Monday, November 9, 2015

स्पृहा / spṛhā

स्पृहा / spṛhā
क्व धनानि क्व मित्राणि
क्व मे विषयदस्यवः।
क्व शास्त्रं क्व च विज्ञानं
यदा मे गलिता स्पृहा॥
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कोई वास्तव में गंभीर है तो यह अवश्य समझ सकता है कि जो कुछ भी ’होता है’, या ’होता हुआ’ जान पड़ता है वह न तो किसी के ’करने’ से और न ’न-करने’ से होता है, न तो उसके ’चाहने’ से और न ही ’न-चाहने’ से होता है । और न ही तो किसी के रोकने से रुकता है ।
यदि ’स्पृहा’ को समझ लिया जाए तो स्पृहा ’गल’ जाती है ।
विषयों का इन्द्रियों से संयोग होने पर भी कोई विषयों के सेवन / उपभोग से अछूता / अस्पर्शित रह सकता है जब तक कि मन का तादात्म्य न हो, जैसे सोए हुए मनुष्य को निन्दा या स्तुति से फ़र्क़ नहीं पड़ता यद्यपि तेज आवाज से वह जाग सकता है । अर्थात् निद्रा के दौरान भी विषय (आवाज) का इन्द्रिय (कान) से संबंध था, यद्यपि ’मन’ तब उनसे संयुक्त नहीं था । किन्तु जागृति के समय मनुष्य का मन यदि चलायमान (चञ्चल) इन्द्रियों से जुड़ा / संयुक्त हो तो ऐसा मन विषयों में प्रतीत होनेवाले सुख-दुःख से अछूता नहीं रह पाता जब तक कि उसे इन सुखों दुःखों की अनित्यता (आगमापायिन होना) स्पष्ट न हो । इसलिये उन सुखों/दुःखों के ’आभासी’ होने का ज्ञान होने पर ही कोई उनसे तटस्थ रह सकता है । यद्यपि उसके लिए भी एक उत्कट आवेग / आग्रह तो जरूरी होता ही है । इसलिए गीता 2/14 में कहा गया है कि इन सुखों-दुःखों को ’तितिक्षा-पूर्वक’ सहना ही श्रेयस्कर है । गीता अध्याय 2 श्लोक 67 > और फिर चलित हुई इन्द्रियाँ भी मन को ऐसे ही हर लेती हैं जैसे (पालयुक्त) नौका को वायु ।
इस प्रकार से जो मनुष्य समस्त ’कामनाओं / स्पृहाओं का बुद्धिपूर्वक परित्याग कर देता है और अपनी आत्मा में स्थिर रहता है, स्थितप्रज्ञ कहा जाता है (गीता अध्याय 2 श्लोक 55)।
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Saturday, August 15, 2015

ब्रह्मसंहिता / brahmasaṃhitā

ब्रह्मसंहिता /  brahmasaṃhitā
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श्रीमद्भग्वद्गीता 
अध्याय 10, श्लोक 42
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अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥
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शाङ्करभाष्ये -
अथवा > बहुना, एतेन > एवमादिना किं ज्ञातेन तव अर्जुन स्यात् सावशेषेण । अशेषतः त्वम् इमम् उच्यमानम् अर्थं श्रुणु ।विष्टभ्यः > विशेषतः स्तम्भनं दृढं कृत्वा, इदं कृत्स्नं जगद् एकांशेन >एकावयवेन एकपादेन सर्वभूतस्वरूपेण इति एतत्, तथा च मन्त्रवर्णः -’पादोऽस्य विश्वा भूतानि’ (तै.आर. 3/12) इति स्थितः अहम् इति ॥
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http://www.sanskritimagazine.com/indian-religions/hinduism/brahma-samhita-and-multiverse/

