आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (4)
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अध्याय 4, श्लोक 2,
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥
--
(एवम् परम्पराप्राप्तम् इमम् राजर्षयः विदुः ।
सः कालेन इह महता योगः नष्टः परन्तप ॥)
--
भावार्थ :
इस प्रकार परम्परा से प्राप्त होते आ रहे (जिस) इस योग को राजर्षियों ने जाना, हे परंतप अर्जुन! वह बहुत काल से इस पृथिवी से लुप्तप्राय सा हो गया ।
--
अध्याय 4, श्लोक 3,
--
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥
--
(सः एव अयम् मया ते अद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तः असि मे सखा च इति रहस्यम् हि एतत् उत्तमम् ॥)
--
भावार्थ :
वही पुरातन योग मेरे द्वारा आज तुम्हारे लिए कहा गया, क्योंकि तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो और यह (योग) अत्यन्त श्रेष्ठ एक रहस्य है, इसलिए ।
--
अध्याय 4, श्लोक 9,
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
--
(जन्म कर्म च मे दिव्यम् एवम् यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म न एति माम् एति सः अर्जुन ॥)
--
भावार्थ :
जो तत्त्वतः यह जानता है कि मेरा जन्म तथा कर्म दिव्य (अर्थात् चकित कर देनेवाला, निर्मल और अलौकिक) है, वह देह को त्यागने के पश्चात् पुनः जन्म नहीं लेता, क्योंकि वह तो मुझमें ही समाविष्ट हो जाता है ।
--
अध्याय 4, श्लोक 14,
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे करफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
-
(न माम् कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति यो माम् अभिजानाति कर्मभिः न सः बध्यते ॥)
--
भावार्थ :
न तो कर्म मुझसे लिप्त होते हैं और न कर्मफलों से मुझे कोई आशा है, इस प्रकार से जो मुझे (अपने-आपको) सम्यक् रूपेण जान-समझ लेता है, वह कर्मों के द्वारा नहीं बाँधा जाता ।
--
अध्याय 4, श्लोक 18,
--
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त कृत्स्नकर्मकृत् ॥
--
(कर्मणि अकर्म यः पश्येत् अकर्मणि च कर्म यः ।
सः बुद्धिमान् मनुष्येषु सः युक्तः कृत्स्न-कर्मकृत् ॥)
--
भावार्थ :
जो मनुष्य कर्म ( के होने / करने ) में अकर्म अर्थात् कर्म के न होने को देख लेता है, तथा अकर्म (कर्म के न होने / न करने) में भी कर्म का होना देख लेता है, मनुष्यों में बुद्धिमान वह मनुष्य, वह योगयुक्त समस्त कर्मों का सम्यक् करनेवाला कर्मयोगी, (कृत-कृत्य) होता है ।
--
अध्याय 4, श्लोक 20,
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥
--
(त्यक्त्वा फल-आसङ्गम् नित्यतृप्तः निराश्रयः ।
कर्मणि अभिप्रवृत्तः अपि न एव किञ्चित् करोति सः ॥)
--
भावार्थ:
फल की आसक्ति से अछूता, नित्यवस्तु (निज आत्मा) में ही परम तृप्त यदि (प्रारब्धवश) कर्म में प्रवृत्त दिखलाई भी देता है, तो भी वह वस्तुतः कुछ नहीं करता ।
--
’सः’ / ’saḥ’ - He,
-
Chapter 4, shloka 2,
--
evaṃ paramparāprāpta-
mimaṃ rājarṣayo viduḥ |
sa kāleneha mahatā
yogo naṣṭaḥ paraṃtapa ||
--
(evam paramparāprāptam
imam rājarṣayaḥ viduḥ |
saḥ kālena iha mahatā
yogaḥ naṣṭaḥ parantapa ||)
--
Meaning :
As said in the earlier shloka, Lord Supreme first taught This 'yoga' to Lord Sun, Lord Sun to the manu, (-The Foremost Ancestor of the mankind) and this was the unbroken tradition of this Supreme knowledge of Yoga that was kept alive by The Lord > saṃbhavāmi yuge yuge > described in shloka 7 of this chapter. The same was imparted to Great Sages of the Royal Clans. But was almost lost to the (sight of) man with the passage of long times, O paraṃtapa (tormentor of the enemies, arjuna)!
--
Chapter 4, shloka 3,
sa evāyaṃ mayā te:'dya
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhakto:'si me sakhā ceti
rahasyaṃ hyetaduttamam ||
--
(saḥ eva ayam mayā te
adya yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhaktaḥ asi me sakhā ca iti
rahasyam hi etat uttamam ||)
--
Meaning :
The very same (Yoga) is imparted by Me unto you today, (as) you are My devotee, and also a beloved friend, and this mystery is the most holy, sacred and a deep secret.
