आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (3)
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’सः’ / 'saḥ' - वह,
अध्याय 3, श्लोक 6,
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
--
(कर्मेन्द्रियाणि संयम्य यः आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः सः उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर, उन्हें उनके विषयों से दूर रखते हुए भी, मन से इन्द्रियों के उन विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है ।
--
अध्याय 3, श्लोक 7,
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियमारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥
--
(यः तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगम् असक्तः सः विशिष्यते ॥)
--
भावार्थ :
किन्तु जो मनुष्य मन से इन्द्रियों को वश में रखते हुए समस्त कर्मेन्द्रियों के द्वारा अनासक्ति सहित कर्मयोग का आचरण करता है, वह (पूर्वोक्त श्लोक में वर्णित मनुष्य की अपेक्षा) श्रेष्ठ है ।
--
अध्याय 3, श्लोक 12,
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ।
--
(इष्टान् भोगान् हि वः देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैः दत्तान् अप्रदाय एभ्यः यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥)
--
भावार्थ :
यज्ञ के द्वारा पूजित किए जाने से प्रसन्न हुए देवता अवश्य ही तुम्हें तुम्हारे इच्छित भोग प्रदान करेंगे । उनके द्वारा इस प्रकार से प्रदान न किए जाते हुए, जो इन भोगों को (अनधिकृत रूप से) भोगता है, वह चोर है ।
--
अध्याय 3, श्लोक 16,
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥
--
(एवम् प्रवर्तितम् चक्रम् न अनुवर्तयति इह यः ।
अघायुः इन्द्रियारामः मोघम् पार्थ सः जीवति ॥)
--
भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! इस लोक में जो मनुष्य इस प्रकार (धर्म की) परंपरा से प्रचलित (सृष्टि के) चक्र के अनुसार आचरण नहीं करता, वह इन्द्रियों के भोगों में सुख अनुभव करनेवाला, पाप में आयु बितानेवाला व्यर्थ ही जीता है ।
--
अध्याय 3, श्लोक 21,
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
--
(यत् यत् आचरति श्रेष्ठः तत् तत् एव इतरः जनः ।
सः यत् प्रमाणम् कुरुते लोकः तत् अनुवर्तते ॥)
--
भावार्थ :
श्रेष्ठ पुरुष जैसा, जो-जो आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा ही आचरण किया करते हैं । वह जिसे महत्व देता है, लोग भी उसी के अनुसार बरतने लगते हैं ।
--
अध्याय 3, श्लोक 42,
--
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥
--
(इन्द्रियाणि पराणि आहुः इन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसः तु परा बुद्धिः यः बुद्धेःपरतः तु सः ॥)
--
भावार्थ :
इन्द्रियाँ शरीर की तुलना में अधिक श्रेष्ठ, सूक्ष्म और चेतन कही गई हैं । किन्तु मन तो इन्द्रियों से भी अधिक श्रेष्ठ सूक्ष्म और चेतन है । मन से भी अधिक श्रेष्ठ सूक्ष्म और चेतन है, और इसी प्रकार से (आत्मा) जो बुद्धि से भी परे है, वह बुद्धि से भी अधिक श्रेष्ठ सूक्ष्म और चेतन है ।
--
टिप्पणी :
श्री रमण महर्षिकृत सत्-दर्शनम् में श्लोक क्रमांक 6 और 7 में इसे निम्न शब्दों में कहा गया है :
शब्दादिरूपं भुवनं समस्तम्
शब्दादि सत्तेन्द्रियवृत्तिभास्या ।
सत्तेन्द्रियाणां मनसो वशे स्यात्
मनोमयं तद्भुवनं वदामः ॥
तथा,
धियासहोदेति धियास्तमेति
लोकस्ततो धीप्रविभास्य एषः ।
धीलोकजन्मक्षयधामपूर्णं
सद्वस्तु जन्मक्षयशून्यमेकम् ॥
--
भावार्थ : सम्पूर्ण जगत् शब्द, रूप, रस, गंध तथा स्पर्श इन पाँच प्रकार के इन्द्रिय संवेदनों के माध्यम से अनुभव किया जाता है । अर्थात् जगत् (और शरीर भी) इन्द्रियों की वृत्ति का विषय है, इसलिए इन्द्रियाँ जगत् और शरीर से अधिक श्रेष्ठ सूक्ष्म और चेतन हैं । किन्तु जब तक मन इन्द्रियों से नहीं जुड़ता तब तक इन्द्रियों का कार्य संभव नहीं होता । इसलिए जगत् मनोमय है । साथ ही, मन बुद्धि से ही प्रेरित हुआ परिचालित होता है । इसलिए बुद्धि मन की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ सूक्ष्म और चेतन है । किन्तु पुनः बुद्धि भी कभी प्रवृत्त होती है और कभी प्रवृत्त नहीं भी होती । अर्थात् बुद्धि के जागृत होने कार्य करने या न करने का एक अचल अधिष्ठान है, जो बुद्धि से भी अधिक श्रेष्ठ सूक्ष्म और चेतन है ।
--
’सः’ / 'saḥ' - He,
Chapter 3, shloka 6,
karmendriyāṇi saṃyamya
ya āste manasā smaran |
indriyārthānvimūḍhātmā
mithyācāraḥ sa ucyate ||
--
(karmendriyāṇi saṃyamya
yaḥ āste manasā smaran |
indriyārthān vimūḍhātmā
mithyācāraḥ saḥ ucyate ||)
--
Meaning :
One who though outwardly restraining the organs, keeps on indulging in the the thoughts of the objects and the pleasures that are enjoyed from them, is verily deluded and is a hypocrite.