śrīmadbhagvadgītā
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Chapter 10 verse /42
athavā bahunaitena kiṃ jñātena tavārjuna |
viṣṭabhyāhamidaṃ kṛtsnamekāṃśena sthito jagat ||
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śāṅkarabhāṣye -
athavā > bahunā, etena > evamādinā kiṃ jñātena tava arjuna syāt sāvaśeṣeṇa | aśeṣataḥ tvam imam ucyamānam arthaṃ śruṇu |viṣṭabhyaḥ > viśeṣataḥ stambhanaṃ dṛḍhaṃ kṛtvā, idaṃ kṛtsnaṃ jagad ekāṃśena >ekāvayavena ekapādena sarvabhūtasvarūpeṇa iti etat, tathā ca mantravarṇaḥ -’pādo:'sya viśvā bhūtāni’ (tai.āra. 3/12) iti sthitaḥ aham iti ||
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Meaning : this manifest is but a quarter part of my Whole being. > ’pādo:'sya viśvā bhūtāni’ (tai.āra. 3/12)

http://geetaasandarbha.blogspot.in/search/label/%E2%80%99%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E2%80%99%20%2F%20%E2%80%99vi%E1%B9%A3%E1%B9%ADabhya%E2%80%99
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Saturday, June 13, 2015

वर्ण-आधारित आश्रम-धर्म -2

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलस्त्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
(श्रीमद्गगवद्गीता 12/12)
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योग को परिभाषित करने के बजाय योग जिन चार स्तंभों पर स्थापित है, या योग-प्राप्ति के जो चार सोपान हैं, उनका विवरण उक्त श्लोक में अनायास प्राप्त होता है ।
पहला शब्द है ’श्रेय’ अर्थात् शुभ, कल्याणकारी, व्यक्ति और समष्टि सबके लिए .
मनुष्य दो वस्तुओं से परिचित है ’अभ्यास’ और ’ज्ञान’
इनमें से  पहला शब्द, सर्वप्रथम है, - 'अभ्यास' जो या तो होता है, या 'किया' जाता है।
हम किसी 'विश्वास' से युक्त होते ही हैं या फिर किन्हीं बाह्य 'प्रेरणाओं' द्वारा उसे 'किए' जाने के लिए बाध्य होते हैं।  यह बाह्य-प्रेरणाएँ भय, आशा, सुरक्षा की चिंता, या लोभवश या बस हमारी मूढ़ताजनित अंधी स्वीकृति के कारण ही हमें किसी 'विश्वास' या 'विश्वास' पर आधारित अभ्यास से संलग्न कर देती हैं।
दूसरा शब्द है ज्ञान अर्थात् किसी रूप में परिचय होना।  यह इन्द्रिय-संवेदन (sensory perception) के रूप में  या उसके परिणाम से उत्पन्न होनेवाली  'अनुकूल' / 'प्रतिकूल' स्थिति अर्थात् क्रमशः 'सुख' या 'दुःख के रूप में भी हो सकता है।  पुनः यह किसी विचार के रूप में भी हो सकता है जो हमें 'ग्राह्य' / 'अग्राह्य', रुचिकर या अरुचिकर लग सकता है।  इसके बाद यह केवल एक 'निष्कर्ष' भी हो सकता है जो 'स्थायी' अथवा 'अस्थायी' होता है किन्तु हम उसे मोहवश स्थायी समझने का आग्रह भी रख सकते हैं  …
इस रूप 'में 'ज्ञान' भी अभ्यास से प्रभावित होता है और अभ्यास को प्रभावित भी करता है। ज्ञान-रहित अभ्यास के 'श्रेयस्कर' होने की अपेक्षा ज्ञान-सहित अभ्यास के श्रेयस्कर होने की संभावना अधिक है।  पुनः यह ज्ञान स्वयं भी अधूरा, अपरिपक्व, संशययुक्त, दोषपूर्ण या दुराग्रहपूर्ण हो यह भी बिलकुल संभव है।
तीसरा शब्द है 'ध्यान' . ध्यान अर्थात सावधानी / सतर्कता / सचेतनता / विवेक इसलिए वह कसौटी है जो ज्ञान के यथासंभव और अधिकतम शुद्ध पूर्ण होने के लिए एकमात्र युक्ति / उपाय हो सकता है।
इन्द्रियों और मन-बुद्धि 'ध्यान' की क्षमता से रहित होते हैं और यंत्रवत कार्य करते हैं किन्तु यंत्र स्वयं किसी चेतन स्वामी के आधीन रहकर ही उसे श्रेयस्कर हो सकता है।
ध्यान (attention) इसलिए प्रत्यक्षतः कोई क्रिया या कृत्य न होते हुए भी इन्द्रियों और मन-बुद्धि आदि पर नियंत्रण में रखता है, इसलिए यह ज्ञान से भी विशिष्ट / विलक्षण साधन है,  ज्ञान से भी अधिक महत्वपूर्ण है।
प्रायः इस 'ध्यान' का उपयोग इसके चेतन स्वामी द्वारा किसी उद्देश्य या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किए जाने तक सीमित होता है।  और स्वाभाविक ही है कि सम्पूर्ण शक्ति लगाने और सारे प्रयासों के बाद भी उस उद्देश्य  / लक्ष्य कभी हो पाती है तो कभी कभी नहीं भी हो पाती। और जीवन के सुचारु रूप से चलने हेतु जिन न्यूनतम लक्ष्यों को पाया जाना होता है उन्हें अल्प-बुद्धिमान भी प्रायः पा ही लेते हैं।  किन्तु समस्या उन अधिक (?) बुद्धिमानों के लिए है जो उन लक्ष्यों / आदर्शों की प्राप्ति में मन की स्वाभाविक सहज, अनायास प्राप्त शान्ति को खो बैठते हैं, और इसे 'प्रगति' या विकास समझते हैं। अज्ञान से अज्ञान में  गति करते रहना क्या वास्तविक प्रगति है?
उन अति-बुद्धिमानों के लिए यही श्रेयस्कर होगा कि वे इसे समझकर कि 'कर्म' के फल की प्राप्ति का मनुष्य की फल-प्राप्ति के लिए होनेवाली आशा और प्रयास से कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि फल-प्राप्ति कुछ अन्य ऐसे कारणों पर भी आश्रित होती है जो मनुष्य के लिए सदैव अज्ञात होते हैं। इसलिए जो कर्म-फल पर अपना अधिकार न रखते हुए कर्म करता है, वह उस स्वाभाविक सहज अनायास प्राप्त होनेवाली शान्ति से विचलित  ही नहीं होता।
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Thursday, June 11, 2015

