आज का श्लोक, ’सुखम्’ / 'sukhaM' -4.
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’सुखम्’ / 'sukhaM' - सुख, आनन्द,
अध्याय 18, श्लोक 36,
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रुणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥
--
(सुखम् तु इदानीम् त्रिविधम् श्रुणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासात् रमते यत्र दुःखान्तम् च निगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
अब हे भरतर्षभ (अर्जुन)! अब तुम मुझसे यह सुनो कि सुख अर्थात् आनन्द (किस तरह से) तीन प्रकार का होता है । (पहला वह) जहाँ मनुष्य (का मन) अभ्यास करते करते ही रमने लगता है और दुःख के अन्त (निरोध) को प्राप्त हो जाता है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 37,
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकंप्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥
--
(यत् तत् अग्रे विषम्-इव परिणामे अमृतोपमम् ।
तत् सुखम् सात्त्विकम् प्रोक्तम् आत्मबुद्धि-प्रसादजम् ॥)
--
भावार्थ :
(यह जिसका वर्णन पिछले श्लोक में अभी किया गया है,) जो प्रारम्भ में यद्यपि विषतुल्य प्रतीत होता है किन्तु परिणाम में अमृततुल्य है, (इसलिए) उस परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होनेवाले सुख को सात्त्विक सुख कहा गया है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 38,
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥)
--
(विषय-इन्द्रिय-संयोगात्-यत्-तत्-अग्रे-अमृतोपमम् ।
परिणामे विषम्-इव तत् सुखम् राजसम् मतम् ॥)
--
भावार्थ :
जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है और प्रारम्भ में अमृतोपम (प्रतीत) होता है, किन्तु परिणाम में विष-तुल्य सिद्ध होता है, उसको राजस-सुख कहा गया है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 39,
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः ।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥
--
यत्-अग्रे च अनुबन्धे च सुखम्-मोहनम्-आत्मनः ।
निद्रा-आलस्य-प्रमादोत्थम् तत् तामसम् उदाहृतः ॥)
--
भावार्थ:
जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा / मन को मोहित बनाए रखता है, निद्रा आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न उस सुख को तामस कहा गया है ।
--
’सुखम्’ / 'sukhaM' - bliss, happiness, (real or apparently so),
Chapter 18, shloka 36,
sukhaM tvidAnIM trividhaM
shRuNu me bharatarShabha |
abhyAsAdramate yatra
duHkhAntaM cha nigachchhati ||
--
Meaning :
O bharatarShabha (arjuna)! Now hear from Me about the Happiness that is of three kinds.
(The first is: ) Which is achieved and enjoyed through long efforts and practice, where-by the sorrow comes to the final end. And, ...
--
Chapter 18, shloka 37,
yattadagre viShamiva
pariNAme'mRtopamaM |
tatsukhaM sAttvikaM prokta-
mAtmabuddhiprasAdajaM ||
--
...That, which appears hard and unpleasant as if like poison, but proves to be nectar in the result. That happiness is called sAttvika (of essence in real happiness, or owing to the harmony-aspect / 'sat' of prakRti), and results when the wisdom flowers forth with grace.
--
Chapter 18, shloka 38,
viShayendriyasaMyogAd-
yattadagre'mRtopamaM |
pariNAme viShamiva
tatsukhaM rAjasaM smRtaM ||
--
(And the happiness of the second kind is,) That is caused because of the contact between the objects with their specific senses of enjoyments, and though appears like nectar in the begining, proves like a poison in the end. Such happiness is known as 'rAjasaM' (or owing to the passion-aspect of prakRti).
--
Chapter 18, shloka 39,
yadagre chAnubandhe cha
sukhaM mohanamAtmanaH |
nidrAlasyapramAdotthaM
tattAmasamudAhRtaM ||
--
(And the happiness of the third kind is,) That which keeps one under the influence of delusion in the beginning and during the time one goes through it, and till it lasts. Sleep, laziness, and indolence, callousness are its prominant signs. This happiness iscalled 'tAmasaM' (or owing to the inertia-aspect of prakRti).
