Saturday, June 13, 2015

वर्ण-आधारित आश्रम-धर्म -2

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलस्त्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
(श्रीमद्गगवद्गीता 12/12)
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योग को परिभाषित करने के बजाय योग जिन चार स्तंभों पर स्थापित है, या योग-प्राप्ति के जो चार सोपान हैं, उनका विवरण उक्त श्लोक में अनायास प्राप्त होता है ।
पहला शब्द है ’श्रेय’ अर्थात् शुभ, कल्याणकारी, व्यक्ति और समष्टि सबके लिए .
मनुष्य दो वस्तुओं से परिचित है ’अभ्यास’ और ’ज्ञान’
इनमें से  पहला शब्द, सर्वप्रथम है, - 'अभ्यास' जो या तो होता है, या 'किया' जाता है।
हम किसी 'विश्वास' से युक्त होते ही हैं या फिर किन्हीं बाह्य 'प्रेरणाओं' द्वारा उसे 'किए' जाने के लिए बाध्य होते हैं।  यह बाह्य-प्रेरणाएँ भय, आशा, सुरक्षा की चिंता, या लोभवश या बस हमारी मूढ़ताजनित अंधी स्वीकृति के कारण ही हमें किसी 'विश्वास' या 'विश्वास' पर आधारित अभ्यास से संलग्न कर देती हैं।
दूसरा शब्द है ज्ञान अर्थात् किसी रूप में परिचय होना।  यह इन्द्रिय-संवेदन (sensory perception) के रूप में  या उसके परिणाम से उत्पन्न होनेवाली  'अनुकूल' / 'प्रतिकूल' स्थिति अर्थात् क्रमशः 'सुख' या 'दुःख के रूप में भी हो सकता है।  पुनः यह किसी विचार के रूप में भी हो सकता है जो हमें 'ग्राह्य' / 'अग्राह्य', रुचिकर या अरुचिकर लग सकता है।  इसके बाद यह केवल एक 'निष्कर्ष' भी हो सकता है जो 'स्थायी' अथवा 'अस्थायी' होता है किन्तु हम उसे मोहवश स्थायी समझने का आग्रह भी रख सकते हैं  …
इस रूप 'में 'ज्ञान' भी अभ्यास से प्रभावित होता है और अभ्यास को प्रभावित भी करता है। ज्ञान-रहित अभ्यास के 'श्रेयस्कर' होने की अपेक्षा ज्ञान-सहित अभ्यास के श्रेयस्कर होने की संभावना अधिक है।  पुनः यह ज्ञान स्वयं भी अधूरा, अपरिपक्व, संशययुक्त, दोषपूर्ण या दुराग्रहपूर्ण हो यह भी बिलकुल संभव है।
तीसरा शब्द है 'ध्यान' . ध्यान अर्थात सावधानी / सतर्कता / सचेतनता / विवेक इसलिए वह कसौटी है जो ज्ञान के यथासंभव और अधिकतम शुद्ध पूर्ण होने के लिए एकमात्र युक्ति / उपाय हो सकता है।
इन्द्रियों और मन-बुद्धि 'ध्यान' की क्षमता से रहित होते हैं और यंत्रवत कार्य करते हैं किन्तु यंत्र स्वयं किसी चेतन स्वामी के आधीन रहकर ही उसे श्रेयस्कर हो सकता है।
ध्यान (attention) इसलिए प्रत्यक्षतः कोई क्रिया या कृत्य न होते हुए भी इन्द्रियों और मन-बुद्धि आदि पर नियंत्रण में रखता है, इसलिए यह ज्ञान से भी विशिष्ट / विलक्षण साधन है,  ज्ञान से भी अधिक महत्वपूर्ण है।
प्रायः इस 'ध्यान' का उपयोग इसके चेतन स्वामी द्वारा किसी उद्देश्य या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किए जाने तक सीमित होता है।  और स्वाभाविक ही है कि सम्पूर्ण शक्ति लगाने और सारे प्रयासों के बाद भी उस उद्देश्य  / लक्ष्य कभी हो पाती है तो कभी कभी नहीं भी हो पाती। और जीवन के सुचारु रूप से चलने हेतु जिन न्यूनतम लक्ष्यों को पाया जाना होता है उन्हें अल्प-बुद्धिमान भी प्रायः पा ही लेते हैं।  किन्तु समस्या उन अधिक (?) बुद्धिमानों के लिए है जो उन लक्ष्यों / आदर्शों की प्राप्ति में मन की स्वाभाविक सहज, अनायास प्राप्त शान्ति को खो बैठते हैं, और इसे 'प्रगति' या विकास समझते हैं। अज्ञान से अज्ञान में  गति करते रहना क्या वास्तविक प्रगति है?
उन अति-बुद्धिमानों के लिए यही श्रेयस्कर होगा कि वे इसे समझकर कि 'कर्म' के फल की प्राप्ति का मनुष्य की फल-प्राप्ति के लिए होनेवाली आशा और प्रयास से कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि फल-प्राप्ति कुछ अन्य ऐसे कारणों पर भी आश्रित होती है जो मनुष्य के लिए सदैव अज्ञात होते हैं। इसलिए जो कर्म-फल पर अपना अधिकार न रखते हुए कर्म करता है, वह उस स्वाभाविक सहज अनायास प्राप्त होनेवाली शान्ति से विचलित  ही नहीं होता।
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Thursday, June 11, 2015

