praṇamya praṇidhāya kāyam 
prasādaye tvām aham īśam īḍyam |
pitā-iva putrasya sakhā-iva sakhyuḥ 
priyaḥ priyāyāḥ arhasi deva soḍhum ||)
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Meaning :
Therefore prostrating before you I ask forgiveness of You, O Lord! Just as a father to his son, a friend to his friend and a lover forgives his dear, please O Lord, Have mercy on me, and forgive me.
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Wednesday, April 30, 2014

आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (4)

आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (4)
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अध्याय 4, श्लोक 2,
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥
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(एवम् परम्पराप्राप्तम् इमम् राजर्षयः विदुः ।
सः कालेन इह महता योगः नष्टः परन्तप ॥)
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भावार्थ :
इस प्रकार परम्परा से प्राप्त होते आ रहे (जिस) इस योग को राजर्षियों ने जाना,  हे परंतप अर्जुन! वह बहुत काल से इस पृथिवी से लुप्तप्राय सा हो गया ।
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अध्याय 4, श्लोक 3,
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एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥
--
(सः एव अयम् मया ते अद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तः असि मे सखा च इति रहस्यम् हि एतत् उत्तमम् ॥)
--
भावार्थ :
वही पुरातन योग मेरे द्वारा आज तुम्हारे लिए कहा गया, क्योंकि तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो और यह (योग) अत्यन्त श्रेष्ठ एक रहस्य है, इसलिए ।
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अध्याय 4, श्लोक 9,
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
--
(जन्म कर्म च मे दिव्यम् एवम् यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म न एति माम् एति सः अर्जुन ॥)
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भावार्थ :
जो तत्त्वतः यह जानता है कि मेरा जन्म तथा कर्म दिव्य (अर्थात् चकित कर देनेवाला, निर्मल और अलौकिक) है, वह देह को त्यागने के पश्चात् पुनः जन्म नहीं लेता, क्योंकि वह तो मुझमें ही समाविष्ट हो जाता है ।
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अध्याय 4, श्लोक 14,
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे करफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
-
(न माम् कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति यो माम् अभिजानाति कर्मभिः न सः बध्यते ॥)
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भावार्थ :
न तो कर्म मुझसे लिप्त होते हैं और न कर्मफलों से मुझे कोई आशा है, इस प्रकार से जो मुझे (अपने-आपको) सम्यक् रूपेण जान-समझ लेता है, वह कर्मों के द्वारा नहीं बाँधा जाता ।
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अध्याय 4, श्लोक 18,
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कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषुयुक्त कृत्स्नकर्मकृत् ॥
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(कर्मणि अकर्म यः पश्येत् अकर्मणि च कर्म यः ।
सः बुद्धिमान् मनुष्येषु सः युक्तः कृत्स्न-कर्मकृत् ॥)
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भावार्थ :
जो मनुष्य कर्म ( के होने / करने ) में अकर्म अर्थात् कर्म के न होने को देख लेता है, तथा अकर्म (कर्म के न होने / न करने) में भी कर्म का होना देख लेता है, मनुष्यों में  बुद्धिमान वह मनुष्य, वह योगयुक्त समस्त कर्मों का सम्यक् करनेवाला कर्मयोगी, (कृत-कृत्य) होता है ।
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अध्याय 4, श्लोक 20,

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः
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(त्यक्त्वा फल-आसङ्गम् नित्यतृप्तः निराश्रयः ।
कर्मणि अभिप्रवृत्तः अपि न एव किञ्चित् करोति सः ॥)
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भावार्थ:
फल की आसक्ति से अछूता, नित्यवस्तु (निज आत्मा) में ही परम तृप्त यदि (प्रारब्धवश) कर्म में प्रवृत्त दिखलाई भी देता है, तो भी वह वस्तुतः कुछ नहीं करता ।
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’सः’ / ’saḥ’ - He,
 -
Chapter 4, shloka 2,
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evaṃ paramparāprāpta-
mimaṃ rājarṣayo viduḥ |
sa kāleneha mahatā
yogo naṣṭaḥ paraṃtapa ||
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(evam paramparāprāptam
imam rājarṣayaḥ viduḥ |
saḥ kālena iha mahatā
yogaḥ naṣṭaḥ parantapa ||)
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Meaning :
As said in the earlier shloka, Lord Supreme first taught This 'yoga' to Lord Sun, Lord Sun to the manu,  (-The Foremost Ancestor of the mankind) and this was the unbroken tradition of this Supreme knowledge of Yoga that was kept alive by The Lord > saṃbhavāmi yuge yuge > described in shloka 7 of this chapter. The same was imparted to Great Sages of the Royal Clans. But was almost lost to the (sight of) man with the passage of long times, O paraṃtapa (tormentor of the enemies, arjuna)!
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Chapter 4, shloka 3,

sa evāyaṃ mayā te:'dya
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhakto:'si me sakhā ceti
rahasyaṃ hyetaduttamam ||
--
(saḥ eva ayam mayā te
adya yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhaktaḥ asi me sakhā ca iti
rahasyam hi etat uttamam ||)
--
Meaning :
The very same (Yoga) is imparted by Me unto you today, (as) you are My devotee, and also a beloved friend, and this mystery is the most holy, sacred and a deep secret.
--
Chapter 4, shloka 9,

janma karma ca me divya-
mevaṃ yo vetti tattvataḥ |
tyaktvā dehaṃ punarjanma
naiti māmeti so:'rjuna ||
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(janma karma ca me divyam
evam yo vetti tattvataḥ |
tyaktvā dehaṃ punarjanma
na eti mām eti saḥ arjuna ||)
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'The way I manifest, and the role I act and play is divine'. - One who knows this in essence, O arjuna, after casting away this material-body made of 5 elements, never enters another, but attains Me only.

Chapter 4, shloka 14,

na māṃ karmāṇi limpanti
na me karaphale spṛhā |
iti māṃ yo:'bhijānāti
karmabhirna sa badhyate ||
-
(na mām karmāṇi limpanti
na me karmaphale spṛhā |
iti yo mām abhijānāti
karmabhiḥ na saḥ badhyate ||)
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Meaning :
The actions neither cling me, nor the urge possesses me. One who understands this about me (oneself) well, is never bound by the actions.
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Chapter 4, shloka 18,

karmaṇyakarma yaḥ paśye-
dakarmaṇi ca karma yaḥ |
sa buddhimānmanuṣyeṣu
sa yukta kṛtsnakarmakṛt ||
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(karmaṇi akarma yaḥ paśyet
akarmaṇi ca karma yaḥ |
saḥ buddhimān manuṣyeṣu
saḥ yuktaḥ kṛtsna-karmakṛt ||)
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Meaning :
The One, who sees the Action (hidden) in in-action, and in the same way, the in-action also, (hidden) in Action,  such a wise among the men, has really realized the freedom from all action. He is the one, adept* in Action.
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(*yogaḥ karmasu kauśalam |  gītā 2/50)
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Chapter 4, shloka 20,

tyaktvā karmaphalāsaṅgaṃ
nityatṛpto nirāśrayaḥ |
karmaṇyabhipravṛtto:'pi
naiva kiñcitkaroti saḥ ||

(tyaktvā phala-āsaṅgam
nityatṛptaḥ nirāśrayaḥ |
karmaṇi abhipravṛttaḥ api
na eva kiñcit karoti saḥ ||)
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Meaning :
Unconcerned to the fruits of action, (karma), one who is content ever in the Self, is no longer dependent on others. Though engaged in action  because of the inclination of mind, (or because of destiny of one-self, and the others as well) is nowhere in the action.
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