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Wednesday, October 30, 2024

The Turning Point.

श्रीमद्भगवद्गीता 

4/13,

अध्याय ४,

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।

तस्यापि कर्तारं मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।

6/46,

अध्याय ६,

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।४६।।

6/47,

अध्याय ६,

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतं।।४७।।

12/12,

अध्याय १२,

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागः त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

18/47,

अध्याय १८,

श्रेयान्सस्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।४७।।

18/48

अध्याय १८,

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।। 

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।४८।।

गुणकर्मविभागशः

मूढ जहीहि धनागमतृष्णा...

पूज्य आदि शङ्कराचार्य कृत चर्पटपञ्जरिका स्तोत्रम् की यह पंक्ति प्रायः मुझे याद आती है। और इस ब्लॉग को पढ़नेवाले किसी धनलोलुप से कल जब एक ईमेल मुझे प्राप्त हुआ जिसे गूगल मेल ने "स्पैम" में डाल रखा था, और तुरन्त ही मैंने उसे डिलीट कर दिया था, तब भी एक बार यह पंक्ति मुझे याद आई।

गीता के द्वितीय अध्याय के एक श्लोक में अर्जुन विषाद से व्याकुल होकर जब भगवान् श्रीकृष्ण से -

"न योत्स्य" अर्थात् "न योत्स्ये" कहते हैं -

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।।

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।

और इसी प्रकार अंतिम अठारहवें अध्याय के एक श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अहङ्कार से ग्रस्त होकर तुम जो "न योत्स्य" कहते हो तो तुम्हारा वह मान्यतारूपी व्यवसाय व्यर्थ है क्योंकि  प्रकृति ही तुम्हें युद्ध करने के लिए बाध्य कर देगी और तब तुम अवश्य ही युद्ध करोगे। 

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।। 

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।। 

संपूर्ण ग्रन्थ में अर्जुन न तो "मैं स्वतंत्र कर्ता हूँ" इस भ्रम से, और इसीलिए न इस भ्रम और अन्तर्द्वन्द्व से कि मुझे युद्ध करना चाहिए या नहीं करना चाहिए, और अंततः भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए "युद्धस्य कृतनिश्चयः" की आज्ञा का पालन करनेवाले युद्ध में संलग्न हो जाते हैं।

तात्पर्य यह कि जो कुछ भी शुभ या अशुभ होता है वह प्रकृति से ही पूर्वनिश्चित होता है यह समझकर प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप करने से बचते हुए प्राप्त हुए कर्तव्य में यत्नपूर्वक संलग्न होना ही एकमात्र विकल्प है।

ऊपर उद्धृत श्लोकों में प्रारब्ध और कर्तव्य के बीच की दुविधा का सामना कैसे करें इसके लिए ही मार्गदर्शन है।

मुझे प्राप्त ईमेल का सन्दर्भ इसलिए क्योंकि जैसा मैंने दूसरे भी अनेक स्थानों पर उल्लेख किया है, चूँकि अपने स्वभाव से जैसा मुझे उपयुक्त प्रतीत होता है, मैं वैसा ही निष्काम कर्म करने का यत्न करता हूँ और धन अर्जित करने की आवश्यकता या धन अर्जित करने की चिन्ता मुझे छूती तक नहीं, इसलिए धनप्राप्ति करना मेरा ब्लॉग लिखने का उद्देश्य कदापि नहीं है। किन्तु उपरोक्त प्रकार का ईमेल भेजनेवालों की प्रकृति बहुत भिन्न होने से वे भी उसी अनुसार कर्म करने के लिए बाध्य हैं, और ठीक इसी तरह प्रायः गूगल, फेसबुक और दूसरे भी सभी लोग।

किसी को कुछ समझाना न तो मर्यादा के अनुसार मुझे मेरे लिए उचित प्रतीत होता है और न ही मेरी चिन्ता का विषय है।

***

 







Friday, August 11, 2023

Dharma and Religion.

Religion, Tradition and revolution.

--

This could be better understood by;

For example;

By the comparison of a Physician with a Physicist.

Religion is Practice, while Dharma is Learning and Discovery.

Physician like a Professional, Doctor, Lawyer has to "practice" something, a skill for earning his livelihood, while a  Physicist has first of all to postulate, to  think over and examine and verify the truth or falsehood about whatever he might have thought about or postulated in the beginning of his enquiry.

Another such example could be of an amateur Musician, and of a Maestro,  who Composed independently a tune, a "signature tune" of his own, where his style is at once recognized only by the experts.

With reference to Gita :

श्रेयः is the धर्म, while अभ्यास / the practice is but the skill, the Tradition, or the Religion. 

Practice is skill, expertise, while the Discovery is the Excellence.

To elaborate upon this fundamental difference between the two let us see how the word  श्रेयः  has been used as the synonym of  धर्म  in the following verses:

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।।

श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।३१।।

(अध्याय १)

गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुमपीह लोके।।

हत्वार्थ-कामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिर-प्रदिग्धान्।।५।।

(अध्याय २)

कार्पण्यदोषोपहृतस्वभावः

पृच्छामि त्वां धर्म-सम्मूढचेताः।।

यत् श्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे

शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।७।।

(अध्याय २)

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।।

धर्माद्धि युद्धात् श्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।२१।।

(अध्याय २)

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।।

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयः अहमाप्नुयाम्।।२।।

(अध्याय ३)

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।११।।

(अध्याय ३)

श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।३५।।

(अध्याय 3)

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।

यत् श्रेयः एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।

(अध्याय ५)

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद् ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

(अध्याय १२)

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।।

आचरत्यात्मनः श्रेयस् ततो याति परां गतिम्।।२२।।

(अध्याय १६)

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Thursday, August 3, 2023

Samuel P. Huntington

Clash of  Civilizations,

And The  Gita.

सैम्युअल हटिंग्टन  और 

सभ्यताओं का संघर्ष

--

काल का अभ्युदय और दृश्य जगत् / संसार. 

The Emerging World-Scenario :

महाभारत युद्ध की समाप्ति होते होते धरती पर कलियुग का अवतरण हो गया। भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन और समस्त संसार को आगामी काल के लिए उपदेश देते हुए अपनी शिक्षाओं का सार इन श्लोकों से स्पष्ट किया : 

With the end of 

The Mahabharata War

And the ascent of the Kaliyuga, Lord Shrikrishna Concluded His Teachings to Arjuna and the whole of the Humanity,  through the following words / stanzas :

Chapter 2, Stanza 18 :

अध्याय २, श्लोक ४९,

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

Chapter 3, Stanza 11

अध्याय ३, श्लोक ११,

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथः।।११।।

Chapter 3, Stanza 12

अध्याय ३, श्लोक १२,

श्रेयान्सस्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।१२।।

Chapter 5, Stanza 1

अध्याय ५, श्लोक १,

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।

यच्छ्रेयः एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।

Chapter 7, Stanza 12

अध्याय ७ श्लोक १२,

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।।

मत्त एव तान्विद्धि न त्वहं तेषु च मयि।।१२।।

Chapter 8, Stanza 21

अध्याय ८, श्लोक २१,

अव्यक्तोऽक्षर इत्याहुस्तमाहुः परमां गतिम्।।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।२१।।

Chapter 9, Stanza 18

अध्याय ९, श्लोक १८,

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।।

प्रभावः प्रायः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।१८।।

chapter 9, Stanza 25

अध्याय ९, श्लोक २५,

यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति* पितृव्रताः।।

भूतानि यान्ति भूतेज्या मद्याजिनोऽपि माम्।।२५।।

(*please check the correct spelling of this word by clicking the label 9/25 and viewing all posts in this blog)

Chapter 12, Stanza 12

अध्याय १२, श्लोक १२,

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

Chapter 14, Stanza 18,

अध्याय १४, श्लोक १८,

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।।

जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।।१८।।

Chapter 17, Stanza 4

अध्याय १७, श्लोक ४,

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।।

प्रेतान्भूतगणानंश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।

संक्षेप में :

And Finally ;

Chapter 18, Stanza 62

अध्याय १८, श्लोक ६२,

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।।

तत्प्रसादात् परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।६२।।

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The above post is with reference to the idea of :

"Clash of Civilizations"

- by Samuel Huntington.