वर्ण-आधारित आश्रम-धर्म,


सनातन-धर्म के दो रूप हैं
वर्ण-आधारित आश्रम-धर्म,
तथा वर्ण-निरपेक्ष ’शैव’,’शाक्त’ ’सौर’ ’वैष्णव’ और ’गाणपत्य’ तथा इनसे निकले ’पौराणिक-धर्म’ .
गीता में कहीं यह नहीं कहा गया है कि ’वर्ण-आश्रम-धर्म’ का यह वर्गीकरण ’जाति’-आधारित है । किन्तु ’जाति’ एक प्रारंभिक स्थान तो रखता ही है ।
फ़िर ’वर्ण’ का अर्थ है, मनुष्य जन्म से भले ही किसी भी जाति में पैदा हुआ हो, ’वर्ण’ उसकी ’प्रकृति’ से उसने स्वयं चुना होता है ।
आश्रम प्राणिमात्र को प्राप्त होनेवाली स्वाभाविक ’अवस्था’ है जिसके अनुकूल धर्मोंका पालन करना उसके लिए हितकारी और पालन न करना अहितकारी होता है ।
एक मोटे अनुमान से 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य फ़िर 50 तक गार्हस्थ्य और फ़िर वानप्रस्थ ’आश्रम’ शरीर को प्रकृति से ही प्राप्त हुआ है ।
’स्त्री’ या ’पुरुष’ शरीर भी ’जीव’ को उसके ’संकल्प के ही अनुसार प्राप्त होता है इसलिए उसके अनुसार स्त्रियोचित या पुरुषोचित ’प्रवृत्तियाँ’ उसे ’प्राप्त’ होती हैं । यदि वह उनसे सुसंगति रखते हुए अपना आचरण करे तो उसे कम से कम कष्ट और अधिक से अधिक सुख प्राप्त होगा ।
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जिस व्यक्ति में ’ब्राह्मण’ ’क्षत्रिय’ ’वैश्य’ और ’शूद्र’ आदि के जैसे / जितने संस्कार (गुण तथा कर्म की प्रवृत्ति) होंगे वह ’उतना’ ही ’ब्राह्मण’ ...आदि होगा ।
इसलिए ’जाति’ से ब्राह्णण आदि होना तो एक ’संभावना’ भर होती है ।
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फ़िर गीता के अनुसार ही ’ईश्वर’ की प्राप्ति के लिए ’जाति’ के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता । ’जाति’ सामाजिक संस्था के रूप में उपयोगी है किन्तु उसकी भी मर्यादाएँ तो हैं ही ।
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उचित सन्दर्भ के लिए गीता अध्याय 3, श्लोक 28, 29, 
तथा गीता अध्याय 4, श्लोक 13, अध्याय 9, श्लोक 30, देखिए । 
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इन्हें यहाँ नीचे दिए गए 'लेबल्स'/ 'Label' को click कर भी देख सकेंगे । 
  

