।। प्रथमोप्रथमः गीतायाम् ।।
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श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का प्रथम और प्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार से है :
धृतराष्ट्र उवाच --
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।।
मामका पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।१।।
इस प्रकार एक ओर तो यह ग्रन्थ धर्म-विषयक है ही, वहीं यह कर्म-विषयक भी है। किन्तु यहाँ क्षेत्र पद का सन्दर्भ और अर्थ प्रसंगवश अध्याय १३ के प्रथम निम्नलिखित श्लोक से भी ग्रहण किया जा सकता है। यह श्लोक इस प्रकार से है --
श्रीभगवानुवाच --
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।१।।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।२।।
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तात्पर्य यह हुआ कि यह शरीर ही क्षेत्र कहलाता है। इस प्रकार से जो जानता है, उस जाननेवाले को तत्त्वविद् क्षेत्रज्ञ कहते हैं। पुनः, सभी क्षेत्रों में अर्थात् शरीरों में विद्यमान जो क्षेत्रज्ञ है उसे भी, हे अर्जुन! तुम मुझे ही जानो।
इस प्रकार से क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ के विषय का जो ज्ञान है, वह ज्ञान ही मेरे मत में वास्तविक ज्ञान है!
यह स्थूल शरीर, पाँच स्थूल महाभूतों का, प्रकृति से बना संयोग है, और यह शरीर, जड प्रकृति (insentient) के नियमों से परिचालित होता है। इस शरीर में विद्यमान प्राण भी इसी प्रकार जड अर्थात् insentient हैं, किन्तु इस शरीर को और शरीर में विद्यमान प्राणों को जाननेवाला, और उन्हें "मेरा" कहनेवाला, इनका ज्ञाता, जड (insentient) कदापि नहीं है, बल्कि कोई चेतन (sentient) तत्व है, जो स्वयं ही स्वयं का द्योतक और प्रमाण भी है। प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में जिस धृतराष्ट्र का उल्लेख है यद्यपि अन्धा है, किन्तु उसकी स्त्री गांधारी अन्धी न होते हुए भी केवल पति की अनुगामिनी होने से अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर अन्धे की तरह रहती है।
राजा धृतराष्ट्र इस प्रकार से हर उस मनुष्य का प्रतीक है जिसमें अभी विवेक जागृत नहीं हुआ है, और जिसकी बुद्धि ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध रखी है।
इस प्रकार जिसके शरीर और इन्द्रियाँ आदि यद्यपि अपने अपने धर्म का अनायास ही पालन करते हैं, शरीर रूपी राष्ट्र का स्वामी धृतराष्ट्र की तरह विवेकशून्य है। उसके एक सौ पुत्र हैं, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा या प्रमुख है। ये एक सौ पुत्र शरीर से संबद्ध मन के ही विभिन्न रूप हैं।
दूसरी ओर, पाण्डवों के रूप में पाँच भाई पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और जीवन में संघर्ष अर्थात् युद्ध में स्थिर, धीर रहनेवाला विवेक ही युधिष्ठिर है। बल भीम, तथा अर्जुन कुशल बुद्धि है। नकुल नेवले की तरह सतर्क, सावधान चपल चतुराई है, और सहदेव इनके साथ रहनेवाला सद्गुण है।
यह संपूर्ण शरीर ही धर्म का क्षेत्र है जबकि समस्त कर्मेन्द्रियाँ कर्मक्षेत्र या कुरुक्षेत्र हैं।
इस प्रकार मनुष्य का मन ही वह धर्मक्षेत्र तथा कुरुक्षेत्र है, जहाँ यह युद्ध सतत चलता रहता है।
मामका पद का प्रयोग धृतराष्ट्र द्वारा अपने पुत्रों के अर्थ में किया गया है। धृतराष्ट्र की तरह हर मनुष्य अपने आप अर्थात् अहंकार को अपने जीवन के विधाता, स्वामी, ज्ञाता और भोक्ता की तरह स्वतंत्र मानते हुए भी सतत संघर्ष और संशय से ग्रस्त है।
पुनः यद्यपि हर मनुष्य अपने आपको इस प्रकार से एक स्वतंत्र व्यक्ति तो मानता है, फिर भी हर कोई भविष्य से अनजान और अनभिज्ञ, आशंकित होता है।
भगवान् श्रीकृष्ण पुनः इस सच्चाई की ओर हमारा ध्यान खींचते हैं कि यद्यपि सभी शरीरों में विद्यमान और उनसे संबद्ध अहंकार क्षेत्रज्ञ की तरह स्वयं को एक अलग और स्वतंत्र व्यक्ति मानता है, उन सभी शरीरों / क्षेत्रों में हे अर्जुन! तुम मुझे, मुझ परमात्मा को ही सबमें विद्यमान सबका अन्तर्यामी जानो।
हे अर्जुन! इस प्रकार का क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ से संबंधित ज्ञान ही मेरे मत में वास्तविक ज्ञान है।
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Bahut sunder... kya aapne in blog posts ko kisi pustak ke roop mein sanchit kar rakha hai?
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