आज का श्लोक, ’सात्त्विकी’ / 'sAttvikI',
______________________________
’सात्त्विकी’ / 'sAttvikI', - सत्त्वगुण-प्रधान,
अध्याय 17, श्लोक 2,
--
श्रीभगवान् उवाच :
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥
--
(त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनाम् सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी च-एव तामसी च-इति तां शृणु ॥)
--
भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
सभी देहधारियों को स्वभाव से प्राप्त उनकी श्रद्धा, तीन प्रकार की होती है । वह (श्रद्धा) किस प्रकार से सात्त्विकी, राजसी अथवा तामसी होती है, उसे सुनो ।
--
अध्याय 18, श्लोक 30,
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥
--
(प्रवृत्तिम् च निवृत्तिम् च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धम् मोक्षम् च या वेत्ति वुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥)
भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! जिस बुद्धि द्वारा यह जाना जाता है कि कौन सी प्रवृत्ति और निवृत्ति कल्याणकारी है और कौन सी नहीं है, कौन सा कार्य विहित और कौन सा अविहित है, किसे करने से भय या अभय की, बन्धन अथवा बन्धन से मुक्ति की प्राप्ति होगी, वह बुद्धि सात्त्विकी बुद्धि है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 33,
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः ।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥
--
(धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः ।
योगेन-अव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥)
--
भावार्थ :
हे पार्थ! जिस अव्यभिचारी (अचंचल, इधर-उधर न जाती हुई) धृति अर्थात् निष्ठा द्वारा योगभ्यास सहित, मन प्राणों तथा इन्द्रियों की गतिविधि को संयमित रखा जाता है वह ’धृति’ सात्त्विकी धृति है ।
--
’सात्त्विकी’ / 'sAttvikI', - harmony as the prominent / predominant factor,
Chapter 17, shloka 2,
--
shrI bhagavAn uvAcha :
trividhA bhavati shraddhA
dehinAM sA swabhAvajA |
sAttvikI rAjasI chaiva
tAmasI cheti tAM shRNu ॥
--
Meaning :
Lord shrikrishNa said, -
"According to the natural tendencies of the body-mind, the 'faith' associated with them is of three kinds - sAttvikI ( of harmony), rAjasika ( of passion) or of tAmasI (of indolence)."
--
Chapter 18, shloka 30,
pravRuttiM cha nivRuttiM cha
kAryAkArye bhayAbhaye |
bandhaM mokShaM cha yA vetti
buddhiH sA pArtha sAttvikI ||
--
Meaning :
The tendency of the intellect that helps one know correctly what actions are right and proper to be done, and what are not so, what should be feared of and what should be not, what will lead to bondage and what to freedom (liberation), is called 'sAttvikI' (that maintains harmony of mind).
Chapter 18, shloka 33,
dhRtyA yayA dhArayate
manaH-prANendriyakriyAH |
yogenAvyabhichAriNyA
dhRtiH sA pArtha sAttvikI ||
--
Meaning :
The consistency and the persistence of the mind, that by means of constant and steady practice of yoga, helps in restraining the activity of the mind and the vital life-force of the organism is called 'sAttvikI' (that maintains harmony of mind).
--
______________________________
’सात्त्विकी’ / 'sAttvikI', - सत्त्वगुण-प्रधान,
अध्याय 17, श्लोक 2,
--
श्रीभगवान् उवाच :
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥
--
(त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनाम् सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी च-एव तामसी च-इति तां शृणु ॥)
--
भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
सभी देहधारियों को स्वभाव से प्राप्त उनकी श्रद्धा, तीन प्रकार की होती है । वह (श्रद्धा) किस प्रकार से सात्त्विकी, राजसी अथवा तामसी होती है, उसे सुनो ।
--
अध्याय 18, श्लोक 30,
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥
--
(प्रवृत्तिम् च निवृत्तिम् च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धम् मोक्षम् च या वेत्ति वुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥)
भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! जिस बुद्धि द्वारा यह जाना जाता है कि कौन सी प्रवृत्ति और निवृत्ति कल्याणकारी है और कौन सी नहीं है, कौन सा कार्य विहित और कौन सा अविहित है, किसे करने से भय या अभय की, बन्धन अथवा बन्धन से मुक्ति की प्राप्ति होगी, वह बुद्धि सात्त्विकी बुद्धि है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 33,
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः ।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥
--
(धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः ।
योगेन-अव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥)
--
भावार्थ :
हे पार्थ! जिस अव्यभिचारी (अचंचल, इधर-उधर न जाती हुई) धृति अर्थात् निष्ठा द्वारा योगभ्यास सहित, मन प्राणों तथा इन्द्रियों की गतिविधि को संयमित रखा जाता है वह ’धृति’ सात्त्विकी धृति है ।
--
’सात्त्विकी’ / 'sAttvikI', - harmony as the prominent / predominant factor,
Chapter 17, shloka 2,
--
shrI bhagavAn uvAcha :
trividhA bhavati shraddhA
dehinAM sA swabhAvajA |
sAttvikI rAjasI chaiva
tAmasI cheti tAM shRNu ॥
--
Meaning :
Lord shrikrishNa said, -
"According to the natural tendencies of the body-mind, the 'faith' associated with them is of three kinds - sAttvikI ( of harmony), rAjasika ( of passion) or of tAmasI (of indolence)."
--
Chapter 18, shloka 30,
pravRuttiM cha nivRuttiM cha
kAryAkArye bhayAbhaye |
bandhaM mokShaM cha yA vetti
buddhiH sA pArtha sAttvikI ||
--
Meaning :
The tendency of the intellect that helps one know correctly what actions are right and proper to be done, and what are not so, what should be feared of and what should be not, what will lead to bondage and what to freedom (liberation), is called 'sAttvikI' (that maintains harmony of mind).
Chapter 18, shloka 33,
dhRtyA yayA dhArayate
manaH-prANendriyakriyAH |
yogenAvyabhichAriNyA
dhRtiH sA pArtha sAttvikI ||
--
Meaning :
The consistency and the persistence of the mind, that by means of constant and steady practice of yoga, helps in restraining the activity of the mind and the vital life-force of the organism is called 'sAttvikI' (that maintains harmony of mind).
--
No comments:
Post a Comment