आज का श्लोक, ’सुखम्’ / 'sukhaM' -2.
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’सुखम्’ / 'sukhaM' - सुख, आनन्द,
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’सुखम्’ / 'sukhaM' - सुख, आनन्द,
अध्याय 5, श्लोक 21,
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥
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(बाह्य-स्पर्शेषु-असक्तात्मा विन्दति आत्मनि यत् सुखम् ।
सः ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखम्-अक्षयम् अश्नुते ।)
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भावार्थ :
बाहर के (मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों से होनेवाले विषयजनित) सम्पर्क से अछूता मनुष्य जिस सुख को अपनी अन्तरात्मा में प्राप्त करता है, ब्रह्मके ध्यान में लीन उसको ही उस अक्षय सुख का अनुभव होता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 21,
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥
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(सुखम् आत्यन्तिकम् यत् तत् बुद्धिग्राह्यम् अतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न च एव अयम् स्थितः चलति तत्त्वतः ॥)
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भावार्थ :
आत्मा के स्वरूप का केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ग्रहण किए जा सकनेवाला जो आत्यन्तिक अतीन्द्रिय सुख है, उसे तत्त्वतः जानता हुआ जो उससे विचलित नहीं होता, और उसमें ही स्थिर रहता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 27,
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥
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(प्रशान्तमनसम् हि-एनम् योगिनम् सुखम् उत्तमम् ।
उपैति शान्तरजसम् ब्रह्मभूतम्-अकल्मषम् ॥
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भावार्थ :
(अध्याय 6 के पिछले श्लोक 27 से आगे ...)
जिसका रजोगुण शान्त हो चुका है, अर्थात् चित्त की चञ्चलता प्रशमित हो गई है जिस योगी के मन की, उसके उस मन को ब्रह्म से एकीभूत होने का श्रेष्ठ अकल्मष सुख / आनन्द प्राप्त होता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 28,
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥
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(युञ्जन् एवं सदा आत्मानम् योगी विगत कल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शम् अत्यन्तम् सुखम् अश्नुते ॥)
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भावार्थ :
पापरहित योगी अपने चित्त को निरन्तर उस ब्रह्म में संलग्न रखते हुए अनायास ही ब्रह्म के संस्पर्श के अनन्त आनन्द को अनुभव करने लगता है ।
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’सुखम्’ / 'sukhaM' - bliss, happiness, (real or apparently so),
Chapter 5, shloka 21,
bAhya sparsheShvasaktAtmA
vindatyAtmani yatsukhaM |
sa brahmayogayuktAtmA
sukhamakShayamashnute ||
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Meaning :
Thus is attained the bliss infinite by this consciousness, (that is freed from all action, unidentified with the action), untouched by the outward objects, That is the imperishable Bliss of Brahman, and because of merging in Brahman.
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Chapter 6, shloka 21,
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sukhamAtyantikaM yattad-
buddhigrAhyamatIndriyaM |
vetti yatra na chaivAyaM
sthitashchalati tattvataH ||
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Meaning :
Such a man (as described in the previous shloka), knows the supreme bliss of Self that is discernible by the pure intelligence only (and not by the simple intellect of an ordinary mind / senses) . And once settled there firmly, never moves away from there.
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Chapter 6, shloka 27,
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prashAntamanasaM hyenaM
yoginaM sukhamuttamaM |
upaiti shAntarajasaM
brahmabhUtamakalmaShaM ||
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Meaning :
Such a mind of a yogI (seeker) that has become tranquil because of the freedom from fear and desire, and restlessness, soon attains the bliss supreme .
The bliss that is verily Brahman and of Brahman Only.
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Chapter 6, shloka 28,
yunjannevaM sadAtmAnaM
yogI vigatakalmaShaH |
sukhena brahmasaMsparsha-
matyantaM sukhamashnute ||
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Meaning :
Freed from the sins, the aspirant (yogI) fixing one's mind always upon the Self that is Reality only, easily attains the delight of the infinite bliss Which is That (Brahman).
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