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Sunday, April 10, 2022

गीता में ध्यान-योग

साङ्ख्य-निष्ठा और कर्म-निष्ठा

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ज्ञान अर्थात् साङ्ख्य-ज्ञान / साङ्ख्य-योग और कर्म-योग यही दो प्रकार की निष्ठाएँ ही श्रीमद्भगवद्गीता ग्रन्थ का प्रधान विषय है। निम्न श्लोक में इसी को सूत्र-रूप में व्यक्त किया गया है :

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

(अध्याय १२)

यहाँ ज्ञान को साङ्ख्य ज्ञान अथवा बौद्धिक ज्ञान, दोनों के अर्थ में सन्दर्भ के अनुसार ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु ध्यान का संकेत यहाँ महर्षि पतञ्जलि-कृत योगशास्त्र के सन्दर्भ में लिया जाना, अधिक सार्थक तथा समीचीन होगा। क्योंकि किसी भी ध्यान के अभ्यास में ध्याता (अर्थात् विषयी / subject), ध्येय (अर्थात् विषय / object) और दोनों के एक-दूसरे से संबंधित होने में, ध्यान ( -विषय और विषयी का संयोग / attention) भी एक कारक (factor) तो होता ही है। इसीलिए पतञ्जलि महर्षि ने इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय (समाधिपाद) के प्रारंभ में ही योग को परिभाषित करते हुए :

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।

का उल्लेख किया है।

तृतीय अध्याय में :

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।।१।।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।३।।

के पश्चात् धारणा, ध्यान तथा समाधि तीनों के एकत्र होने को संयम कहा है :

त्रयमेकत्र संयमः।।४।।

तज्जयात् प्रज्ञालोकः।।५।।

(उपरोक्त सूत्र ५ को श्रीमद्भगवद्गीता के  श्लोकों 2/54, 2/55, 2/56, 2/57, 2/58, और 2/61 के संदर्भ में ग्रहण किया जाना प्रासंगिक होगा।) 

तस्य भूमिषु विनियोगः।।६।।

इस प्रकार की भूमिका के बाद चित्त की वृत्ति पर होनेवाले तीनों प्रकारों के परिणामों - क्रमशः निरोध-परिणाम, समाधि-परिणाम तथा एकाग्रता-परिणाम के चित्त पर होनेवाले प्रभाव को स्पष्ट किया गया है। इन प्रभावों से ही पुनः चित्त के धर्म, लक्षण और अवस्था परिणामों की व्याख्या की गई है :

एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्था परिणामा व्याख्याताः।।१३।।

उपरोक्त विवरण यहाँ इस संबंध में महत्वपूर्ण है कि जब भक्ति (रूपी कर्म) के माध्यम से इष्ट के स्वरूप की मानसिक प्रतिमा पर ध्यान एकाग्र किया जाता है उस समय भी चित्त पर (जानते हुए या अनजाने ही) उक्त परिणाम होते हैं।

पातञ्जल योगसूत्र में साधनपाद में कहा गया है :

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।

इसी दृष्टा का वर्णन समाधिपाद में :

तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।।३।।

के द्वारा किया गया है। 

सैद्धान्तिक विवेचना की दृष्टि से यह सब उपयोगी है, किन्तु यह फल तो अभ्यास से ही सिद्ध होता है, केवल कठिन और दुरूह शब्दावलि से परिचित होने मात्र से नहीं।

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Saturday, April 9, 2022

कर्म-मार्ग और ज्ञान-मार्ग

अभ्यास-योग

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वैसे तो इन दो प्रकार की निष्ठाओं के अनुसार मनुष्य ज्ञान-मार्ग और कर्म-मार्ग में से किसी एक का ही अधिकारी हो सकता है, किन्तु कोई बिरला ही इस बारे में जागरूक होता है। यह जानने से पहले प्रायः सभी मनुष्य संसार में निरंतर सुख पाते रहना एवं कष्टों से बचते रहना ही चाहते हैं। जब तक मनुष्य यह नहीं देख पाता कि सुख और दुःख परिस्थितियों और समय के साथ साथ अपना रंग-रूप बदलते रहते हैं तब तक मनुष्य सदैव सुखी रहने और दुःख से बचे रहने की लालसा से ग्रस्त रहता है। किन्तु जब उसे दुःख से बचने का कोई रास्ता दिखाई देना बन्द हो जाता है, तब वह या तो किसी भगवान, ईश्वर, देवता आदि की शरण लेता है, या संसार तब उसे सतत बदलते दिखाई देनेवाले दुःख का ही दूसरा नाम प्रतीत होता है। इस स्थिति में भी भगवान, ईश्वर या देवता कौन / क्या है, यद्यपि इसकी भी उसे कल्पना, ज्ञान और इसका कोई महत्व तक नहीं होता, फिर भी वह केवल आशा-अपेक्षा और संभावना की दृष्टि से वह ऐसे किसी इष्ट में विश्वास करना चाहता है, -न कि उसे ऐसा कोई विश्वास वस्तुतः होता है, किन्तु  फिर भी ऐसे विश्वास से उसे मनोवैज्ञानिक रूप से कुछ सान्त्वना मिलती हुई भी प्रतीत हो सकती है। या फिर आसपास के दूसरों लोगों के संपर्क से भी वह ऐसी किसी आस्था को जाने या अनजाने ग्रहण कर लेता है, जो कि उसकी एक धारणा ही होती है, न कि यथार्थ वस्तुस्थिति। 

फिर भी दोनों ही स्थितियों में उसे संसार से भय लगने लगता है, या वैराग्य ही हो जाता है। यह वैराग्य उस विराग से बहुत अलग प्रकार का होता है, जिसमें मन एक विषय से ऊब जाने से किसी दूसरे विषय की ओर आकर्षित होने लगता है।

तब मनुष्य यद्यपि नित्य सुख और अनित्य सुख के भेद को तो समझ लेता है, किन्तु फिर भी उसे यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि नित्य और अनित्य जिसे कहा जाता है, वह (तत्व) वस्तुतः क्या है?

इस प्रकार परिपक्व मन, बुद्धि वाला, धैर्यशील तथा वैराग्य-युक्त कोई बिरला ही उस नित्य तत्व की खोज में प्रवृत्त होता है और उसे ठीक ठीक जानकर आत्मा, ब्रह्म, ईश्वर, चेतन, चैतन्य-मात्र,  चेतना, भान, बोध या निजता आदि का नाम देता है। या यह भी संभव है कि तब वह उसे कोई नाम ही न दे, और मौन रहते हुए वाणी का प्रयोग केवल व्यावहारिक रूप से बहुत आवश्यक होने पर ही करे।

किसी भी स्थिति में मनुष्य को प्रारंभ में कोई न कोई अभ्यास तो करना ही होता है :

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागस्त्याच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

(अध्याय१२)

यहाँ 'ज्ञान' का तात्पर्य केवल सापेक्ष, बौद्धिक, या साङ्ख्य-ज्ञान (निरपेक्ष) के अर्थ में भी ग्रहण किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि ध्यान के अभ्यास में ध्याता, ध्येय और ध्यान की गतिविधि रूपी त्रिपुटी होती है, किन्तु निरपेक्ष अर्थात् साङ्ख्य ज्ञान में इस त्रिपुटी का विलय हो जाता है। 

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Friday, April 1, 2022

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य

...निबन्धायासुरी मता।। 

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पुरुषोत्तमयोग नामक अध्याय १५ का उपसंहार निम्न दो श्लोकों से किया गया है :

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।। 

स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।।१९।।

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।।

एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।।२०।।

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संसारमोक्षाय दैवी प्रकृतिः --

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यास्तपमार्जवम्।।१।।

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।।

दयाभूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।२।।

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।।

भवन्ति सम्पदं दैवमभिजातस्य भारत।।३।।

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निबन्धायासुरी च राक्षसी --

दम्भो दर्पोऽतिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।।

अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।४।।

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।।

मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।५।।

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द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।। 

दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु।।६।।

(अध्याय १६)

किसी भी मनुष्य को अपनी दैवी प्रकृति और आसुरी प्रकृति के अनुसार ही क्रमशः दैवी और आसुरी सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं।

इसी प्रकार दैवी प्रकृति से संपन्न ही किसी मनुष्य की निष्ठा भी दो प्रकारों में से किसी एक ही प्रकार की होती है।

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

(अध्याय ३)

इसलिए यद्यपि तप, दान, ज्ञान, यज्ञ आदि विभिन्न कर्म क्रमशः सात्त्विक, राजस या तामस होने पर भी, अपनी अपनी दैवी या आसुरी संपदाओं और निष्ठा के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं। एक ही मनुष्य में स्वभाव अर्थात् प्रकृति से ही ज्ञाननिष्ठा अर्थात् साङ्ख्य की ज्ञान-रूपी सहजनिष्ठा अथवा कर्मनिष्ठा -- निष्काम कर्म, भक्ति, ईश्वर-प्रणिधान आदि में से प्रधान रूप से एक ही निष्ठा विद्यमान होती है।

अपनी निष्ठा और अधिकार के अनुसार कोई भी मनुष्य निष्काम कर्मयोग अथवा साङ्ख्य-ज्ञान का अवलंबन लेकर परम श्रेयस् की प्राप्ति कर सकता है।

जिनमें ज्ञाननिष्ठा प्रधान और कर्मनिष्ठा गौण होती है, परमार्थ के ऐसे जिज्ञासुओं की बुद्धि तो ईश्वर, ब्रह्म, तत्त्व,धर्म, सत्य अथवा आत्मा को जानने की प्रवृत्ति से प्रेरित होती है, परन्तु जिनमें यह संकल्प विद्यमान होता है कि मैं कर्ता, भोक्ता, स्वामी और ज्ञाता आदि के रूप में जन्म और मृत्यु के चक्र में फँसा हुआ जीव हूँ, वे भी अनुमान से भी उस परमेश्वर की कल्पना कर सकते हैं जो इस समस्त जगत् का संचालन करता है, और उस कल्पित ईश्वर के स्वरूप का आश्रय लेकर अंततः उसके यथार्थ स्वरूप को भी जानकर उससे तादात्म्य रूपी सायुज्य, सामीप्य, सान्निध्य तथा सारूप्य प्राप्त कर सकते हैं। जिन्हें यह अभ्यास भी कठिन जान पड़ता है, उनके लिए गीता से यह निर्देश प्राप्त होता है :