--
Chapter 4, shloka 9,
janma karma ca me divya-
mevaṃ yo vetti tattvataḥ |
tyaktvā dehaṃ punarjanma
naiti māmeti so:'rjuna ||
--
(janma karma ca me divyam
evam yo vetti tattvataḥ |
tyaktvā dehaṃ punarjanma
na eti mām eti saḥ arjuna ||)
--
'The way I manifest, and the role I act and play is divine'. - One who knows this in essence, O arjuna, after casting away this material-body made of 5 elements, never enters another, but attains Me only.
Chapter 4, shloka 14,
na māṃ karmāṇi limpanti
na me karaphale spṛhā |
iti māṃ yo:'bhijānāti
karmabhirna sa badhyate ||
-
(na mām karmāṇi limpanti
na me karmaphale spṛhā |
iti yo mām abhijānāti
karmabhiḥ na saḥ badhyate ||)
--
Meaning :
The actions neither cling me, nor the urge possesses me. One who understands this about me (oneself) well, is never bound by the actions.
--
Chapter 4, shloka 18,
karmaṇyakarma yaḥ paśye-
dakarmaṇi ca karma yaḥ |
sa buddhimānmanuṣyeṣu
sa yukta kṛtsnakarmakṛt ||
--
(karmaṇi akarma yaḥ paśyet
akarmaṇi ca karma yaḥ |
saḥ buddhimān manuṣyeṣu
saḥ yuktaḥ kṛtsna-karmakṛt ||)
--
Meaning :
The One, who sees the Action (hidden) in in-action, and in the same way, the in-action also, (hidden) in Action, such a wise among the men, has really realized the freedom from all action. He is the one, adept* in Action.
--
(*yogaḥ karmasu kauśalam | gītā 2/50)
--
Chapter 4, shloka 20,
tyaktvā karmaphalāsaṅgaṃ
nityatṛpto nirāśrayaḥ |
karmaṇyabhipravṛtto:'pi
naiva kiñcitkaroti saḥ ||
(tyaktvā phala-āsaṅgam
nityatṛptaḥ nirāśrayaḥ |
karmaṇi abhipravṛttaḥ api
na eva kiñcit karoti saḥ ||)
--
Meaning :
Unconcerned to the fruits of action, (karma), one who is content ever in the Self, is no longer dependent on others. Though engaged in action because of the inclination of mind, (or because of destiny of one-self, and the others as well) is nowhere in the action.
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अध्याय 4, श्लोक 2,
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥
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(एवम् परम्पराप्राप्तम् इमम् राजर्षयः विदुः ।
सः कालेन इह महता योगः नष्टः परन्तप ॥)
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भावार्थ :
इस प्रकार परम्परा से प्राप्त होते आ रहे (जिस) इस योग को राजर्षियों ने जाना, हे परंतप अर्जुन! वह बहुत काल से इस पृथिवी से लुप्तप्राय सा हो गया ।
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अध्याय 4, श्लोक 3,
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स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥
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(सः एव अयम् मया ते अद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तः असि मे सखा च इति रहस्यम् हि एतत् उत्तमम् ॥)
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भावार्थ :
वही पुरातन योग मेरे द्वारा आज तुम्हारे लिए कहा गया, क्योंकि तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो और यह (योग) अत्यन्त श्रेष्ठ एक रहस्य है, इसलिए ।
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अध्याय 4, श्लोक 9,
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
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(जन्म कर्म च मे दिव्यम् एवम् यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म न एति माम् एति सः अर्जुन ॥)
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भावार्थ :
जो तत्त्वतः यह जानता है कि मेरा जन्म तथा कर्म दिव्य (अर्थात् चकित कर देनेवाला, निर्मल और अलौकिक) है, वह देह को त्यागने के पश्चात् पुनः जन्म नहीं लेता, क्योंकि वह तो मुझमें ही समाविष्ट हो जाता है ।
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अध्याय 4, श्लोक 14,
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे करफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
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(न माम् कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति यो माम् अभिजानाति कर्मभिः न सः बध्यते ॥)
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भावार्थ :
न तो कर्म मुझसे लिप्त होते हैं और न कर्मफलों से मुझे कोई आशा है, इस प्रकार से जो मुझे (अपने-आपको) सम्यक् रूपेण जान-समझ लेता है, वह कर्मों के द्वारा नहीं बाँधा जाता ।
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अध्याय 4, श्लोक 18,
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कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त कृत्स्नकर्मकृत् ॥
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(कर्मणि अकर्म यः पश्येत् अकर्मणि च कर्म यः ।
सः बुद्धिमान् मनुष्येषु सः युक्तः कृत्स्न-कर्मकृत् ॥)
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भावार्थ :
जो मनुष्य कर्म ( के होने / करने ) में अकर्म अर्थात् कर्म के न होने को देख लेता है, तथा अकर्म (कर्म के न होने / न करने) में भी कर्म का होना देख लेता है, मनुष्यों में बुद्धिमान वह मनुष्य, वह योगयुक्त समस्त कर्मों का सम्यक् करनेवाला कर्मयोगी, (कृत-कृत्य) होता है ।
