आज का श्लोक, ’सिद्ध्यसिद्ध्योः’ / 'siddhyasiddhyoH'
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’सिद्ध्यसिद्ध्योः’ / 'siddhyasiddhyoH' - सफलता और विफलता दोनों स्थितियों में,
अध्याय 2, श्लोक 48,
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
--
(योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गम् त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धि-असिद्ध्योः समः भूत्वा समत्वम् योगः उच्यते ॥)
भावार्थ :
(देह, मन, बुद्धि या प्रकृति से) किए जानेवाले कर्मों से अपना तादात्म्य न करते हुए, अर्थात् उनकी संगति को त्यागते हुए, बुद्धियोग में स्थित रहकर, सिद्धि और असिद्धि, सफलता और विफलता को समान समझते हुए कर्म करो, इस प्रकार की समत्व-बुद्धि ही योग है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 26,
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥
(मुक्त-सङ्गः अनहंवादी धृति-उत्साहसमन्वितः ।
सिद्धि-असिद्ध्योः निर्विकारः कर्ता सात्विकः उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
सङ्ग-दोष से रहित, अर्थात् ’मैं कर्ता हूँ’ इस भ्रम से मोहित न होते हुए , ’मैं’ से जुड़े विशेषणों का प्रयोग न करते हुए, निर्दोष समझ (धृति) तथा उत्साह से संपन्न, कर्म के परिणाम की सफलता और असफलता से अप्रभावित रहनेवाला उस कर्म का कर्ता सात्त्विक कहा जाता है ।
--
’सिद्ध्यसिद्ध्योः’ / 'siddhyasiddhyoH' - in success or failure
,
Chapter 2, shloka 48,
yogasthaH kuru karmANi
sangaM tyaktvA dhananjaya |
siddhyasiddhyoH samo bhUtvA
samatvaM yoga uchyate |
--
Meaning :
Staying in the right understanding (wisdom), without mentally associating yourself with the notions 'I do' / 'I don't do', let the actions take place. Welcome the success or failure in your attempts with the same spirit of equanimity. (This) equanimity is called 'yoga'.
--
Chapter 18, shloka 26,
muktasango'nahaMvAdI
dhRtyutsAhasamanvitaH |
siddhyasiddhyornirvikAraH
kartA sAttvika uchyate ||
--
Meaning :
One who is not mentally involved in the (results of the) actions, but lets them happen with due vigor and right perception of them, indifferent to success or failure, such a man is called 'sAtvika' (noble) man of action.
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’सिद्ध्यसिद्ध्योः’ / 'siddhyasiddhyoH' - सफलता और विफलता दोनों स्थितियों में,
अध्याय 2, श्लोक 48,
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
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(योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गम् त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धि-असिद्ध्योः समः भूत्वा समत्वम् योगः उच्यते ॥)
भावार्थ :
(देह, मन, बुद्धि या प्रकृति से) किए जानेवाले कर्मों से अपना तादात्म्य न करते हुए, अर्थात् उनकी संगति को त्यागते हुए, बुद्धियोग में स्थित रहकर, सिद्धि और असिद्धि, सफलता और विफलता को समान समझते हुए कर्म करो, इस प्रकार की समत्व-बुद्धि ही योग है ।
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अध्याय 18, श्लोक 26,
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥
(मुक्त-सङ्गः अनहंवादी धृति-उत्साहसमन्वितः ।
सिद्धि-असिद्ध्योः निर्विकारः कर्ता सात्विकः उच्यते ॥)
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भावार्थ :
सङ्ग-दोष से रहित, अर्थात् ’मैं कर्ता हूँ’ इस भ्रम से मोहित न होते हुए , ’मैं’ से जुड़े विशेषणों का प्रयोग न करते हुए, निर्दोष समझ (धृति) तथा उत्साह से संपन्न, कर्म के परिणाम की सफलता और असफलता से अप्रभावित रहनेवाला उस कर्म का कर्ता सात्त्विक कहा जाता है ।
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’सिद्ध्यसिद्ध्योः’ / 'siddhyasiddhyoH' - in success or failure
,
Chapter 2, shloka 48,
yogasthaH kuru karmANi
sangaM tyaktvA dhananjaya |
siddhyasiddhyoH samo bhUtvA
samatvaM yoga uchyate |
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Meaning :
Staying in the right understanding (wisdom), without mentally associating yourself with the notions 'I do' / 'I don't do', let the actions take place. Welcome the success or failure in your attempts with the same spirit of equanimity. (This) equanimity is called 'yoga'.
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Chapter 18, shloka 26,
muktasango'nahaMvAdI
dhRtyutsAhasamanvitaH |
siddhyasiddhyornirvikAraH
kartA sAttvika uchyate ||
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Meaning :
One who is not mentally involved in the (results of the) actions, but lets them happen with due vigor and right perception of them, indifferent to success or failure, such a man is called 'sAtvika' (noble) man of action.
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