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।।१०।।

अथैतदप्यशक्त्योऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।।

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।११।।

क्योंकि --

श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासात्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

(अध्याय १२)

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Friday, September 3, 2021

गीता-नवनीत

सर्वोपनिषदो गावः

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जीवन पथ पर वैसे तो हर मनुष्य को चाहे-अनचाहे चलना ही होता है किन्तु अपने इस कार्य को वह चार तरीकों के आधार पर इस प्रकार से सुनिश्चित कर सकता है कि अंततः उसे जीवन में श्रेयस् की प्राप्ति हो जाए। 

गीता का अध्याय ७ का यह श्लोक इसी ओर संकेत करता है :

श्री भगवान् उवाच :

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।।१७।।

वहीं गीता के अध्याय १२ के इस श्लोक में कहा गया है :

श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागस्त्याच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२।।

इस प्रकार इस श्लोक से श्रेयस् अर्थात् सत्य, ईश्वर, मन की पूर्ण और परम शान्ति की प्राप्ति की अभिलाषा रखनेवाले जिज्ञासुओं के भेद की ओर संकेत किया गया है।

किन्तु इन सभी जिज्ञासुओं के बीच में जो भी भेद दिखलाई देता है वह भी मूलतः पुनः उनकी उसी दो प्रकार की निष्ठा का ही भेद है, जिसे कि अध्याय ३ के इस श्लोक से स्पष्ट किया गया है :

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । 

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनां ।।३।।

इस प्रकार निष्ठा के भेद से ही उपरोक्त चार प्रकार के भिन्न भिन्न तरीकों के प्रयोग में भी अंतर हो सकता है ।

पुनः इसका ही संक्षेप में वर्णन अध्याय ५ के इन श्लोकों में किया गया है :

अर्जुन उवाच :

सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि । 

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ।।१।।

श्री भगवान् उवाच :

सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।

तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ।।२।।

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।३।।

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।।४।।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।

एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।५।।

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। 

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति।।६।।

इस प्रकार भिन्न भिन्न जिज्ञासुओं को एक ही श्रेयस् की प्राप्ति साङ्ख्य या योग की अपनी अपनी निष्ठा के अनुसार होती है। 

भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता के अध्याय २ में साङ्ख्यरूपी योग का महत्व प्रतिपादित किया, अध्याय ३ में कर्मयोग का, एवं अध्याय ४ में यज्ञ और कर्म के महत्व का वर्णन समान रूप से किया। सन्न्यास का अर्थ है वह, जिसे योग अथवा साङ्ख्य की अपनी निष्ठा के अनुसार सन्न्यास की प्राप्ति हो गई। 

अध्याय ५ में इसीलिए कर्मसन्न्यास-योग का वर्णन किया गया, और उसके महत्व को प्रतिपादित किया गया।

किन्तु इसी क्रम को आगे बढ़ाने हुए अध्याय ६ का प्रारंभ निम्न श्लोक से किया गया :

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः । 

स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ।।१।।

इसलिए सन्न्यासी यज्ञरूपी कर्म करे या न करे, अग्नि का स्पर्श करे या नहीं, कर्मफल का आश्रय नहीं ग्रहण करता। किन्तु इस सन्न्यास की उपलब्धि के लिए मनुष्य को जो योगाभ्यास करना होता है उस अभ्यास में उस मुनि की परिपक्वता के अनुसार उसे आरुरुक्षु अथवा योगारूढ कहा जाता है। इस प्रकार यद्यपि मुनि का कर्म या तो श्रेयस् की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है, या कर्म के शमन के लिए, यह उसकी परिपक्वता के अनुसार होता  है। पुनः यहाँ यह भी कहा गया है कि दोनों ही स्थितियों में योग का अवलम्बन लिया जाता है। इसलिए नित्यसन्न्यासी और योगी में समानता और भिन्नता भी देखी जा सकती है । 

इसे ही अगले श्लोकों में कहा गया है :

श्री भगवान् उवाच :

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।

न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ।।२।।

तथा,

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ।।३।।

अध्याय ६ को इसलिए योग अथवा अभ्यासयोग कहा गया। 

इसी क्रम को अध्याय ७ में विस्तारपूर्वक ज्ञानविज्ञानयोग का नाम दिया गया। 

ज्ञानविज्ञानयोग के ही क्रम में अगले अध्याय ८ में ब्रह्मविद्या के माध्यम से ब्रह्म की प्राप्ति के महत्व को तारकब्रह्मयोग नामक अध्याय में स्पष्ट किया गया।

गीता अध्याय २ में यद्यपि साङ्ख्य का तथा अध्याय ३ में कर्म को महत्व देकर उनका वर्णन किया गया, किन्तु इस प्रकरण को अध्याय ४ में इस प्रकार से उद्घाटित किया गया है कि साङ्ख्य की निष्ठा और दुरूहता के कारण उस मार्ग को न ग्रहण करने के इच्छुक और कर्म में रुचि और उसकी निष्ठा रखनेवाले मनुष्य के लिए जो उचित और ग्राह्य है, वह उस राजविद्या राजयोग रूपी कर्मनिष्ठा का अवलम्बन लेकर श्रेयस् की प्राप्ति का अभ्यास कर सके। यह वही योगविद्या है जिसका उपदेश सृष्टि करने के समय परमेश्वर ने विवस्वान (सूर्य) को दिया था, सूर्य से यह उपदेश मनु को प्राप्त हुआ और मनु से इक्ष्वाकु को, इस प्रकार यह भगवान् श्रीराम के वंश में परम्परा से प्राप्त होता रहा। 

अध्याय ४ इस प्रकार से प्रारंभ होता है :

श्री भगवान् उवाच :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।२।।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः । 

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।३।।

इस प्रकार रामायण के अन्तर उत्तररामायण और उत्तररामायण के अन्तर गीता का प्राकट्य हुआ। 

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Thursday, August 19, 2021

तप, ज्ञान, कर्म और योग

अभ्यासयोग 

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अध्याय ३ में भगवान् श्रीकृष्ण ने अध्यात्म-विषयक जिज्ञासुओं में दो प्रकार की निष्ठा का वर्णन किया है :

लोकेऽस्मिन्द्विविधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३।।

दो प्रकार की निष्ठाएँ क्रमशः साँख्य एवं योग की दृष्टि से कहने के अनंतर अर्जुन को इस विषय में शंका होती है कि निष्ठा की भिन्नता से क्या मुमुक्षु की उपलब्धि भी भिन्न भिन्न प्रकार की होती है?

अतः तब अध्याय ५ में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन की इस शंका का निवारण करते हुए उससे कहते हैं :

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः। 

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

इस प्रकार गीता में ज्ञान-विषयक दो धारणाएँ प्राप्त होती हैं:

एक तो साङ्ख्यदर्शन के अनुसार होनेवाला आत्म-ज्ञान, जो कि मुक्ति का साधन है, तथा दूसरा सैद्धान्तिक तत्त्वज्ञान, जो केवल शास्त्रीय होता है और वस्तुतः अज्ञान का ही विशेष प्रकार है। 

इस प्रकार का ज्ञान भी यद्यपि सैद्धान्तिक होता है, किन्तु फिर भी वह ज्ञानरहित अभ्यास की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है। 

इसलिए अध्याय १२ में भगवान् श्रीकृष्ण (सैद्धान्तिक ज्ञान से रहित) तप करनेवाले अभ्यासयोगियों अर्थात् तपस्वियों से इस ज्ञान से युक्त ज्ञानियों को अधिक श्रेष्ठ कहते हुए ध्यानयोगियों को ऐसे ज्ञानियों से भी श्रेष्ठतर कहते हैं। पुनः ऐसे ध्यानयोग में संलग्न, ध्यानरूपी कर्म करने की तुलना में उन्हें और भी अधिक श्रेष्ठ कहते हैं, जो कर्मफल (की आशा) को भी त्याग देते हैं।

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।९।।

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव। 

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।।१०

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। 

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।११।।

तथा अंत में :

श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासाज्ज्ञाद्ध्यानं विशिष्यते। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२।।

इस प्रकार तप, कर्म, ज्ञानरहित अभ्यास अर्थात् तप और ज्ञान-सहित कर्म को क्रमशः श्रेष्ठतर कहते हुए, अन्त में कर्मफल को ही त्याग देने को शान्ति की प्राप्ति का साधन कहते हैं। 

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Friday, May 21, 2021

पुनः अभ्यासयोग

3.

इस प्रकरण के क्रमांक 2 में अभ्यासयोग का वर्णन किया गया था। उसे ही आगे बढ़ाते हुए पुनः क्रमशः अध्याय १२ के उसी श्लोक १२ पर यह क्रम निम्न तरीके से पूर्ण होता है :

भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से आगे कहा :

युधिष्ठिर! अर्जुन को जिस प्रकार से मेरे स्वरूप (अर्थात् आत्मा) का दर्शन हुआ उसमें यद्यपि तत्वतः उसे अखिल विश्व का दर्शन हुआ, किन्तु उससे यह भी कहा गया कि वह जो कुछ और भी देखना चाहता है, उस सबको मुझमें देख सकता है।

चेतना के जिस तल पर अर्जुन को मेरे स्वरूप का दर्शन हुआ,  उसके विस्तार में जाना तुम्हारे लिए अनावश्यक है। अर्जुन ने मेरे उस स्वरूप का दर्शन किया क्योंकि यह उसकी अभिलाषा थी, किन्तु किसी भी मनुष्य का सामर्थ्य नहीं कि मेरे ऐसे दर्शन कर वह व्याकुल, व्यथित और भयभीत न हो। तब मैंने उसके भय को दूर करते हुए उससे कहा :

(अध्याय ११)

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।

व्यपेतभीः प्रीतमना पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ।। ४९

सञ्जय उवाच :

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः।

आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ।। ५०

अर्जुन उवाच :

दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन। 

इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतौ।। ५१

तब मैंने अर्जुन से पुनः यह कहा :

सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम। 

देवाऽप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।। ५२

क्यों? 