वर्ण-आधारित आश्रम-धर्म,


सनातन-धर्म के दो रूप हैं
वर्ण-आधारित आश्रम-धर्म,
तथा वर्ण-निरपेक्ष ’शैव’,’शाक्त’ ’सौर’ ’वैष्णव’ और ’गाणपत्य’ तथा इनसे निकले ’पौराणिक-धर्म’ .
गीता में कहीं यह नहीं कहा गया है कि ’वर्ण-आश्रम-धर्म’ का यह वर्गीकरण ’जाति’-आधारित है । किन्तु ’जाति’ एक प्रारंभिक स्थान तो रखता ही है ।
फ़िर ’वर्ण’ का अर्थ है, मनुष्य जन्म से भले ही किसी भी जाति में पैदा हुआ हो, ’वर्ण’ उसकी ’प्रकृति’ से उसने स्वयं चुना होता है ।
आश्रम प्राणिमात्र को प्राप्त होनेवाली स्वाभाविक ’अवस्था’ है जिसके अनुकूल धर्मोंका पालन करना उसके लिए हितकारी और पालन न करना अहितकारी होता है ।
एक मोटे अनुमान से 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य फ़िर 50 तक गार्हस्थ्य और फ़िर वानप्रस्थ ’आश्रम’ शरीर को प्रकृति से ही प्राप्त हुआ है ।
’स्त्री’ या ’पुरुष’ शरीर भी ’जीव’ को उसके ’संकल्प के ही अनुसार प्राप्त होता है इसलिए उसके अनुसार स्त्रियोचित या पुरुषोचित ’प्रवृत्तियाँ’ उसे ’प्राप्त’ होती हैं । यदि वह उनसे सुसंगति रखते हुए अपना आचरण करे तो उसे कम से कम कष्ट और अधिक से अधिक सुख प्राप्त होगा ।
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जिस व्यक्ति में ’ब्राह्मण’ ’क्षत्रिय’ ’वैश्य’ और ’शूद्र’ आदि के जैसे / जितने संस्कार (गुण तथा कर्म की प्रवृत्ति) होंगे वह ’उतना’ ही ’ब्राह्मण’ ...आदि होगा ।
इसलिए ’जाति’ से ब्राह्णण आदि होना तो एक ’संभावना’ भर होती है ।
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फ़िर गीता के अनुसार ही ’ईश्वर’ की प्राप्ति के लिए ’जाति’ के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता । ’जाति’ सामाजिक संस्था के रूप में उपयोगी है किन्तु उसकी भी मर्यादाएँ तो हैं ही ।
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उचित सन्दर्भ के लिए गीता अध्याय 3, श्लोक 28, 29, 
तथा गीता अध्याय 4, श्लोक 13, अध्याय 9, श्लोक 30, देखिए । 
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इन्हें यहाँ नीचे दिए गए 'लेबल्स'/ 'Label' को click कर भी देख सकेंगे ।