--
Chapter 3, shloka 7,
yastvindriyāṇi manasā
niyamārabhate:'rjuna |
karmendriyaiḥ karmayoga-
masaktaḥ sa viśiṣyate ||
__
(yaḥ tu indriyāṇi manasā
niyamya ārabhate arjuna |
karmendriyaiḥ karmayoga-
masaktaḥ saḥ viśiṣyate ||)
--
Meaning :
(In comparison and contrast to the last shloka, ...) But one, who without indulging in the senses, with no attachment, by means of mind (wisdom) keeping the senses under control, directs them towards the yoga of action, is superior indeed.
--
Chapter 3, shloka 12,
iṣṭānbhogānhi vo devā
dāsyante yajñabhāvitāḥ |
tairdattānapradāyaibhyo
yo bhuṅkte stena eva saḥ |
--
(iṣṭān bhogān hi vaḥ devā
dāsyante yajñabhāvitāḥ |
taiḥ dattān apradāya ebhyaḥ
yo bhuṅkte stena eva saḥ ||)
--
Meaning :
By means of yajña, propitiating the favorite Gods, get your wishes granted, and live happily. One who seeks to enjoy pleasures without offering worship to those Gods is a thief indeed.
--
Chapter 3, shloka 16,
evaṃ pravartitaṃ cakraṃ
nānuvartayatīha yaḥ |
aghāyurindriyārāmo
moghaṃ pārtha sa jīvati ||
--
(evam pravartitam cakram
na anuvartayati iha yaḥ |
aghāyuḥ indriyārāmaḥ
mogham pārtha saḥ jīvati ||)
--
Meaning :
(This is with reference to the earlier 2 shlokas, where the meaning of yajña is explained in essence.)
Who-so-ever in the world does not follow this cycle of nature, and enjoys sensuous pleasures against this law, lives in vain, incurs sin only.)
Chapter 3, shloka 21,
yadyadācarati śreṣṭhas-
tattadevetaro janaḥ |
sa yatpramāṇaṃ kurute
lokastadanuvartate ||
--
(yat yat ācarati śreṣṭhaḥ
tat tat eva itaraḥ janaḥ |
saḥ yat pramāṇam kurute
lokaḥ tat anuvartate ||)
--
Meaning :
The way men of higher status behave, is followed by ordinary people. Whatever great men think of as right and good, others also tend to do the same.
--
Chapter 3, shloka 42,
indriyāṇi parāṇyāhur-
indriyebhyaḥ paraṃ manaḥ |
manasastu parā buddhir-
yo buddheḥ paratastu saḥ ||
--
(indriyāṇi parāṇi āhuḥ
indriyebhyaḥ paraṃ manaḥ |
manasaḥ tu parā buddhiḥ
yaḥ buddheḥ parataḥ tu saḥ ||)
--
Meaning :
Senses are more powerful and subtle than the body, but the mind is stronger and more subtle than the senses. And, the intellect is strong and superior to mind, but the Self is superior to and beyond the intellect. (And in the next shloka, 43 of this chapter 3, arjuna is told by the Lord, How one should know this Self by transcending the intellect.)