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन चेज्यया। 

शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।। ५३

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप।। ५४

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। 

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।। ५५

--

अध्याय ११ यहाँ पूर्ण हुआ। 

इसी क्रम में, अगले अध्याय १२ के पहले श्लोक में अर्जुन ने जिज्ञासा प्रस्तुत की :

अर्जुन उवाच :

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।

ये चाप्यमक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।। १

तब मैंने अर्जुन से कहा :

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।। २

ये त्वमक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। 

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।।३

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। 

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।। ४

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।

अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।। ५

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि  सन्न्यस्य मत्पराः। 

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।। ६

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।। ७

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिः निवेशय ।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।। ८

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरं ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।। ९

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्म परमं भव।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।।१०

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। 

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।। ११

क्यों? 

क्योंकि, 

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२

क्रमशः

***


 

 





 



 

Tuesday, May 18, 2021

2. अभ्यास-योग

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
हे युधिष्ठिर! 
वैसे तो प्राणिमात्र पर ही मेरी सदा अत्यन्त कृपा रहती है, किन्तु मेरी ही त्रिगुणात्मिका माया का आवरण बुद्धि पर होने से किसी को भी मेरी इस कृपा का आभास तक नहीं होता। किन्तु इसमें
किसी का कोई दोष भी नहीं, क्योंकि जैसे बुद्धि माया से प्रेरित होती है, उसी तरह यह त्रिगुणात्मिका माया स्वयं भी मुझ पर ही आश्रित, मुझसे ही प्रेरित होकर अपने असंख्य कार्य करती रहती है। यह सारा प्रपञ्च मेरी ही लीला है और इसलिए न तो कोई पतित है, न पापी और न पुण्यवान। सभी मेरे ही व्यक्त प्रकार हैं। विभिन्न नाम-रूपों से वे अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह करते हुए दिखाई देते हैं, किन्तु वस्तुतः न कोई कर्ता, न भोक्ता, न स्वामी और न ज्ञाता होता है। व्यक्त देह से संबद्ध बुद्धि में ही कर्म की कल्पना प्रस्फुटित होती है और देह, तथा देह का जिस जगत में आभास होता है, वह जगत तथा वह चेतना जिसमें देह और जगत की प्रतीति उत्पन्न होती है, मेरा ही प्रकाश और प्रकाश का विस्तार है। 
इसी पृष्ठभूमि में मैंने अर्जुन के लिए अभ्यास-योग का उपदेश इस प्रकार से किया था। :
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानात्-ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।। १२ 
(अध्याय १२)
किन्तु इस श्लोक का सन्दर्भ जिन दूसरे श्लोकों से है, वे क्रमशः  (अध्याय ११ में) इस प्रकार से हैं :
अर्जुन उवाच :
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव। 
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ।। ४६
श्री भगवानुवाच :
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मेत्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।। ४७
इस प्रकार स्पष्ट है कि अर्जुन की ऐसी विशिष्ट इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसे मैंने अपना विश्वरूपदर्शन दिखलाया था। उसे इसलिए जिस प्रकार से मेरे इस रूप का दर्शन हुआ था, वैसा दर्शन कर पाना उसके सिवा अन्य किसी दूसरे के लिए संभव नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि इस प्रकार के विश्वरूपदर्शन में अर्जुन ने यद्यपि समस्त चर-अचर, जड-चेतन, भूत-समष्टि को एकमेव नित्य विद्यमान चेतनामात्र की तरह अनुभव कर लिया था, न कि अक्षरशः अपने चर्म-चक्षुओं से देखा था, किन्तु यह अनुभव भी अस्थायी और इसलिए अनित्य होने से यह परमात्मा का वास्तविक दर्शन था ऐसा कहना उचित न होगा। 
अर्जुन से मैंने आगे कहा :
न वेदाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः। 
एवं रूप शक्य अहं नृलोके द्रष्टुत्वदन्येन कुरुप्रवीर।। ४८
इस प्रकार मैंने पुनः इसकी पुष्टि की, कि मेरे जिस स्वरूप का दर्शन उसे हुआ, उसे उसके अतिरिक्त न तो कोई अन्य पुरुष देख सकता है, और न ही वेदों आदि के अध्ययन से, दान, पूजा आदि विविध पुण्यकर्मों से, उग्र तप इत्यादि क्रियाओं से, भी इस प्रकार के दर्शन कर पाना लोक में किसी के लिए संभव है।
***
क्रमशः
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Monday, August 12, 2019

अभ्यासयोगयुक्तेन, अभ्यासयोगेन, अभ्यासात्

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अभ्यासयोगयुक्तेन 8/8,
अभ्यासयोगेन 12/9,
अभ्यासात् 12/12, 18/36,
--     

Saturday, June 13, 2015

वर्ण-आधारित आश्रम-धर्म -2

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलस्त्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
(श्रीमद्गगवद्गीता 12/12)
--
योग को परिभाषित करने के बजाय योग जिन चार स्तंभों पर स्थापित है, या योग-प्राप्ति के जो चार सोपान हैं, उनका विवरण उक्त श्लोक में अनायास प्राप्त होता है ।
पहला शब्द है ’श्रेय’ अर्थात् शुभ, कल्याणकारी, व्यक्ति और समष्टि सबके लिए .
मनुष्य दो वस्तुओं से परिचित है ’अभ्यास’ और ’ज्ञान’
इनमें से  पहला शब्द, सर्वप्रथम है, - 'अभ्यास' जो या तो होता है, या 'किया' जाता है।
हम किसी 'विश्वास' से युक्त होते ही हैं या फिर किन्हीं बाह्य 'प्रेरणाओं' द्वारा उसे 'किए' जाने के लिए बाध्य होते हैं।  यह बाह्य-प्रेरणाएँ भय, आशा, सुरक्षा की चिंता, या लोभवश या बस हमारी मूढ़ताजनित अंधी स्वीकृति के कारण ही हमें किसी 'विश्वास' या 'विश्वास' पर आधारित अभ्यास से संलग्न कर देती हैं।
दूसरा शब्द है ज्ञान अर्थात् किसी रूप में परिचय होना।  यह इन्द्रिय-संवेदन (sensory perception) के रूप में  या उसके परिणाम से उत्पन्न होनेवाली  'अनुकूल' / 'प्रतिकूल' स्थिति अर्थात् क्रमशः 'सुख' या 'दुःख के रूप में भी हो सकता है।  पुनः यह किसी विचार के रूप में भी हो सकता है जो हमें 'ग्राह्य' / 'अग्राह्य', रुचिकर या अरुचिकर लग सकता है।  इसके बाद यह केवल एक 'निष्कर्ष' भी हो सकता है जो 'स्थायी' अथवा 'अस्थायी' होता है किन्तु हम उसे मोहवश स्थायी समझने का आग्रह भी रख सकते हैं  …
इस रूप 'में 'ज्ञान' भी अभ्यास से प्रभावित होता है और अभ्यास को प्रभावित भी करता है। ज्ञान-रहित अभ्यास के 'श्रेयस्कर' होने की अपेक्षा ज्ञान-सहित अभ्यास के श्रेयस्कर होने की संभावना अधिक है।  पुनः यह ज्ञान स्वयं भी अधूरा, अपरिपक्व, संशययुक्त, दोषपूर्ण या दुराग्रहपूर्ण हो यह भी बिलकुल संभव है।
तीसरा शब्द है 'ध्यान' . ध्यान अर्थात सावधानी / सतर्कता / सचेतनता / विवेक इसलिए वह कसौटी है जो ज्ञान के यथासंभव और अधिकतम शुद्ध पूर्ण होने के लिए एकमात्र युक्ति / उपाय हो सकता है।
इन्द्रियों और मन-बुद्धि 'ध्यान' की क्षमता से रहित होते हैं और यंत्रवत कार्य करते हैं किन्तु यंत्र स्वयं किसी चेतन स्वामी के आधीन रहकर ही उसे श्रेयस्कर हो सकता है।
ध्यान (attention) इसलिए प्रत्यक्षतः कोई क्रिया या कृत्य न होते हुए भी इन्द्रियों और मन-बुद्धि आदि पर नियंत्रण में रखता है, इसलिए यह ज्ञान से भी विशिष्ट / विलक्षण साधन है,  ज्ञान से भी अधिक महत्वपूर्ण है।
प्रायः इस 'ध्यान' का उपयोग इसके चेतन स्वामी द्वारा किसी उद्देश्य या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किए जाने तक सीमित होता है।  और स्वाभाविक ही है कि सम्पूर्ण शक्ति लगाने और सारे प्रयासों के बाद भी उस उद्देश्य  / लक्ष्य कभी हो पाती है तो कभी कभी नहीं भी हो पाती। और जीवन के सुचारु रूप से चलने हेतु जिन न्यूनतम लक्ष्यों को पाया जाना होता है उन्हें अल्प-बुद्धिमान भी प्रायः पा ही लेते हैं।  किन्तु समस्या उन अधिक (?) बुद्धिमानों के लिए है जो उन लक्ष्यों / आदर्शों की प्राप्ति में मन की स्वाभाविक सहज, अनायास प्राप्त शान्ति को खो बैठते हैं, और इसे 'प्रगति' या विकास समझते हैं। अज्ञान से अज्ञान में  गति करते रहना क्या वास्तविक प्रगति है?
उन अति-बुद्धिमानों के लिए यही श्रेयस्कर होगा कि वे इसे समझकर कि 'कर्म' के फल की प्राप्ति का मनुष्य की फल-प्राप्ति के लिए होनेवाली आशा और प्रयास से कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि फल-प्राप्ति कुछ अन्य ऐसे कारणों पर भी आश्रित होती है जो मनुष्य के लिए सदैव अज्ञात होते हैं। इसलिए जो कर्म-फल पर अपना अधिकार न रखते हुए कर्म करता है, वह उस स्वाभाविक सहज अनायास प्राप्त होनेवाली शान्ति से विचलित  ही नहीं होता।
--                 

