Monday, October 30, 2023

Appearance and The Reality.

अहं मम  और माम् 

I, MY and ME.

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

यह जो है माया यह (तीन) गुणों से युक्त प्रकृति / प्रतीति / 'प्रत्यय' का ही नाम है न कि तत्वतः अस्तित्व विद्यमान कोई वस्तु हो सकती है। इसका निवारण और इसलिए इसका निवारण भी कर पाना अत्यन्त ही कठिन है। और किन्तु वे ही, जो कि मुझ नित्य अस्तित्वमान परमात्मा की प्राप्ति करने की अभीप्सा और अभिलाषा से प्रेरित होकर मुझे जानने की चेष्टा / अभ्यास करते हैं इसका निवारण और निराकरण कर पाते हैं, इसे पार कर तर जाते हैं।

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Transcending this माया / mAYA, that is प्रकृति / Prakriti (and consists of three गुणाः / attributes) is extremely difficult and only those Who-so-ever follow ME can transcend this माया / mAyA.

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अहं / अहम् -  संज्ञा / उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम प्रथम विभक्ति आत्मा / परमात्मा - नित्य अविकारी विद्यमान वस्तु ।

Nominative Case noun / pronoun. 

मम :

- अहं / अहम् संज्ञा / सर्वनाम पद - मैं  I, noun the self or Self.

Relative / possessive Case -- of or own. Indicating "my", it's always changing while I / Self is ever so immutable / unchanging. 

संबंधसूचक षष्ठी विभक्ति - मेरा, मेरी, मेरे जो कि सदैव विकार से ग्रस्त प्रतीति ही होती है और यही माया है। Appearance - what looks true for the moment only.

Time and Space too are appearances and as such always changing. Time is though fixed in the now, but keeps on changing with reference to imagined future or in the memory of the past.

Knowing and Understanding this one can see how time is either Real as in the now or appearance / Unreal as in the sense of past and future.

This Time therefore because of it is given an assumed reality through the thought only. Thought and Time both appear with reference to each other.

According to the aphorisms of the Patanjala Yoga Darshana, Thought is vRtti and memory too is vRitti only.

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#Presently, just unable to find out the location, number and the Chapter of the verse!

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Friday, October 27, 2023

तस्याहं निग्रहं मन्ये

Chapter 6,

Verse 34, 35

अध्याय ६,

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।३४।।

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असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।३५।।

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उपरोक्त दोनों श्लोकों में ध्यान दिए जाने योग्य महत्वपूर्ण बिन्दु यह है - अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से प्रश्न पूछते हैं : हे कृष्ण! मन चञ्चल, हठी, अत्यन्त बलवान् और दृढ है। मैं मानता हूँ कि उसका निग्रह करना उसी तरह अत्यन्त कठिन है जैसे कि बहती हुई वायु को रोक सकना।

भगवान् श्रीकृष्ण उत्तर देते हुए कहते हैं :

हे महाबाहो अर्जुन! इसमें संशय नहीं है कि मन चञ्चल है और उसका निग्रह कर सकना कठिन भी है। किन्तु हे कौन्तेय! अभ्यास और वैराग्य से तो (अवश्य ही) उसका निग्रह किया जाता है।

यहाँ अर्जुन असावधानी से 'मन' और अपने आपको दो भिन्न वस्तुएँ मानकर यह प्रश्न पूछते हैं। "अहं मन्ये" -इस वाक्यांश से यही प्रतीत होता है। भगवान् श्रीकृष्ण इसका उत्तर देते हुए "अहं" पद का प्रयोग किए बिना ही अर्जुन से कहते हैं : "हे कौन्तेय! मन अवश्य ही चञ्चल है, और उसका निग्रह कर पाना बहुत कठिन है, फिर भी अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से उसका निग्रह किया जाता है।

यहाँ यह विचारणीय है कि क्या प्रश्नकर्ता अर्जुन का 'मन' उस प्रश्नकर्ता (अर्जुन) से पृथक् कोई भिन्न और अन्य / इतर वस्तु है, या स्वयं 'मन' ही अपने आपको "मैं" और 'मन' में विभाजित कर लेता है?

भगवान् श्रीकृष्ण फिर भी इस काल्पनिक प्रश्न का उत्तर देकर अर्जुन की समस्या का समाधान / निराकरण कर देते हैं।

अर्जुन के विषय में कुछ कहने से पहले यह समझ लिया जाना जरूरी है कि क्या हम सभी के साथ ऐसा ही नहीं होता है? कभी तो हम कहते हैं : "मैं प्रसन्न हूँ।" और कभी कहते हैं "मन प्रसन्न है।" ऐसी स्थिति में ध्यान इस ओर नहीं जाता कि जिसे "मैं" कहा जा रहा है, और जिसे "मन" कहा जा रहा है, क्या वह "मैं" और वह 'मन' एक ही वस्तु है, या दोनों दो भिन्न वस्तुएँ हैं! 

