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Sunday, April 10, 2022

गीता में ध्यान-योग

साङ्ख्य-निष्ठा और कर्म-निष्ठा

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ज्ञान अर्थात् साङ्ख्य-ज्ञान / साङ्ख्य-योग और कर्म-योग यही दो प्रकार की निष्ठाएँ ही श्रीमद्भगवद्गीता ग्रन्थ का प्रधान विषय है। निम्न श्लोक में इसी को सूत्र-रूप में व्यक्त किया गया है :

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।।

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

(अध्याय १२)

यहाँ ज्ञान को साङ्ख्य ज्ञान अथवा बौद्धिक ज्ञान, दोनों के अर्थ में सन्दर्भ के अनुसार ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु ध्यान का संकेत यहाँ महर्षि पतञ्जलि-कृत योगशास्त्र के सन्दर्भ में लिया जाना, अधिक सार्थक तथा समीचीन होगा। क्योंकि किसी भी ध्यान के अभ्यास में ध्याता (अर्थात् विषयी / subject), ध्येय (अर्थात् विषय / object) और दोनों के एक-दूसरे से संबंधित होने में, ध्यान ( -विषय और विषयी का संयोग / attention) भी एक कारक (factor) तो होता ही है। इसीलिए पतञ्जलि महर्षि ने इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय (समाधिपाद) के प्रारंभ में ही योग को परिभाषित करते हुए :

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।

का उल्लेख किया है।

तृतीय अध्याय में :

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।।१।।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।३।।

के पश्चात् धारणा, ध्यान तथा समाधि तीनों के एकत्र होने को संयम कहा है :

त्रयमेकत्र संयमः।।४।।

तज्जयात् प्रज्ञालोकः।।५।।

(उपरोक्त सूत्र ५ को श्रीमद्भगवद्गीता के  श्लोकों 2/54, 2/55, 2/56, 2/57, 2/58, और 2/61 के संदर्भ में ग्रहण किया जाना प्रासंगिक होगा।) 

तस्य भूमिषु विनियोगः।।६।।

इस प्रकार की भूमिका के बाद चित्त की वृत्ति पर होनेवाले तीनों प्रकारों के परिणामों - क्रमशः निरोध-परिणाम, समाधि-परिणाम तथा एकाग्रता-परिणाम के चित्त पर होनेवाले प्रभाव को स्पष्ट किया गया है। इन प्रभावों से ही पुनः चित्त के धर्म, लक्षण और अवस्था परिणामों की व्याख्या की गई है :

एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्था परिणामा व्याख्याताः।।१३।।

उपरोक्त विवरण यहाँ इस संबंध में महत्वपूर्ण है कि जब भक्ति (रूपी कर्म) के माध्यम से इष्ट के स्वरूप की मानसिक प्रतिमा पर ध्यान एकाग्र किया जाता है उस समय भी चित्त पर (जानते हुए या अनजाने ही) उक्त परिणाम होते हैं।

पातञ्जल योगसूत्र में साधनपाद में कहा गया है :

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।

इसी दृष्टा का वर्णन समाधिपाद में :

तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।।३।।

के द्वारा किया गया है। 

सैद्धान्तिक विवेचना की दृष्टि से यह सब उपयोगी है, किन्तु यह फल तो अभ्यास से ही सिद्ध होता है, केवल कठिन और दुरूह शब्दावलि से परिचित होने मात्र से नहीं।

***


Sunday, August 22, 2021

प्रसाद : कामायनी,

हृदय की बात! 

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भरत मुनि के नाट्य-शास्त्र में कुल ३३ भाव हैं,  जिनमें से एक है : निर्वेद ।

यही ३३ (कोटि के) देवता शिव-अथर्वशीर्ष में 'रुद्र' के पर्याय हैं। किन्तु निर्वेद के अतिरिक्त शेष सभी संचारी और व्यभिचारी कहे जाते हैं। यहाँ 'व्यभिचारी' का तात्पर्य 'दुराचारी' नहीं, समय और परिस्थिति के अनुसार वि-अभि-चारी है।

'प्रसाद' की रचना 'कामायनी' पढ़ते समय इस शब्द से कभी मेरा परिचय हुआ था। 

गीता में अध्याय २ में इसका उल्लेख :

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।।५२।।

में पाया जाता है ।

कामायनी के,

"रे मन, तुमुल कोलाहल कलय में मैं हृदय की बात रे!"