Thursday, October 16, 2014

॥श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासात् ... ॥

आज का श्लोक,

अध्याय 12, श्लोक 12,

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
--
(श्रेयः हि ज्ञानम् अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते ।
ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागात् शान्तिः अनन्तरम् ॥)
--
भावार्थ :
किसी विषय का ज्ञान होने पर उसका अभ्यास करना, उसके ज्ञान से रहित अभ्यास किए जाने से श्रेष्ठ है, पुनः केवल (बौद्धिक या सैद्धान्तिक) ज्ञान की अपेक्षा ध्यान (ध्यानपूर्वक चित्त को विषय पर लगाना), अधिक श्रेष्ठ है । किन्तु ध्यान की भी अपेक्षा कर्मफल (से आसक्ति) का त्याग सर्वाधिक श्रेष्ठ है, उस त्याग से तत्काल ही वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है ।
--

उपरोक्त श्लोक का भाव समझने के लिए हम एक उदाहरण के रूप में ’ब्रह्मचर्य’ को देखें  :
ब्रह्मचर्य का अर्थ प्रायः केवल इन्द्रिय-निग्रह के रूप में ग्रहण किया जाता है । और हमें लगता है कि हमें ब्रह्मचर्य क्या है, इस बारे में और जानने की आवश्यकता नहीं है । किन्तु क्या इतना अर्थ ग्रहण कर लेने मात्र से मनुष्य के लिए इन्द्रिय-निग्रह कर पाना आसान हो जाता है?  इतना अर्थ जानने के बाद जब मनुष्य किसी प्रेरणा, कर्तव्य या बाध्यता के कारण इन्द्रिय-निग्रह की आवश्यकता अनुभव भी करता है, तो क्या वह आसानी से ऐसा कर पाता है? जैसा कि इस ग्रन्थ के अध्याय 8 के श्लोक 11 बतलाया गया है,
’जिसकी (प्राप्ति की) इच्छा करते हुए वेदविद, यती तथा वीतराग पुरुष भी ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस पद को मैं सार-रूप में तुम्हारे लिए निरूपित करूँगा ।’
--
अध्याय 8, श्लोक 11,

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
--
(यत्-अक्षरम् वेदविदः वदन्ति
विशन्ति यत्-यतयः वीतरागाः ।
यत्-इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम् चरन्ति
तत्-ते पदम् सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥)
--
भावार्थ :
जिस अव्यय अनश्वर तत्व को वेद के विद्वान ’अक्षर’ कहते हैं,  और जिसकी उपासना में रत आसक्तिरहित हुए महात्मा जिसमें प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ति की आकाँक्षा करते हुए वे ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप से कहूँगा ।
--
तात्पर्य यह कि एक मनुष्य जो ब्रह्मचर्य का अर्थ इन्द्रिय-निग्रह मात्र जानकर उस का ’अभ्यास’ करने के लिए बाध्य है, और दूसरा जिसे ब्रह्मचर्य के आचरण का महत्व अच्छी तरह ज्ञात है, ब्रह्मचर्य का पालन भिन्न-भिन्न उद्देश्य से करते हैं । पहले के लिए इन्द्रिय भोगों के आकर्षण से बचना कठिन होता है, जबकि दूसरे को इन्द्रिय-भोगों की सीमा तथा व्यर्थता का भी ज्ञान है । प्रथम को यह भी नहीं पता कि कब इन्द्रियाँ चित्त को बलपूर्वक भोग की ओर खींचती हैं, और वह उन्हें कैसे रोके, जबकि दूसरे को न केवल यह पता होता है कि इन्द्रियाँ कब और कैसे चित्त को बलपूर्वक भोग के लिए बाध्य करती हैं, बल्कि यह भी कि मन क्यों उनके (इन्द्रियों के) वश में होता है? जैसा कि आगे कहा जा रहा है :
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अध्याय 2, श्लोक 67,
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥
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(इन्द्रियाणाम् हि चरताम् यत् मनः अनु-विधीयते ।
तत् अस्य हरति प्रज्ञाम् वायुः नावम् इव अम्भसि ॥)
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भावार्थ :
इंद्रियों के विषयों में रत होते हुए जो / जिसका मन उनमें संलग्न होता है, उसे उसकी इन्द्रियाँ वैसे ही भोगों में बरबस खींच ले जाती हैं जैसे पानी में (पालदार) नौका को बहती वायु अपनी दिशा में ले जाती है ।
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इसलिए वह मन अर्थात् चित्त को उन (इन्द्रियों) का अनुसरण नहीं करने देता । प्रथम के साथ यह समस्या है कि भोगों के प्रति आकर्षण और भोगों में सुख का आभास होने के कारण उसका मन वैसे ही उन भोगों का चिन्तन करता रहता है, और भोगों की कामना को तृप्त करने के लिए अवसर खोजता रहता है । उसे इसकी कल्पना तक नहीं होती कि भोगों में प्रतीत होनेवाला सुख एक अस्थायी अवस्था होने से वास्तव में दुःख का ही एक प्रकार मात्र है, न कि वास्तविक सुख । फिर भोगों का चित्त पर पड़ा सुखबुद्धि का संस्कार उसे पुनः पुनः भोगों की ओर खींचता रहता है । ऐसा मनुष्य का ध्यान कभी-न कभी उन भोगों से त्रस्त भी होने पर ’इन्द्रिय-निग्रह’ के महत्व की ओर भी जा सकता है, किन्तु चित्त पर पड़े संस्कार उसे यह समझने नहीं देते कि इसे कैसे किया जाए । उसके लिए इन्द्रिय-निग्रह की आवश्यकता इसलिए भर है कि वह भोगों से त्रस्त और व्याकुल हो गया है । उसके लिए ’ब्रह्मचर्य’ शायद एक ’आदर्श’ भी हो सकता है, किन्तु उसमें उसे कोई नई उपलब्धि होने की वैसी आशा या कल्पना तक नहीं है, जैसी कि दूसरे मनुष्य (वेदविद, यती, वीतराग, आदि) को होती है ।
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इस प्रकार ’ब्रह्मचर्य’ का अभ्यास ज्ञानरहित अथवा ज्ञानसहित दो तरीकों से किया जाना संभव है ।
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इसी आधार पर हम ’धर्म’ की भी विवेचना कर सकते हैं  ।
न तो Celibacy शब्द ’ब्रह्मचर्य' के अर्थ का उपयुक्त द्योतक है, न religion धर्म के अर्थ का उपयुक्त द्योतक, और शायद इसीलिए आज के मनुष्य को तथाकथित बुद्धिजीवियों और दार्शनिकों के द्वारा प्रतिपादित भ्रमपूर्ण सिद्धान्तों से कोई सहायता नहीं मिल पा रही है ।
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Wednesday, August 13, 2014

आज का श्लोक, ’विशिष्यते’ / ’viśiṣyate’

आज का श्लोक,
’विशिष्यते’ / ’viśiṣyate’
______________________________

’विशिष्यते’ / ’viśiṣyate’ - अधिक श्रेष्ठ होता है,

अध्याय 3, श्लोक 7,

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मएन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते
--
(यः तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगम् असक्तः सः विशिष्यते ॥)
--
भावार्थ :
भावार्थ :
किन्तु जो मनुष्य मन से इन्द्रियों को वश में रखते हुए समस्त कर्मेन्द्रियों के द्वारा अनासक्ति सहित कर्मयोग का आचरण करता है, वह (पूर्वोक्त श्लोक में वर्णित मनुष्य की अपेक्षा) श्रेष्ठ है ।
--
अध्याय 5, श्लोक 2,

श्रीभगवानुवाच :

सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते
--
(सन्न्यासः कर्मयोगः च निःश्रेयस्करौ उभौ ।
तयोः तु कर्मसन्न्यासात् कर्मयोगः विशिष्यते ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
संन्यास और कर्मयोग दोनों ही निश्चय ही समान रूप से परम कल्याणकारी हैं, किन्तु कर्मसंन्यास की तुलना में कर्मयोग (कुछ भिन्न होने से उससे अपेक्षाकृत) अधिक श्रेष्ठ है ।
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टिप्पणी :
यहाँ पहले यह जान लेना रोचक होगा कि कर्मसंन्यास तथा कर्मयोग में क्या समानता और क्या भेद है । कर्मसंन्यास से यहाँ तात्पर्य है सांसारिक कर्मों से स्वेच्छया  अपने-आपको मुक्त रखते हुए साँख्ययोग का अभ्यास करना । इसके लिए मनुष्य को परिवार और समाज के संबंधों को त्यागना आवश्यक अनुभव हो सकता है । परन्तु चूँकि उन संबंधों की कोई वास्तविक सत्ता नहीं होती वरन् वे स्मृति और प्रमादवश ही सत्य की भाँति ग्रहण कर लिए जाते हैं, और उनकी यह आभासी तथा औपचारिक सत्ता भी स्मृति पर ही अवलंबित होती है, इसलिए स्मृति की सत्यता पर सन्देह न होने तक ऐसा अभ्यास, यह ’कर्मसंन्यास’ अभ्यासमात्र है, एक सीमा तक इसकी अपनी उपयोगिता भी है ही । किन्तु ’कर्मयोग’ इस अर्थ में इस ’कर्मसंन्यास’ से भिन्न है, कि इसमें मनुष्य कर्मों के होने या न होने से प्रभावित नहीं होता, क्योंकि वह जानता है कि कर्म प्रकृति के तीन गुणों का कार्य है, और अपने करने या न करने के आग्रह या विचार से उनके होने या न होने का कोई संबंध नहीं है । और तब वह अपने कर्ता होने की भावना से भी मुक्त रहते हुए शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के कर्म में संलग्न या असंलग्न रहते हुए भी अपने स्वाभाविक ’अकर्ता’ और बोधमात्र होने की सत्यता को जानने लगता है । यद्यपि वह इसे परिभाषित भी न कर सके, किन्तु इससे उसके मन में जो शान्ति व्याप्त होती है, उसे वही जानता और अनुभव करता है । और इसलिए इस दृष्टि से कर्मयोग को कर्मसंन्यास से कुछ अधिक श्रेष्ठ कहा जा सकता है । किन्तु फल (परिणाम) की दृष्टि से दोनों समान ही हैं । अगले श्लोक (6) में इसी तथ्य की पुष्टि देखी जा सकती है । 
--      
अध्याय 6, श्लोक 9, 

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते
--
(सुहृत्-मित्र-अरि-उदासीन-मध्यस्थ-द्वेष्य-बन्धुषु ।
साधुषु अपि च पापेषु समबुद्धिः विशिष्यते ॥)
--
भावार्थ :
*सुहृत् - प्रत्युपकार न चाहते हुए उपकार करनेवाला,
मित्र - स्नेह रखनेवाला,
अरि - शत्रु,
उदासीन - पक्षपातरहित,
मध्यस्थ - जो परस्पर विरोध रखनेवालों दोनों पक्षों का हितैषी हो,
द्वेष्य - अपना अप्रिय,
बन्धुः - संबंधी,
साधु अर्थात् शास्त्र के अनुसार श्रेष्ठ आचरणकरनेवाले,
एवं निषिद्ध कर्म करनेवाले, इन सबमें जो समबुद्धिवाला है, अर्थात्
कौन कैसा है इस बारे में निर्णय नहीं देता, ऐसा योगी योगारूढ पुरुषों में
उत्तम है ।
--
अध्याय 7, श्लोक 17,

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥
--
(तेषम् ज्ञानी नित्ययुक्तः एकभक्तिः विशिष्यते
प्रियः हि ज्ञानिनः अत्यर्थम् अहम् सः च मम प्रियः ॥
--
भावार्थ :
(मुझे भजनेवाले चार प्रकार के उपरोक्त श्लोक (16) में वर्णित भक्तों में से,) 
मुझमें एकनिष्ठ भक्ति रखनेवाला मुझमें नित्य निमग्न ज्ञानी भक्त श्रेष्ठ है, क्योंकि जैसा वह मुझे प्रिय है, मैं भी उसे स्वरूपतः वैसा ही प्रिय हूँ । 
अगले श्लोक (18) में इसे और स्पष्ट किया गया है ।
--
अध्याय 12, श्लोक 12,

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
--
(श्रेयः हि ज्ञानम् अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते
ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागात् शान्तिः अनन्तरम् ॥)
--
भावार्थ :
किसी विषय का ज्ञान होने पर उसका अभ्यास करना, उसके ज्ञान से रहित अभ्यास किए जाने से श्रेष्ठ है, पुनः केवल (बौद्धिक या सैद्धान्तिक) ज्ञान की अपेक्षा ध्यान (ध्यानपूर्वक चित्त को विषय पर लगाना), अधिक श्रेष्ठ है । किन्तु ध्यान की भी अपेक्षा कर्मफल (से आसक्ति) का त्याग सर्वाधिक श्रेष्ठ है, उस त्याग से तत्काल ही वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है । 
-- 
’विशिष्यते’ / ’viśiṣyate’ - is superior in comparison,

Chapter 3, śloka 7,

yastvindriyāṇi manasā 
niyamyārabhate:'rjuna |
karmaendriyaiḥ karmayoga-
masaktaḥ sa viśiṣyate ||
--
(yaḥ tu indriyāṇi manasā 
niyamya ārabhate arjuna |
karmendriyaiḥ karmayogam 
asaktaḥ saḥ viśiṣyate ||)
--
Meaning :
(In comparison and contrast to the last shloka, ...) But one, who without indulging in the senses, with no attachment, by means of mind (wisdom) keeping the senses under control, directs them towards the yoga of action, is superior indeed.  
-- 
Chapter 5, śloka 2,

sannyāsaḥ karmayogaśca 
niḥśreyasakarāvubhau |
tayostu karmasannyāsāt-
karmayogo viśiṣyate ||
--
(sannyāsaḥ karmayogaḥ ca 
niḥśreyaskarau ubhau |
tayoḥ tu karmasannyāsāt 
karmayogaḥ viśiṣyate ||)
--
Meaning :
Though the renunciation of action (karma-sannyās) as such, even without the proper understanding of yoga, and karmayoga, the later is superior to renunciation (without the proper understanding of yoga), for the obvious, - the following reasons*) 
*reasons : Giving up the wrong notion that actions are done by one independently by oneself, and failing to realize that all actions are done by the three attributes guṇa of  prakṛti only) both are equally very helpful in attainment of the Supreme Goal (’mokṣa’),   
--
Chapter 6, śloka 9, 

suhṛnmitrāryudāsīna-
madhyasthadveṣyabandhuṣu |
sādhuṣvapi ca pāpeṣu 
samabuddhirviśiṣyate ||
--
(suhṛt-mitra-ari-udāsīna-
madhyastha-dveṣya-bandhuṣu |
sādhuṣu api ca pāpeṣu 
samabuddhiḥ viśiṣyate ||)
--
Meaning :
One who regards the honest well-wishers, friends, enemies, the neutrals between the mediators, those who try to help reconcile their differences, those who one does not like, the saints and sinners alike, with the same evenness of mind, is a yogi far advanced.
--
Chapter 7, śloka 17,

teṣāṃ jñānī nityayukta 
ekabhaktirviśiṣyate |
priyo hi jñānino:'tyartham-
ahaṃ sa ca mama priyaḥ ||
--
(teṣam jñānī nityayuktaḥ 
ekabhaktiḥ viśiṣyate |
priyaḥ hi jñāninaḥ atyartham 
aham saḥ ca mama priyaḥ ||
--
Meaning :
(Of those for kinds of devotees, as described in the earlier shloka 16,) The jñānī, - the Realized in Me ever abides in Me, because being aware of Me in Essence. He is very dear to Me and I AM to Him, as is Self / Me only.
-- 
Chapter 12, śloka 12,

śreyo hi jñānamabhyāsāj-
jñānāddhyānaṃ viśiṣyate |
dhyānātkarmaphalatyāgas-
tyāgācchāntiranantaram ||
--
(śreyaḥ hi jñānam abhyāsāt 
jñānāt dhyānam viśiṣyate |
dhyānāt karmaphala-tyāgaḥ 
tyāgāt śāntiḥ anantaram ||)
--
Meaning :
(Spiritual) Practice with knowledge is better than practice without knowledge, and attention (dhyāna) and consciousness, meditation and awareness of this consciousness / 'self ' / 'Self' is far better than that (practice). But the renunciation of the fruits of action (karmaphala-tyāga) / freedom from the desire is the best, through which the peace-supreme is attained in no time.  
-- 

Thursday, July 31, 2014

आज का श्लोक, ’शान्तिः’ / ’śāntiḥ’