स्पष्ट है कि जो सतत परिवर्तित हो रहा है, कभी प्रसन्न तो कभी खिन्न हो रहा है वह 'मन' है, जबकि इस 'मन' को, अपरिवर्तित रहते हुए "जो" जानता है वह "मैं"। 

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Monday, October 23, 2023

यह जो है 'कर्ता'

The Sense of Doer-ship.

कर्तृत्व की भावना

अध्याय १८,

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसो।।

विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।२८।।

18/28,

मोहित बुद्धि से ग्रस्त होने के कारण इच्छा और द्वेष से प्रेरित जो 'मन' कर्तृत्व-भावना से युक्त होता है, उस 'मन' में ही संकल्प का जन्म होता है। 

अतः संकल्पमात्र वास्तविकता के अज्ञान का ही परिणाम है। 'वास्तविकता' न तो विषयी-रूपी ज्ञाता ही है, और न विषय-रूपी ज्ञेय, या इस प्रकार का विषयपरक द्वैतयुक्त ज्ञान ही है। इस प्रकार के विषय-परक द्वैतयुक्त ज्ञान में ही आत्माभास अर्थात् मैं विषयी हूँ और कर्म करनेवाला स्वतंत्र कर्ता, और उस (अवधारणा रूपी कल्पित) कर्म के फल का भोक्ता भी मैं ही हूँ, इस प्रकार के संकल्प का जन्म होता है। इस प्रकार से कर्म, कर्तृत्व और कर्मफल और कर्मफल का भोग करनेवाले का ज्ञान जिसे है, वह भी मैं ही हूँ -- संकल्प के जन्म के ही साथ ऐसी मिथ्या प्रतीति पैदा हो जाती है। 

चूँकि यह सब अपने / आत्मा के वास्तविक स्वरूप की अनभिज्ञता या आत्मा के स्वरूप  को न जानने का ही परिणाम होता है, इसलिए ऐसे 'मन' को ही अज्ञ कहा जाता है। चूँकि ऐसा मन विषय-विषयी की सत्यता-बुद्धि पर आश्रित होता है इसलिए वह सत्य पर आश्रित नहीं होता। जबकि श्रद्धा का अर्थ है सत्य पर आश्रित होना।

ऐसे ही 'मन' में स्मृति-रूपी अतीत और कल्पना के रूप में भविष्य का आभास उत्पन्न होता है और अपने स्वयं के स्वतंत्र कर्ता, भोक्ता और ज्ञाता होने की भावना भी विद्यमान होती है इसलिए अपने कार्य में सफल होने या असफल होने की दुविधा या संशय भी होता ही है।

ऐसे ही 'मन' में अर्थात् "मैं स्वतन्त्र कर्ता, भोक्ता और ज्ञाता तथा स्वामी भी हूँ" यह बुद्धि उत्पन्न होती है। इस प्रकार की बुद्धि से ग्रस्त 'मन' अर्थात् इस संशयात्मा का विनाश अवश्यंभावी होता है :

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

(अध्याय ४) 4/40,

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Monday, October 9, 2023

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः.

Long Lasting Wars. 

अध्याय १८,

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकः अलसो।।

विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।२८।।

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The sense / idea of "doer-ship" / thinking that I am independently the one who performs an action is the assumption because of that  such a man is called kind of tAmasaH / तामसः.

In simple words, such a man is caught in the thought, assumes and identifies oneself the whole, sole and the only cause of achieving the desired goal.

This makes one अयुक्तः / unfit for the Yoga, प्राकृतः / instrumental, स्तब्धः / stupefied, शठः / stubborn, नैष्कृतिकः / indolent, अलसः / idle, विषादी / sad,  दीर्घसूत्री /  with the tendency of  postponement / procrastination.

The present situation of war between Islam and Jew in the West Asia or the Middle East, is typical example of this verse.

It's really funny that each one of the three Abrahmic Religions have been engaged in this war aimed at annihilating "the other".

The unending war where only something on the part of the Unknown, Unidentified and Invisible Cause ordaining and controlling it may possibly end.

Only the time will tell if it is the ultimate, the final end for the whole human civilization.

If and Who-So-Ever might be The Lord of your choice, Pray to Him!

And if you don't believe in the existence of any such a Lord / Savior, be prepared to meet the extinction of the mankind from the earth. For, who knows if somewhere in the universe, there is another earth to be lived at! 

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