--
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’सः’ / 'saḥ' - वह,
अध्याय 3, श्लोक 6,
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
--
(कर्मेन्द्रियाणि संयम्य यः आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः सः उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर, उन्हें उनके विषयों से दूर रखते हुए भी, मन से इन्द्रियों के उन विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है ।
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अध्याय 3, श्लोक 7,
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियमारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥
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(यः तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगम् असक्तः सः विशिष्यते ॥)
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भावार्थ :
किन्तु जो मनुष्य मन से इन्द्रियों को वश में रखते हुए समस्त कर्मेन्द्रियों के द्वारा अनासक्ति सहित कर्मयोग का आचरण करता है, वह (पूर्वोक्त श्लोक में वर्णित मनुष्य की अपेक्षा) श्रेष्ठ है ।
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अध्याय 3, श्लोक 12,
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ।
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(इष्टान् भोगान् हि वः देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैः दत्तान् अप्रदाय एभ्यः यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥)
--
भावार्थ :
यज्ञ के द्वारा पूजित किए जाने से प्रसन्न हुए देवता अवश्य ही तुम्हें तुम्हारे इच्छित भोग प्रदान करेंगे । उनके द्वारा इस प्रकार से प्रदान न किए जाते हुए, जो इन भोगों को (अनधिकृत रूप से) भोगता है, वह चोर है ।
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अध्याय 3, श्लोक 16,
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥
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(एवम् प्रवर्तितम् चक्रम् न अनुवर्तयति इह यः ।
अघायुः इन्द्रियारामः मोघम् पार्थ सः जीवति ॥)
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भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! इस लोक में जो मनुष्य इस प्रकार (धर्म की) परंपरा से प्रचलित (सृष्टि के) चक्र के अनुसार आचरण नहीं करता, वह इन्द्रियों के भोगों में सुख अनुभव करनेवाला, पाप में आयु बितानेवाला व्यर्थ ही जीता है ।
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अध्याय 3, श्लोक 21,
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
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(यत् यत् आचरति श्रेष्ठः तत् तत् एव इतरः जनः ।
सः यत् प्रमाणम् कुरुते लोकः तत् अनुवर्तते ॥)
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भावार्थ :
श्रेष्ठ पुरुष जैसा, जो-जो आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा ही आचरण किया करते हैं । वह जिसे महत्व देता है, लोग भी उसी के अनुसार बरतने लगते हैं ।
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अध्याय 3, श्लोक 42,
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इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥
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(इन्द्रियाणि पराणि आहुः इन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसः तु परा बुद्धिः यः बुद्धेःपरतः तु सः ॥)
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भावार्थ :
इन्द्रियाँ शरीर की तुलना में अधिक श्रेष्ठ, सूक्ष्म और चेतन कही गई हैं । किन्तु मन तो इन्द्रियों से भी अधिक श्रेष्ठ सूक्ष्म और चेतन है । मन से भी अधिक श्रेष्ठ सूक्ष्म और चेतन है, और इसी प्रकार से (आत्मा) जो बुद्धि से भी परे है, वह बुद्धि से भी अधिक श्रेष्ठ सूक्ष्म और चेतन है ।
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टिप्पणी :
श्री रमण महर्षिकृत सत्-दर्शनम् में श्लोक क्रमांक 6 और 7 में इसे निम्न शब्दों में कहा गया है :
शब्दादिरूपं भुवनं समस्तम्
शब्दादि सत्तेन्द्रियवृत्तिभास्या ।
सत्तेन्द्रियाणां मनसो वशे स्यात्
मनोमयं तद्भुवनं वदामः ॥
तथा,
धियासहोदेति धियास्तमेति
लोकस्ततो धीप्रविभास्य एषः ।
धीलोकजन्मक्षयधामपूर्णं
सद्वस्तु जन्मक्षयशून्यमेकम् ॥
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भावार्थ : सम्पूर्ण जगत् शब्द, रूप, रस, गंध तथा स्पर्श इन पाँच प्रकार के इन्द्रिय संवेदनों के माध्यम से अनुभव किया जाता है । अर्थात् जगत् (और शरीर भी) इन्द्रियों की वृत्ति का विषय है, इसलिए इन्द्रियाँ जगत् और शरीर से अधिक श्रेष्ठ सूक्ष्म और चेतन हैं । किन्तु जब तक मन इन्द्रियों से नहीं जुड़ता तब तक इन्द्रियों का कार्य संभव नहीं होता । इसलिए जगत् मनोमय है । साथ ही, मन बुद्धि से ही प्रेरित हुआ परिचालित होता है । इसलिए बुद्धि मन की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ सूक्ष्म और चेतन है । किन्तु पुनः बुद्धि भी कभी प्रवृत्त होती है और कभी प्रवृत्त नहीं भी होती । अर्थात् बुद्धि के जागृत होने कार्य करने या न करने का एक अचल अधिष्ठान है, जो बुद्धि से भी अधिक श्रेष्ठ सूक्ष्म और चेतन है ।
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’सः’ / 'saḥ' - He,
Chapter 3, shloka 6,
karmendriyāṇi saṃyamya
ya āste manasā smaran |
indriyārthānvimūḍhātmā
mithyācāraḥ sa ucyate ||
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(karmendriyāṇi saṃyamya
yaḥ āste manasā smaran |
indriyārthān vimūḍhātmā
mithyācāraḥ saḥ ucyate ||)
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Meaning :
One who though outwardly restraining the organs, keeps on indulging in the the thoughts of the objects and the pleasures that are enjoyed from them, is verily deluded and is a hypocrite.
