Thursday, April 24, 2014

आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (15),

आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (15),
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’सः’ / 'saḥ'    - वह,
 
अध्याय 15, श्लोक 1,
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श्रीभगवानुवाच :
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद वेदवित् ॥
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(ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम् अश्वत्थम् प्राहुः अव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यः तम् वेद सः वेदवित् ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
अस्तित्व, जीवन, मनुष्य का मन, या जगत् रूपी अश्वत्थ (पीपल) का जो वृक्ष है, जिसे अविनाशी कहा जाता है, उसके उद्गम् का मूल परमात्मा है । वेद जिसके पत्र-आदि हैं, उस (अश्वत्थ के स्वरूप) को जो जानता है, वही वेद का यथार्थ जाननेवाला है ।
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अध्याय 15, श्लोक 19,
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यो मामेवसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥
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(यः माम् एवम् असम्मूढः जानाति पुरुषोत्तमम् ।
सः सर्वविद्-भजति माम् सर्वभावेन भारत ॥)
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भावार्थ :
मूढता से रहित निर्मल बुद्धियुक्त हुआ जो मनुष्य (ज्ञानी) मुझको ही तत्त्वतः मेरे पुरुषोत्तम स्वरूप से जानता है, वह अनायास ही सभी प्रकार से मुझे जानकर मेरा अनुगामी होकर मुझे ही अनन्य भाव से भजता है ।
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टिप्पणी :
इस अध्याय के श्लोक 15, 16, 17, 18, तथा प्रस्तुत श्लोक में क्रमशः ’पुरुष’ एवं ’पुरुषोत्तम’ के महत्व को, आभासी भिन्नता एवं  स्वरूपगत समानता  को स्पष्ट किया गया है उस सन्दर्भ में क्रमशः आत्मा और परमात्मा को दो पुरुष कहा गया है । इसे ही मुण्डक उपनिषद् में तृतीय मुडक के प्रथम खण्ड के प्रथम श्लोक में वृक्ष पर बैठे हुए एक साथ रहनेवाले दो पक्षियों के उदाहरण से इस प्रकार से कहा है :
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया
समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्य-
नश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥
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दृष्टव्य है कि उक्त श्लोक में जिस वृक्ष पर वे दो पक्षी बैठे हैं, वह भी अश्वत्थ या पीपल ही है, जिसकी वटी को उनमें से एक स्वाद के आकर्षण में खाता है, जबकि दूसरा जो ऊँचाई पर बैठा उसे केवल देखता है, स्वयं उन फलों को नहीं खाता । यह देहरूपी पीपल पर बसनेवाली दो सत्ताओं, आत्मा अर्थात् ’व्यक्ति’ (अन्य पुरुष) और ’परमात्मा’ (उत्तम पुरुष) के  प्रतीक हैं । संस्कृत भाषा में ’अस्मद्’ प्रत्यय को ’उत्तम पुरुष’ कहा जाता है, ’युष्मद्’ प्रत्यय को ’मध्यम पुरुष’ एवम् ’अदस्’ प्रत्यय को ’अन्य पुरुष’ कहा जाता है ।
उत्तम पुरुष (अस्मद्, ’अहम्’) सर्वभूतमात्र में अविभक्त रूप से अवस्थित है, जबकि मध्यम पुरुष सदैव कोई दूसरा किन्तु अस्मद् के सन्दर्भ में हुआ करता है । वे दोनों जिस तीसरे के बारे में वार्तालाप करते हैं वह ’अन्य पुरुष’ होता है, अर्थात् वह भी जड न होकर उत्तम पुरुष एवं मध्यम पुरुष की ही तरह चेतन सत्ता होता है । इसलिए ’पुरुषोत्तम’ का अर्थ है हमारे अपने भीतर जहाँ ’मैं’-प्रतीति होती है, उस प्रतीति का अधिष्ठान । वह है परमात्मा । भगवान श्रीकृष्ण ने इसे गीता के इस ग्रन्थ में कई प्रकार से अनेक स्थानों पर कहा है । और लगभग सभी स्थानों पर ’परमात्मा’ के लिए सीधे-सीधे प्रथम-पुरुष एकवचन ’अहम्’ / ’माम्’, ’मा’ / ’मया’/ ’मह्यम्’, ’मे’ / ’मत्’ / ’मम’, मे / तथा ’मयि’ पदों का प्रयोग किया है । हाँ और जैसा कि इस अध्याय में श्लोक 17 में देखा जा सकता है, कई स्थानों पर ’ईश्वर’ का उल्लेख ’तत्’ या ब्रह्म के अभिप्राय से भी किया है, इसमें सन्देह नहीं । इसलिए अपने हृदय में उस उत्तम पुरुष को जानने के लिए हमें अन्तःकरण चतुष्टय के अधिष्ठान को, ’व्यक्ति’-चेतना के आधारभूत चैतन्य को समझना होगा ।
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’सः’ / 'saḥ'  - He, That,
Chapter 15, shloka 1,

śrībhagavānuvāca :
ūrdhvamūlamadhaḥśākham-
aśvatthaṃ prāhuravyayam |
chandāṃsi yasya parṇāni
yastaṃ veda sa vedavit ||
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(ūrdhvamūlam adhaḥśākham
aśvattham prāhuḥ avyayam |
chandāṃsi yasya parṇāni
yaḥ tam veda saḥ vedavit ||)
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This tree aśvattha eternal, is said to be imperishable, with it's roots that come from the above (Supreme), and the branches flinging towards the ground below (The world of perceptions). The hymns of veda are but its leaves and one who knows this secret indeed knows the essence of veda.
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Chapter 15, shloka 19,
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yo māmevasammūḍho
jānāti puruṣottamam |
sa sarvavidbhajati māṃ
sarvabhāvena bhārata ||
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(yaḥ mām evam asammūḍhaḥ
jānāti puruṣottamam |
saḥ sarvavid-bhajati mām
sarvabhāvena bhārata ||)
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Meaning :
One who free from delusion, such a man of wisdom, -sage, knows Me as the Supreme Being, He alone worships Me in all respects and always with his whole being.
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Note :
To grasp the full import of this shloka, one needs to go through shloka 15 onwards of this chapter. These shloka explain the importance and meaning of puruṣa and puruṣottamam.
A brief  reference to Sanskrit Grammar here, will be of immense help to us.
In Sanskrit Language / Grammar, the 3 persons are ’अस्मद्’,'asmad’, 'युष्मद्', 'yuṣmad' and the 'अदस्', 'adas' . They mean 'I', 'you', and 'that'/ 'this', respectively.
Everyone knows and is aware of oneself always by the very instinct. This sense of just being without attributes is 'अस्मि' ' ' that is again the first person present tense of the Sanskrit root 'अस्', meaning to 'be'. This 'be' is again a distorted form of ' भू ' 'bhū'. 'अस् ' means 'is', while ' भू / bhū ' means 'becoming'.
Thus the pure sense of 'is-ness' gets changed / deformed as 'being'-ness. The Supreme ( उत्तम / uttama ) thereby becomes / occupies a secondary position of 'being'.  This secondary position of Supreme is our sense of being 'some-one'. This is 'person' / first person.
And the one who free from delusion, knows Me as the Supreme Being, He alone worships Me in all respects and always with his whole being.
A word about ' भजति ' / ' bhajati ' . This word is the simple present third person, singular form of the  Sanskrit verb-root ' भज् ' / ' bhaj ', that literally means 'to share'.
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