आज का श्लोक, ’शान्तिः’ / ’śāntiḥ’
___________________________

’शान्तिः’ / ’śāntiḥ’ - शान्ति,

अध्याय 2, श्लोक 66,

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।
-
( न अस्ति बुद्धिः अयुक्तस्य न च अयुक्तस्य भावना ।
न च अभावयतः शान्तिः अशान्तस्य कुतः सुखम् ॥)
--
भावार्थ :
योगरहित मनुष्य में (निश्चयात्मक) बुद्धि नहीं होती, उसकी बुद्धि चञ्चल और अस्थिर, होती है । योगरहित मनुष्य के अन्तःकरण में भावना अर्थात् किसी से भी स्नेह भी नहीं होता । भावना से रहित होने से उसके हृदय में शान्ति (आत्म-सन्तुष्टिरूपी भावना) भी नहीं होती, और अशान्त को भला सुख कैसे अनुभव हो सकता है?
--
अध्याय 12, श्लोक 12,

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
--
(श्रेयः हि ज्ञानम् अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते ।
ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागात् शान्तिः अनन्तरम् ॥)
--
भावार्थ :
किसी विषय का ज्ञान होने पर उसका अभ्यास करना, उसके ज्ञान से रहित अभ्यास किए जाने से श्रेष्ठ है, पुनः केवल (बौद्धिक या सैद्धान्तिक) ज्ञान की अपेक्षा ध्यान (ध्यानपूर्वक चित्त को विषय पर लगाना), अधिक श्रेष्ठ है । किन्तु ध्यान की भी अपेक्षा कर्मफल (से आसक्ति) का त्याग सर्वाधिक श्रेष्ठ है, उस त्याग से तत्काल ही वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है ।
--
अध्याय 16, श्लोक 2,

अहिंसासत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥
--
(अहिंसा सत्यम् अक्रोधः त्यागः शान्तिः अपैशुनम् ।
दया भूतेषु अलोलुप्त्वम् मार्दवम् ह्रीः अचापलम् ॥)
--
भावार्थ :
इस अध्याय के प्रथम श्लोक में दैवी सम्पदाओं का वर्णन किया गया, इसी क्रम में आगे और दूसरे श्लोक में कहा गया, ...
अहिंसा अर्थात् सब भूतों मे उसी एक परमेश्वर को जानकर किसी के प्रति मन वचन कर्म से हिंसा न करना ।
सत्य अर्थात् नित्य वस्तु की पहचान, अक्रोध अर्थात् रोष न होना, त्याग अर्थात् सब परमेश्वर का समझते हुए सांसारिक वस्तुओं पर आधिपत्य की भावना न रखना, शान्ति अर्थात् मन की अचंचलता और धैर्य, अपैशुनम् अर्थात् किसी के प्रति द्वेष / घृणा न रखना, दया अर्थात् करुणा, सबके प्रति संवेदनशीलता, अलोलुपता अर्थात् इन्द्रियों का विषयों से संयोग होने पर प्राप्त होने वाले सुख-दुख से प्रभावित न होना, मार्दवम्  - अर्थात् अर्थात् मृदुता, कठोरता या क्रूरता का विपरीत, ह्री अर्थात् अनैतिक कार्य करने में लज्जा होना, और अचापलम् अर्थात् व्यर्थ चेष्टाओं में संलग्न न होना,  
--

’शान्तिः’ / ’śāntiḥ’ - peace, tranquility,

Chapter 2, śloka 66,

nāsti buddhirayuktasya
na cāyuktasya bhāvanā |
na cābhāvayataḥ śāntir-
aśāntasya kutaḥ sukham |
-
( na asti buddhiḥ ayuktasya
na ca ayuktasya bhāvanā |
na ca abhāvayataḥ śāntiḥ 
aśāntasya kutaḥ sukham ||)
--
Meaning :
One who has no right understanding (yoga, contact / association with the goal) has no inspiration. One who has no inspiration has no peace, and how one with no peace may find happiness?
--
Chapter 12, śloka 12,

śreyo hi jñānamabhyāsāj-
jñānāddhyānaṃ viśiṣyate |
dhyānātkarmaphalatyāgas-
tyāgācchāntiranantaram ||
--
(śreyaḥ hi jñānam abhyāsāt
jñānāt dhyānam viśiṣyate |
dhyānāt karmaphala-tyāgaḥ
tyāgāt śāntiḥ anantaram ||)
--
Meaning :
(Spiritual) Practice with knowledge is better than practice without knowledge, and attention (dhyāna) and consciousness, meditation and awareness of this consciousness / 'self ' / 'Self' is far better than that (practice). But the renunciation of the fruits of action (karmaphalatyāga) / desireless-ness is the best, through which the peace-supreme is attained in no time.
--
Chapter 16, śloka 2,

ahiṃsāsatyamakrodhas-
tyāgaḥ śāntirapaiśunam |
dayā bhūteṣvaloluptvaṃ
mārdavaṃ hrīracāpalam ||
--
(ahiṃsā satyam akrodhaḥ
tyāgaḥ śāntiḥ apaiśunam |
dayā bhūteṣu aloluptvam
mārdavam hrīḥ acāpalam ||)
--
Meaning :
The divine assets / attributes / qualities (daivī sampadā)  that indicate one's progress on the spiritual path have been enumerated in the  śloka  1 of this Chapter 16. The next are as in this  śloka  2 as given below :
compassion   (ahiṃsā),  truth (satyam),  not being overcome by anger  (akrodhaḥ),  renunciation (tyāgaḥ), peaceful temperament  (śāntiḥ),  absence of vilification / hatred / envy (apaiśunam),  generosity, kindness towards all  (dayā  bhūteṣu),   absence of cravings (aloluptvam),  gentleness  (mārdavam),  modesty (hrīḥ),  absence of fickle mindedness (acāpalam)
--

Monday, July 21, 2014

आज का श्लोक, ’श्रेयः’ / ’śreyaḥ’

आज का श्लोक,  ’श्रेयः’ / ’śreyaḥ’
___________________________

’श्रेयः’ / ’śreyaḥ’ - अच्छाई, भलाई, शुभ,

अध्याय 1, श्लोक 31 ,
--
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥
--
(निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयः अनुपश्यामि हत्वा स्वजनम् आहवे ॥)
--
भावार्थ:
हे केशव! वैसे भी मुझे सब लक्षण विपरीत ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में अपने स्वजनों को मारकर मुझे किसी श्रेयस् की प्राप्ति नहीं होगी ।
--
अध्याय 2, श्लोक 5,
--
गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥
--
(गुरून् अहत्वा हि महानुभावान् श्रेयः भोक्तुम् भैक्ष्यम् अपि इह लोके ।
हत्वा अर्थकामान् तु गुरून् इह एव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥)
--
भावार्थ :
धन वैभव और कामनाओं की प्राप्ति के लिए इन श्रेष्ठ गुरुजनों की हत्या करना और फिर इनके रक्त से सने उन भोगों को भोगने की अपेक्षा यही बहुत श्रेयस्कर होगा कि इस लोक में भिक्षा माँगकर अन्न खाया जाए ।
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अध्याय 2, श्लोक 7,
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कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
च्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥७
--
(कार्पण्य-दोष-उपहत-स्वभावः
पृच्छामि त्वाम् धर्मसम्मूढचेताः ।
यत्-श्रेयः स्यात्-निश्चितम् ब्रूहि तत्-मे
शिष्यः ते-अहम् शाधि माम् त्वाम् प्रपन्नम् ॥)
--
भावार्थ :
भावनात्मक दुर्बलता की प्रवृत्ति से अभिभूत हुआ मैं, मेरा धर्म क्या है इस बारे में संशयग्रस्त हो रहा हूँ । इसलिए आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिए जो भी निश्चित ही श्रेयस्कर है उसे मुझसे कहें । मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण हूँ, मुझे शिक्षा दें ।
--
अध्याय  2, श्लोक 31,
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स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
--
(स्वधर्मम्-अपि च-अवेक्ष्य न विकम्पितुम्-अर्हसि ।
धर्म्यात्-हि युद्धात्-श्रेयः अन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥)
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भावार्थ : तुम्हारे अपने निज क्षत्रिय-धर्म की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए भी, तुम्हें भय से व्याकुल नहीं होना चाहिए । क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मानुकूल प्राप्त हुए युद्ध से बढ़कर अधिक श्रेयस्कर दूसरा कोई अवसर नहीं हो सकता ।
--
अध्याय 3, श्लोक 2,

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।
--
(व्यामिश्रेण-इव वाक्येन बुद्धिम् मोहयसि-इव मे ।
तत्-एकम् वद निश्चित्य येन श्रेयः अहम् आप्नुयाम् ॥)
--
भावार्थ :
(अर्जुन बोले): मिले-जुले तात्पर्यवाले जैसे मिश्रित वाक्यों से मुझे ऐसा लगता है कि जैसे आप मेरी बुद्धि को मानों भ्रमित कर रहे हों । इसलिए ऐसा कुछ एक सुनिश्चित कर कहें कि जिससे मुझे श्रेयस्कर की प्राप्ति हो ।
--
अध्याय 3, श्लोक 11,

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥
--
(देवान् भावयत अनेन ते देवाः भावयन्तु वः ।
परस्परम् भावयन्तः श्रेयः परम् अवाप्स्यथ ॥)
--
भावार्थ :
इस (यज्ञ) के द्वारा देवताओं की जागृति करो, और वे देवता तुम्हें वैभव और समृद्धि प्रदान करें, इस प्रकार परस्पर हित करते हुए तुम (सब) श्रेयस्कर की प्राप्ति करोगे ।
--

