Monday, October 23, 2023

यह जो है 'कर्ता'

The Sense of Doer-ship.

कर्तृत्व की भावना

अध्याय १८,

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसो।।

विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।२८।।

18/28,

मोहित बुद्धि से ग्रस्त होने के कारण इच्छा और द्वेष से प्रेरित जो 'मन' कर्तृत्व-भावना से युक्त होता है, उस 'मन' में ही संकल्प का जन्म होता है। 

अतः संकल्पमात्र वास्तविकता के अज्ञान का ही परिणाम है। 'वास्तविकता' न तो विषयी-रूपी ज्ञाता ही है, और न विषय-रूपी ज्ञेय, या इस प्रकार का विषयपरक द्वैतयुक्त ज्ञान ही है। इस प्रकार के विषय-परक द्वैतयुक्त ज्ञान में ही आत्माभास अर्थात् मैं विषयी हूँ और कर्म करनेवाला स्वतंत्र कर्ता, और उस (अवधारणा रूपी कल्पित) कर्म के फल का भोक्ता भी मैं ही हूँ, इस प्रकार के संकल्प का जन्म होता है। इस प्रकार से कर्म, कर्तृत्व और कर्मफल और कर्मफल का भोग करनेवाले का ज्ञान जिसे है, वह भी मैं ही हूँ -- संकल्प के जन्म के ही साथ ऐसी मिथ्या प्रतीति पैदा हो जाती है। 

चूँकि यह सब अपने / आत्मा के वास्तविक स्वरूप की अनभिज्ञता या आत्मा के स्वरूप  को न जानने का ही परिणाम होता है, इसलिए ऐसे 'मन' को ही अज्ञ कहा जाता है। चूँकि ऐसा मन विषय-विषयी की सत्यता-बुद्धि पर आश्रित होता है इसलिए वह सत्य पर आश्रित नहीं होता। जबकि श्रद्धा का अर्थ है सत्य पर आश्रित होना।

ऐसे ही 'मन' में स्मृति-रूपी अतीत और कल्पना के रूप में भविष्य का आभास उत्पन्न होता है और अपने स्वयं के स्वतंत्र कर्ता, भोक्ता और ज्ञाता होने की भावना भी विद्यमान होती है इसलिए अपने कार्य में सफल होने या असफल होने की दुविधा या संशय भी होता ही है।

ऐसे ही 'मन' में अर्थात् "मैं स्वतन्त्र कर्ता, भोक्ता और ज्ञाता तथा स्वामी भी हूँ" यह बुद्धि उत्पन्न होती है। इस प्रकार की बुद्धि से ग्रस्त 'मन' अर्थात् इस संशयात्मा का विनाश अवश्यंभावी होता है :

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

(अध्याय ४) 4/40,

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