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अध्याय 4, श्लोक 20,
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥
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(त्यक्त्वा फल-आसङ्गम् नित्यतृप्तः निराश्रयः ।
कर्मणि अभिप्रवृत्तः अपि न एव किञ्चित् करोति सः ॥)
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भावार्थ:
फल की आसक्ति से अछूता, नित्यवस्तु (निज आत्मा) में ही परम तृप्त यदि (प्रारब्धवश) कर्म में प्रवृत्त दिखलाई भी देता है, तो भी वह वस्तुतः कुछ नहीं करता ।
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’सः’ / ’saḥ’ - He,
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Chapter 4, shloka 2,
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evaṃ paramparāprāpta-
mimaṃ rājarṣayo viduḥ |
sa kāleneha mahatā
yogo naṣṭaḥ paraṃtapa ||
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(evam paramparāprāptam
imam rājarṣayaḥ viduḥ |
saḥ kālena iha mahatā
yogaḥ naṣṭaḥ parantapa ||)
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Meaning :
As said in the earlier shloka, Lord Supreme first taught This 'yoga' to Lord Sun, Lord Sun to the manu, (-The Foremost Ancestor of the mankind) and this was the unbroken tradition of this Supreme knowledge of Yoga that was kept alive by The Lord > saṃbhavāmi yuge yuge > described in shloka 7 of this chapter. The same was imparted to Great Sages of the Royal Clans. But was almost lost to the (sight of) man with the passage of long times, O paraṃtapa (tormentor of the enemies, arjuna)!
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Chapter 4, shloka 3,
sa evāyaṃ mayā te:'dya
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhakto:'si me sakhā ceti
rahasyaṃ hyetaduttamam ||
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(saḥ eva ayam mayā te
adya yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhaktaḥ asi me sakhā ca iti
rahasyam hi etat uttamam ||)
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Meaning :
The very same (Yoga) is imparted by Me unto you today, (as) you are My devotee, and also a beloved friend, and this mystery is the most holy, sacred and a deep secret.
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Chapter 4, shloka 9,
janma karma ca me divya-
mevaṃ yo vetti tattvataḥ |
tyaktvā dehaṃ punarjanma
naiti māmeti so:'rjuna ||
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(janma karma ca me divyam
evam yo vetti tattvataḥ |
tyaktvā dehaṃ punarjanma
na eti mām eti saḥ arjuna ||)
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'The way I manifest, and the role I act and play is divine'. - One who knows this in essence, O arjuna, after casting away this material-body made of 5 elements, never enters another, but attains Me only.
Chapter 4, shloka 14,
na māṃ karmāṇi limpanti
na me karaphale spṛhā |
iti māṃ yo:'bhijānāti
karmabhirna sa badhyate ||
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(na mām karmāṇi limpanti
na me karmaphale spṛhā |
iti yo mām abhijānāti
karmabhiḥ na saḥ badhyate ||)
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Meaning :
The actions neither cling me, nor the urge possesses me. One who understands this about me (oneself) well, is never bound by the actions.
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Chapter 4, shloka 18,
karmaṇyakarma yaḥ paśye-
dakarmaṇi ca karma yaḥ |
sa buddhimānmanuṣyeṣu
sa yukta kṛtsnakarmakṛt ||
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(karmaṇi akarma yaḥ paśyet
akarmaṇi ca karma yaḥ |
saḥ buddhimān manuṣyeṣu
saḥ yuktaḥ kṛtsna-karmakṛt ||)
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Meaning :
The One, who sees the Action (hidden) in in-action, and in the same way, the in-action also, (hidden) in Action, such a wise among the men, has really realized the freedom from all action. He is the one, adept* in Action.
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(*yogaḥ karmasu kauśalam | gītā 2/50)
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Chapter 4, shloka 20,
tyaktvā karmaphalāsaṅgaṃ
nityatṛpto nirāśrayaḥ |
karmaṇyabhipravṛtto:'pi
naiva kiñcitkaroti saḥ ||
(tyaktvā phala-āsaṅgam
nityatṛptaḥ nirāśrayaḥ |
karmaṇi abhipravṛttaḥ api
na eva kiñcit karoti saḥ ||)
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Meaning :
Unconcerned to the fruits of action, (karma), one who is content ever in the Self, is no longer dependent on others. Though engaged in action because of the inclination of mind, (or because of destiny of one-self, and the others as well) is nowhere in the action.
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