अध्याय 3, श्लोक 35,
--
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
--
(श्रेयान्-स्वधर्मः विगुणः परधर्मात्-स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनम् श्रेयः परधर्मः भयावहः ॥
--
भावार्थ :
अच्छी प्रकार से  आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से अपने अल्प या विपरीत गुणवाले धर्म का आचरण उत्तम है, क्योंकि जहाँ एक ओर अपने धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाना भी कल्याणप्रद होता है, वहीं दूसरे के धर्म का आचरण भय का ही कारण होता है ।
--
अध्याय 5, श्लोक 1,

अर्जुन उवाच -
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
च्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥
--
(सन्न्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुनः योगम् च शंससि ।
यत्-श्रेयः एतयोः एकम् तत् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्न्यास (त्याग) की बात करते हैं, किन्तु फिर साथ ही योग की भी प्रशंसा कर रहे हैं ।  इन दोनों में से कौन सा एक दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है, इस बारे में मुझसे सुनिश्चित रूप से कहें ।
--
अध्याय 12, श्लोक 12,

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
--
(श्रेयः हि ज्ञानम् अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते ।
ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागात् शान्तिः अनन्तरम् ॥)
--
भावार्थ :
किसी विषय का ज्ञान होने पर उसका अभ्यास करना, उसके ज्ञान से रहित अभ्यास किए जाने से श्रेष्ठ है, पुनः केवल (बौद्धिक या सैद्धान्तिक) ज्ञान की अपेक्षा ध्यान (ध्यानपूर्वक चित्त को विषय पर लगाना), अधिक श्रेष्ठ है । किन्तु ध्यान की भी अपेक्षा कर्मफल (से आसक्ति) का त्याग सर्वाधिक श्रेष्ठ है, उस त्याग से तत्काल ही वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है ।
--
अध्याय 16, श्लोक 22,

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः ।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥
--
(एतैः विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैः त्रिभिः नरः ।
आचरति आत्मनः श्रेयः ततः याति पराम् गतिम् ॥)
--
भावार्थ :
(गत श्लोक 21, में काम, क्रोध तथा लोभ को नरक के तीन द्वार कहा गया, इसी क्रम में आगे, ...)
हे कौन्तेय (अर्जुन)! नरक की ओर जानेवाले इन तीन द्वारों से मुक्त और अपनी आत्मा के कल्याण की दिशा में अग्रसर करनेवाला आचरण जिसका होता है, वह अवश्य ही परम गति को प्राप्त होता है ।
--

’श्रेयः’ / ’śreyaḥ’ - good, prospective,

Chapter 1, śloka  31,

nimittāni ca paśyāmi
viparītāni keśava |
na ca śreyo:'nupaśyāmi
hatvā svajanamāhave ||
--
(nimittāni ca paśyāmi
viparītāni keśava |
na ca śreyaḥ anupaśyāmi
hatvā svajanam āhave ||)
--
Meaning :
I see all the indications contrary to the good, and I can't see how having killed our kith and kin in the war, can we hope for the victory, the ownership of state and the happiness consequent to them.
--
Chapter 2, śloka 5,

gurūnahatvā hi mahānubhāvāñchreyo 
bhoktuṃ bhaikṣyamapīha loke |
hatvārthakāmāṃstu gurūnihaiva
bhuñjīya bhogān rudhirapradigdhān ||
--
(gurūn ahatvā hi mahānubhāvān śreyaḥ  
bhoktuṃ bhaikṣyam api iha loke |
hatvā arthakāmān tu gurūn iha eva
bhuñjīya bhogān rudhirapradigdhān ||)
--
Meaning :
Living in this world on alms, is no doubt far better than to kill those reverred elders, and to enjoy all the riches and wealth, stained with their blood, so acquired.
--
Chapter 2, śloka 7,

kārpaṇyadoṣopahatasvabhāvaḥ
pṛcchāmi tvāṃ dharmasammūḍhacetāḥ |
yacchreyaḥ syānniścitaṃ brūhi tanme
śiṣyaste:'haṃ śādhi māṃ tvāṃ prapannam ||7
--
(kārpaṇya-doṣa-upahata-svabhāvaḥ
pṛcchāmi tvām dharmasammūḍhacetāḥ |
yat-śreyaḥ syāt-niścitam brūhi tat-me
śiṣyaḥ te-aham śādhi mām tvām prapannam ||)
--
Meaning :
Overcome by pity and faint-heartedness, puzzled in the heart about what is the right path of 'dharma' for me, I am asking for your guidance, Please instruct and teach me, I am your disciple, seeking refuge in you.
--
Chapter 2, śloka 31,

svadharmamapi cāvekṣya
na vikampitumarhasi |
dharmyāddhi yuddhācchreyo
:'nyatkṣatriyasya na vidyate ||
--
(svadharmam-api ca-avekṣya
na vikampitum-arhasi |
dharmyāt-hi yuddhāt-śreyaḥ 
anyat kṣatriyasya na vidyate ||)
--
Meaning :
Even if you look from the perspective of your own way of 'dharma', you need not get perturbed. Because, such a war for a noble cause, (that has been imposed upon you) is in perfect harmony with your own path of 'dharma'.
--
Chapter 3, śloka 2,

vyāmiśreṇeva vākyena
buddhiṃ mohayasīva me |
tadekaṃ vada niścitya
yena śreyo:'hamāpnuyām |
--
(vyāmiśreṇa-iva vākyena
buddhim mohayasi-iva me |
tat-ekam vada niścitya
yena śreyaḥ aham āpnuyām ||)
--
Meaning :
(arjuna said) : Your words seem to conflict and confuse my intellect, therefore please advise me in the appropriate words the exact way so that I may achieve what is the highest good for me.
--
Chapter  3, śloka 11,

devānbhāvayatānena
te devā bhāvayantu vaḥ |
parasparaṃ bhāvayantaḥ
śreyaḥ paramavāpsyatha ||
--
(devān bhāvayata anena
te devāḥ bhāvayantu vaḥ |
parasparam bhāvayantaḥ
śreyaḥ param avāpsyatha ||)
--
Meaning :
With the means of this (yajña), propitiate and enrich the Gods and in turn they will give you prosperity, wealth and happiness. In this way helping one-another all you may have the supreme good.
--

Chapter 3, śloka 35,

śreyānsvadharmo viguṇaḥ
paradharmātsvanuṣṭhitāt |
svadharme nidhanaṃ śreyaḥ 
paradharmo bhayāvahaḥ ||
--
(śreyān-svadharmaḥ viguṇaḥ
paradharmāt-svanuṣṭhitāt |
svadharme nidhanaṃ śreyaḥ 
paradharmo bhayāvahaḥ ||
--
Meaning :
Though has not merits, it is far better to follow one's own way of 'dharma', than to follow and act upon the duties of another's 'dharma'. Even the death while pursuing own 'dharma', results in the ultimate good, where-as practicing another's 'dharma' is just horrific.
--      
Chapter 5, śloka 1,

arjuna uvāca -
sannyāsaṃ karmaṇāṃ kṛṣṇa
punaryogaṃ ca śaṃsasi |
yacchreya etayorekaṃ
tanme brūhi suniścitam ||
--
(sannyāsam karmaṇām kṛṣṇa
punaḥ yogam ca śaṃsasi |
yat-śreyaḥ etayoḥ ekam
tat me brūhi suniścitam ||)
--
Meaning :
arjuna said : O  kṛṣṇa!  You speak of  Renunciation (saṃnnyāsa) of action (karma) ), and at the same time You also praise yoga. Please tell me with certainty, which of the two is superior.
--
Note :
In this and following śloka of this Chapter 5, the meaning and essence of Renunciation is explained. The Renunciation could be either at the formal level when one renounces the possession of things, but does not give up the idea that the action happens because of the three attributes (guṇa) of prakṛti  and one is always free and unaffected from all action (karma) and the notion of "I do  / I don't do" are but illusion only, Or at a deeper level of understanding this truth.
--
Chapter 12, śloka 12,

śreyo hi jñānamabhyāsāj-
jñānāddhyānaṃ viśiṣyate |
dhyānātkarmaphalatyāgas-
tyāgācchāntiranantaram ||
--
(śreyaḥ hi jñānam abhyāsāt
jñānāt dhyānam viśiṣyate |
dhyānāt karmaphala-tyāgaḥ
tyāgāt śāntiḥ anantaram ||)
--
Meaning :
(Spiritual) Practice with knowledge is better than practice without knowledge, and attention (dhyāna) and consciousness, meditation and awareness of this consciousness / 'self ' / 'Self' is far better than that (practice). But the renunciation of the fruits of action (karmaphalatyāga) / desireless-ness is the best, through which the peace-supreme is attained in no time.
--
Chapter 16, śloka 22,

etairvimuktaḥ kaunteya
tamodvāraistribhirnaraḥ |
ācaratyātmanaḥ śreyas
tato yāti parāṃ gatim ||
--
(etaiḥ vimuktaḥ kaunteya
tamodvāraiḥ tribhiḥ naraḥ |
ācarati ātmanaḥ śreyaḥ 
tataḥ yāti parām gatim ||)
--
Meaning :
[In the preceding śloka 21, lust / kāma, anger / krodha and greed / lobha have been terned as the three gateways that lead to hell...]
O kaunteya (arjuna)! One who has freed himself from the clutches of these three gates that lead to hell, and makes effort for the ultimate good (śreyas) of the Self, follows the way to The Supreme.
--