इस गीत को आशा भोसले ने गाया भी है ।

यह 

"हृदय की बात"

क्या है? 

यह अपने अस्तित्व का भान और उसकी वह सहज स्फुर्णा है, जिसे 'अहं-स्फुर्णा' कहा जाता है। यद्यपि यह विषय-रहित भान नित्य विशुद्ध होता है, किन्तु बुद्धि भूल से इसे ही किसी विषय पर आरोपित कर 'अहंकार' का रूप ले लेती है। यही बुद्धि इस अहंकार-रूपी मोहकलिल को पार कर लेती है तो निर्वेद नामक स्थिति में होती है। वैसे तो बुद्धि के दो प्रकार स्थिति और गति के रूप में होते हैं, किन्तु बुद्धि की निर्वेद नामक यह अवस्था इन दोनों से विलक्षण है, जहाँ उस प्रज्ञा का उन्मेष होता है, जिसके प्रतिष्ठित हो जाने पर मनुष्य अपनी आत्मा को स्वरूपतः जान लेता है। 

"श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च" के माध्यम से, श्रुतियों और शास्त्रों आदि के द्वारा जिस बुद्धि के चंचल होने का संकेत किया गया है, वही बुद्धि इस प्रकार मोहकलिल को पार कर, अचल समाधि में कैसे दृढ हो जाती है, इसका वर्णन 

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।५३।।

के माध्यम से पुनः, "योग" की प्राप्ति के वर्णन में है। 

इसी योग की प्राप्ति के बाद योगारूढ हुए स्थितप्रज्ञ, समाधिस्थ हुए मुमुक्षु की स्थिति का वर्णन,

क्रमशः श्लोक क्रमांक ५४, ५५, तथा ५६ में है :

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । 

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ।।५४।।

प्रजहाति यदा कामान्सर्वार्थान्पार्थ मनोगतान् ।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।।५५।।

दुःखेष्वनुद्गविग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।५६।। 

इस प्रज्ञा और इसके लक्षणों का वर्णन पुनः

"तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।"

के द्वारा इसी अध्याय के अगले श्लोकों ५७ तथा ५८ में भी प्राप्त होता है :

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।५७।।

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।५८।।

प्रसंगवश, 

योगारूढ मुनि / योगी, तथा आरुरुक्षु मुनि के बारे में गीता के अध्याय ६ के इस श्लोक ३, का उल्लेख करना यहाँ उपयोगी होगा :

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ।।३।।

किन्तु यदि इस सब सन्दर्भ से थोड़ा हटकर यह देखें कि 'प्रसाद' के 'निर्वेद' सर्ग के इस गीत में 'पवन (प्राण) की प्राचीर' और 'चेतना थक सी रही' को जिस प्रकार 'झूलते विश्व-दिन' के परिप्रेक्ष्य में संयोजित किया गया है, तो कहना होगा कि इससे कवि की यह रचना को कालजयी 'हृदय की बात' हो जाती है!

***

उल्लिखित गीत इस प्रकार से है:

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रे मन! 

तुमुल-कोलाहल कलय में,

मैं, हृदय की बात रे! 

विकल होकर, नित्य चंचल,

खोजती जब नींद के पल, 

चेतना थक-सी रही तब, 

मैं, मलय की बात रे! 

चिर-विषाद-विलीन-मन की, 

इस व्यथा के तिमिर-वन की, 

मैं, उषा-सी ज्योति-रेखा, 

कुसुम-विकसित, प्रात रे! 

जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,

चातकी कन को तरसती,

उन्हीं जीवन घाटियों में, 

मैं, सरस बरसात रे! 

पवन की प्राचीर में रुक, 

जला जीवन जी रहा झुक, 

इस सुलगते विश्व-दिन की,

मैं, कुसुम-ऋतु, रात रे!

चिर निराशा, नीरधर से,

प्रतिच्छायित,अश्रु-सर में,

उस स्वरलहरी के, अक्षर सब,

संजीवन-रस बने-घुले,

रे मन! 