Tuesday, March 31, 2015

कृष्णं शरणम्

आज की संस्कृत रचना :
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|| कृष्णं शरणम् ||
लोको मोहितो कामेन, कामो तु कृष्णेन सः |
यो कृष्णं शरणम् व्रजति क्षिप्रं कामेन मुच्यते |
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संसार में लोग काम (कामनाओं) से मोहित होकर क्लेश उठाते रहते हैं, जबकि काम भी कृष्ण से मोहित है, इसलिए जो कृष्ण की शरण जाते हैं उन्हें कामनाएं व्यथित नहीं करतीं |
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Sunday, March 1, 2015

'युध्य' / 'yudhya'

'युध्य' / 'yudhya'
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आज का श्लोक  :
'युध्य' / 'yudhya' -युद्ध  करके, करते हुए,
अध्याय 8, श्लोक 7,
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
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(तस्मात् सर्वेषु कालेषु माम् अनुस्मर युध्य च ।
मयि अर्पितमनोबुद्धिः माम् एव एष्यसि न संशयः ॥)
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भावार्थ :
अतएव सभी कालों में, सदा ही मुझको निरन्तर स्मरण करते और युद्ध करते हुए, मुझमें समर्पित मन-बुद्धि होने पर, निश्चय ही तुम मुझको ही प्राप्त होगे ।
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'युध्य' / 'yudhya'  - by means of performing the war,

Chapter 8, śloka 7,

tasmātsarveṣu kāleṣu
māmanusmara yudhya ca |
mayyarpitamanobuddhir-
māmevaiṣyasyasaṃśayam ||
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(tasmāt sarveṣu kāleṣu
mām anusmara yudhya ca |
mayi arpitamanobuddhiḥ
mām eva eṣyasi na saṃśayaḥ ||)
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Meaning :
Therefore dedicating all your mind and intellect, think of Me always and every moment and fight. With your mind and intellect devoted to Me you shall attain Me, there is no doubt about this.
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आज का श्लोक : "युध्यस्व" / "yudhyasva"