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’सुखम्’ / 'sukhaM' - सुख, आनन्द,
अध्याय 18, श्लोक 36,
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रुणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥
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(सुखम् तु इदानीम् त्रिविधम् श्रुणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासात् रमते यत्र दुःखान्तम् च निगच्छति ॥)
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भावार्थ :
अब हे भरतर्षभ (अर्जुन)! अब तुम मुझसे यह सुनो कि सुख अर्थात् आनन्द (किस तरह से) तीन प्रकार का होता है । (पहला वह) जहाँ मनुष्य (का मन) अभ्यास करते करते ही रमने लगता है और दुःख के अन्त (निरोध) को प्राप्त हो जाता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 37,
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकंप्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥
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(यत् तत् अग्रे विषम्-इव परिणामे अमृतोपमम् ।
तत् सुखम् सात्त्विकम् प्रोक्तम् आत्मबुद्धि-प्रसादजम् ॥)
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भावार्थ :
(यह जिसका वर्णन पिछले श्लोक में अभी किया गया है,) जो प्रारम्भ में यद्यपि विषतुल्य प्रतीत होता है किन्तु परिणाम में अमृततुल्य है, (इसलिए) उस परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होनेवाले सुख को सात्त्विक सुख कहा गया है ।
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अध्याय 18, श्लोक 38,
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥)
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(विषय-इन्द्रिय-संयोगात्-यत्-तत्-अग्रे-अमृतोपमम् ।
परिणामे विषम्-इव तत् सुखम् राजसम् मतम् ॥)
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भावार्थ :
जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है और प्रारम्भ में अमृतोपम (प्रतीत) होता है, किन्तु परिणाम में विष-तुल्य सिद्ध होता है, उसको राजस-सुख कहा गया है ।
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अध्याय 18, श्लोक 39,
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः ।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥
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यत्-अग्रे च अनुबन्धे च सुखम्-मोहनम्-आत्मनः ।
निद्रा-आलस्य-प्रमादोत्थम् तत् तामसम् उदाहृतः ॥)
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भावार्थ:
जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा / मन को मोहित बनाए रखता है, निद्रा आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न उस सुख को तामस कहा गया है ।
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’सुखम्’ / 'sukhaM' - bliss, happiness, (real or apparently so),
Chapter 18, shloka 36,
sukhaM tvidAnIM trividhaM
shRuNu me bharatarShabha |
abhyAsAdramate yatra
duHkhAntaM cha nigachchhati ||
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Meaning :
O bharatarShabha (arjuna)! Now hear from Me about the Happiness that is of three kinds.
(The first is: ) Which is achieved and enjoyed through long efforts and practice, where-by the sorrow comes to the final end. And, ...
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Chapter 18, shloka 37,
yattadagre viShamiva
pariNAme'mRtopamaM |
tatsukhaM sAttvikaM prokta-
mAtmabuddhiprasAdajaM ||
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...That, which appears hard and unpleasant as if like poison, but proves to be nectar in the result. That happiness is called sAttvika (of essence in real happiness, or owing to the harmony-aspect / 'sat' of prakRti), and results when the wisdom flowers forth with grace.
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Chapter 18, shloka 38,
viShayendriyasaMyogAd-
yattadagre'mRtopamaM |
pariNAme viShamiva
tatsukhaM rAjasaM smRtaM ||
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(And the happiness of the second kind is,) That is caused because of the contact between the objects with their specific senses of enjoyments, and though appears like nectar in the begining, proves like a poison in the end. Such happiness is known as 'rAjasaM' (or owing to the passion-aspect of prakRti).
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Chapter 18, shloka 39,
yadagre chAnubandhe cha
sukhaM mohanamAtmanaH |
nidrAlasyapramAdotthaM
tattAmasamudAhRtaM ||
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(And the happiness of the third kind is,) That which keeps one under the influence of delusion in the beginning and during the time one goes through it, and till it lasts. Sleep, laziness, and indolence, callousness are its prominant signs. This happiness iscalled 'tAmasaM' (or owing to the inertia-aspect of prakRti).
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