अहं मम और माम्
I, MY and ME.
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
यह जो है माया यह (तीन) गुणों से युक्त प्रकृति / प्रतीति / 'प्रत्यय' का ही नाम है न कि तत्वतः अस्तित्व विद्यमान कोई वस्तु हो सकती है। इसका निवारण और इसलिए इसका निवारण भी कर पाना अत्यन्त ही कठिन है। और किन्तु वे ही, जो कि मुझ नित्य अस्तित्वमान परमात्मा की प्राप्ति करने की अभीप्सा और अभिलाषा से प्रेरित होकर मुझे जानने की चेष्टा / अभ्यास करते हैं इसका निवारण और निराकरण कर पाते हैं, इसे पार कर तर जाते हैं।
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Transcending this माया / mAYA, that is प्रकृति / Prakriti (and consists of three गुणाः / attributes) is extremely difficult and only those Who-so-ever follow ME can transcend this माया / mAyA.
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अहं / अहम् - संज्ञा / उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम प्रथम विभक्ति आत्मा / परमात्मा - नित्य अविकारी विद्यमान वस्तु ।
Nominative Case noun / pronoun.
मम :
- अहं / अहम् संज्ञा / सर्वनाम पद - मैं I, noun the self or Self.
Relative / possessive Case -- of or own. Indicating "my", it's always changing while I / Self is ever so immutable / unchanging.
संबंधसूचक षष्ठी विभक्ति - मेरा, मेरी, मेरे जो कि सदैव विकार से ग्रस्त प्रतीति ही होती है और यही माया है। Appearance - what looks true for the moment only.
Time and Space too are appearances and as such always changing. Time is though fixed in the now, but keeps on changing with reference to imagined future or in the memory of the past.
Knowing and Understanding this one can see how time is either Real as in the now or appearance / Unreal as in the sense of past and future.
This Time therefore because of it is given an assumed reality through the thought only. Thought and Time both appear with reference to each other.
According to the aphorisms of the Patanjala Yoga Darshana, Thought is vRtti and memory too is vRitti only.
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#Presently, just unable to find out the location, number and the Chapter of the verse!
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