आज का श्लोक,
"युध्यस्व" / "yudhyasva"
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"युध्यस्व" / "yudhyasva" - (तुम) युद्ध करो !
अध्याय 2, श्लोक 18,
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥
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(अन्तवन्तः इमे देहाः नित्यस्य उक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनः अप्रमेयस्य तस्मात् युध्यस्व भारत ॥)
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भावार्थ : (तत्वदर्शियों के द्वारा*) इन समस्त देहों को अन्तवान अर्थात् नाशवान, तथा इन देहों को धारण करनेवाली चेतना अर्थात् जीव-भाव की नित्यता, अविनाशिता तथा अप्रमेयता कही जाती है ।  इसलिए हे भारत (अर्जुन) ! तुम युद्ध करो ।
*टिप्पणी :
श्लोक क्रमांक 16 तथा 17 में इस चेतना ’जीव-भाव’ के यथार्थ स्वरूप का वर्णन पहले ही कर दिया है । अध्याय 15 श्लोक 7 में यह भी बतलाया गया है कि यह ’जीव-भाव’ परमात्मा का ही अंश है, और इसलिए नित्य, अविनाशी तथा अप्रमेय है । जीव तथा परमात्मा की भिन्नता या द्वैत भी औपचारिक ही है, न कि वास्तविक ।
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अध्याय 3, श्लोक 30,

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्यध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
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(मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्य-अध्यात्म-चेतसा ।
निराशीः निर्ममः भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥)
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भावार्थ :
समस्त कर्मों को अध्यात्मबुद्धिपूर्वक मुझमें अर्पित करते हुए, आशा से और ममता से रहित होकर, संताप से मुक्त रहते हुए युद्ध करो ।
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अध्याय 11, श्लोक 34,
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द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥
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(द्रोणम् च भीष्मम् च जयद्रथम् च
कर्णम् तथा अन्यान् अपि योधवीरान् ।
मया हतान् त्वम् जहि मा व्यथिष्ठाः
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥)
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भावार्थ :
द्रोण, भीष्म, जयद्रथ,, कर्ण और दूसरे भी ऐसे महायोद्धा मेरे द्वारा पहले से ही मारे जा चुके हैं, तुम इसलिए (निमित्तमात्र बनते हुए) मार डालो, उनसे भयभीत होकर व्यथित मत होओ । तुम युद्ध में अवश्य ही जीतोगे, और शत्रुओं को परास्त करोगे ।
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"युध्यस्व" / "yudhyasva" - fight!
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Chapter 2, śloka 18,

antavanta ime dehā
nityasyoktāḥ śarīriṇaḥ |
anāśino:'prameyasya
tasmādyudhyasva bhāratya ||
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(antavantaḥ ime dehāḥ
nityasya uktāḥ śarīriṇaḥ |
anāśinaḥ aprameyasya
tasmāt yudhyasva bhārata ||)
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Meaning :
(As is seen by the seers and sages*), all these bodies are said as perishable, while the consciousness that supports these bodies (and appears as individual, but when questioned about and inquired into its nature, is found as Indivisible One Whole in all bodies) is Imperishable, Immutable and indescribable. Therefore bhārata (arjuna) ! Don't hesitate and fight this war without conflict.
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Chapter 3, śloka 30,

mayi sarvāṇi karmāṇi
sannyasyadhyātmacetasā |
nirāśīrnirmamo bhūtvā
yudhyasva vigatajvaraḥ ||
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(mayi sarvāṇi karmāṇi
sannyasya-adhyātma-cetasā |
nirāśīḥ nirmamaḥ bhūtvā
yudhyasva vigatajvaraḥ ||)
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Meaning : With the conviction born of the mind aimed at the spiritual, having surrendered all your actions in Me, fight the war without hoping, without attachment, and with the mind free of agony.
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Chapter 11, śloka 34,
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droṇaṃ ca bhīṣmaṃ ca jayadrathaṃ ca
karṇaṃ tathānyānapi yodhavīrān |
mayā hatāṃstvaṃ jahi mā vyathiṣṭhā
yudhyasva jetāsi raṇe sapatnān ||
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(droṇam ca bhīṣmam ca jayadratham ca
karṇam tathā anyān api yodhavīrān |
mayā hatān tvam jahi mā  vyathiṣṭhāḥ
yudhyasva jetāsi raṇe sapatnān ||)
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Meaning :
droṇa, bhīṣma,  jayadratha, and karṇa, and all other such great warriors have been killed by me already. Therefore, don't fear and hesitate, Fight and kill them. You shall conquer these enemies.
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