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Chapter 3, shloka 7,
yastvindriyāṇi manasā
niyamārabhate:'rjuna |
karmendriyaiḥ karmayoga-
masaktaḥ sa viśiṣyate ||
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(yaḥ tu indriyāṇi manasā
niyamya ārabhate arjuna |
karmendriyaiḥ karmayoga-
masaktaḥ saḥ viśiṣyate ||)
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Meaning :
(In comparison and contrast to the last shloka, ...) But one, who without indulging in the senses, with no attachment, by means of mind (wisdom) keeping the senses under control, directs them towards the yoga of action, is superior indeed.
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Chapter 3, shloka 12,
iṣṭānbhogānhi vo devā
dāsyante yajñabhāvitāḥ |
tairdattānapradāyaibhyo
yo bhuṅkte stena eva saḥ |
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(iṣṭān bhogān hi vaḥ devā
dāsyante yajñabhāvitāḥ |
taiḥ dattān apradāya ebhyaḥ
yo bhuṅkte stena eva saḥ ||)
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Meaning :
By means of yajña, propitiating the favorite Gods, get your wishes granted, and live happily. One who seeks to enjoy pleasures without offering worship to those Gods is a thief indeed.
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Chapter 3, shloka 16,
evaṃ pravartitaṃ cakraṃ
nānuvartayatīha yaḥ |
aghāyurindriyārāmo
moghaṃ pārtha sa jīvati ||
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(evam pravartitam cakram
na anuvartayati iha yaḥ |
aghāyuḥ indriyārāmaḥ
mogham pārtha saḥ jīvati ||)
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Meaning :
(This is with reference to the earlier 2 shlokas, where the meaning of yajña is explained in essence.)
Who-so-ever in the world does not follow this cycle of nature, and enjoys sensuous pleasures against this law, lives in vain, incurs sin only.)
Chapter 3, shloka 21,
yadyadācarati śreṣṭhas-
tattadevetaro janaḥ |
sa yatpramāṇaṃ kurute
lokastadanuvartate ||
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(yat yat ācarati śreṣṭhaḥ
tat tat eva itaraḥ janaḥ |
saḥ yat pramāṇam kurute
lokaḥ tat anuvartate ||)
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Meaning :
The way men of higher status behave, is followed by ordinary people. Whatever great men think of as right and good, others also tend to do the same.
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Chapter 3, shloka 42,
indriyāṇi parāṇyāhur-
indriyebhyaḥ paraṃ manaḥ |
manasastu parā buddhir-
yo buddheḥ paratastu saḥ ||
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(indriyāṇi parāṇi āhuḥ
indriyebhyaḥ paraṃ manaḥ |
manasaḥ tu parā buddhiḥ
yaḥ buddheḥ parataḥ tu saḥ ||)
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Meaning :
Senses are more powerful and subtle than the body, but the mind is stronger and more subtle than the senses. And, the intellect is strong and superior to mind, but the Self is superior to and beyond the intellect. (And in the next shloka, 43 of this chapter 3, arjuna is told by the Lord, How one should know this Self by transcending the intellect.)
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