...निबन्धायासुरी मता।।
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पुरुषोत्तमयोग नामक अध्याय १५ का उपसंहार निम्न दो श्लोकों से किया गया है :
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।।१९।।
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।।२०।।
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संसारमोक्षाय दैवी प्रकृतिः --
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यास्तपमार्जवम्।।१।।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।।
दयाभूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।२।।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।।
भवन्ति सम्पदं दैवमभिजातस्य भारत।।३।।
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निबन्धायासुरी च राक्षसी --
दम्भो दर्पोऽतिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।४।।
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।५।।
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द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु।।६।।
(अध्याय १६)
किसी भी मनुष्य को अपनी दैवी प्रकृति और आसुरी प्रकृति के अनुसार ही क्रमशः दैवी और आसुरी सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं।
इसी प्रकार दैवी प्रकृति से संपन्न ही किसी मनुष्य की निष्ठा भी दो प्रकारों में से किसी एक ही प्रकार की होती है।
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।
(अध्याय ३)
इसलिए यद्यपि तप, दान, ज्ञान, यज्ञ आदि विभिन्न कर्म क्रमशः सात्त्विक, राजस या तामस होने पर भी, अपनी अपनी दैवी या आसुरी संपदाओं और निष्ठा के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं। एक ही मनुष्य में स्वभाव अर्थात् प्रकृति से ही ज्ञाननिष्ठा अर्थात् साङ्ख्य की ज्ञान-रूपी सहजनिष्ठा अथवा कर्मनिष्ठा -- निष्काम कर्म, भक्ति, ईश्वर-प्रणिधान आदि में से प्रधान रूप से एक ही निष्ठा विद्यमान होती है।
अपनी निष्ठा और अधिकार के अनुसार कोई भी मनुष्य निष्काम कर्मयोग अथवा साङ्ख्य-ज्ञान का अवलंबन लेकर परम श्रेयस् की प्राप्ति कर सकता है।
जिनमें ज्ञाननिष्ठा प्रधान और कर्मनिष्ठा गौण होती है, परमार्थ के ऐसे जिज्ञासुओं की बुद्धि तो ईश्वर, ब्रह्म, तत्त्व,धर्म, सत्य अथवा आत्मा को जानने की प्रवृत्ति से प्रेरित होती है, परन्तु जिनमें यह संकल्प विद्यमान होता है कि मैं कर्ता, भोक्ता, स्वामी और ज्ञाता आदि के रूप में जन्म और मृत्यु के चक्र में फँसा हुआ जीव हूँ, वे भी अनुमान से भी उस परमेश्वर की कल्पना कर सकते हैं जो इस समस्त जगत् का संचालन करता है, और उस कल्पित ईश्वर के स्वरूप का आश्रय लेकर अंततः उसके यथार्थ स्वरूप को भी जानकर उससे तादात्म्य रूपी सायुज्य, सामीप्य, सान्निध्य तथा सारूप्य प्राप्त कर सकते हैं। जिन्हें यह अभ्यास भी कठिन जान पड़ता है, उनके लिए गीता से यह निर्देश प्राप्त होता है :
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।।१०।।
अथैतदप्यशक्त्योऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।११।।
क्योंकि --
श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासात्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।
(अध्याय १२)
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