***











 


Wednesday, August 7, 2019

अनुत्तमम्, अनुत्तमाम्, अनुद्विग्नमनाः

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अनुत्तमम् 7/24,
अनुत्तमाम् 7/18,
अनुद्विग्नमनाः 2/56,
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Tuesday, September 2, 2014

आज का श्लोक, ’विगतस्पृहः’ / ’विगतस्पृहः’

आज का श्लोक, ’विगतस्पृहः’ / ’विगतस्पृहः’
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’विगतस्पृहः’ / ’विगतस्पृहः’ - भोगों से अलिप्त,

अध्याय 2, श्लोक 56,

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥
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दुःखेषु अनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीः मुनिः उच्यते ॥)
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भावार्थ :
दुःखों के बीच अनुद्विग्न चित्त वाला, तथा सुखों के समय उनसे अलिप्त, जिसके राग भय तथा क्रोध शेष नहीं रह गए, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 49,
 
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ॥
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(असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
आसक्ति-बुद्धि से सर्वत्र और सर्वथा रहित, मन-बुद्धि तथा इन्द्रियों को वश में रखनेवाला, स्पृहारहित ऐसा मनुष्य साँख्ययोग के व्यवहार से परम नैष्कर्म्य-सिद्धि को प्राप्त होता है ।
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’विगतस्पृहः’ / ’विगतस्पृहः’ - not indulging in, not associated with,

Chapter 2, śloka 56,

duḥkheṣvanudvignamanāḥ
sukheṣu vigataspṛhaḥ |
vītarāgabhayakrodhaḥ
sthitadhīrmunirucyate ||
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duḥkheṣu anudvignamanāḥ
sukheṣu vigataspṛhaḥ |
vītarāgabhayakrodhaḥ
sthitadhīḥ muniḥ ucyate ||)
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Meaning :
Unmoved while in the sorrows, not involved while with the pleasures, One who has transcended attachment, fear and anger, such a  seeker (muni) is said to be of steady wisdom.
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Chapter 18,  śloka 49,
 
asaktabuddhiḥ sarvatra
jitātmā vigataspṛhaḥ |
naiṣkarmyasiddhiṃ paramāṃ
sannyāsenādhigacchati ||
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(asaktabuddhiḥ sarvatra
jitātmā vigataspṛhaḥ |
naiṣkarmyasiddhiṃ paramāṃ
sannyāsenādhigacchati ||)
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Meaning :
With no attachment nor craving for anything, a man with control over his body, senses and mind, by means of the right understanding and practice of 'sāṃkhyaysoga', attains the great state of freedom from all action (naiṣkarmyasiddhiḥ)
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Note :
"naiṣkarmyasiddhiḥ" means,
Getting rid of the false idea (illusion), the primal-ignorance:
 '' I do various actions, and enjoy / suffer / experience the consequences their-of."
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Sunday, March 30, 2014

आज का श्लोक, ’सुखेषु’ / 'sukheShu'

आज का श्लोक, ’सुखेषु’ / 'sukheShu'
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’सुखेषु’ / 'sukheShu'

अध्याय 2, श्लोक 56,
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दुःखेष्वनुद्विग्नमना सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥
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(दुःखेषु अनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्प्हः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीः मुनिः उच्यते ॥)
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दुःख जिसके मन को उद्विग्न नहीं करते और सुख जिसके मन में (सुख की) लालसाएँ उत्पन्न नहीं करते, जो राग अर्थात् लिप्तता से, भय और क्रोध से ऊपर उठ चुका है, ऐसे मनुष्य को स्थितधी मुनि कहा जाता है ।
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’सुखेषु’ / 'sukheShu'

 Chapter 2, shloka 56,
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duHkheShvanudvignaH
sukheShu vigataspRhaH |
vIta-rAga-bhaya-krodhaH
sthitadhIrmuniruchyate ||
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Meaning :
One who is not perturbed by the miseries, one who craves not for the pleasures when in happiness, who is free from attachment, fear and anger, is called a sage of steady mind.
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Tuesday, March 11, 2014

आज का श्लोक, ’स्थितधीः’ / 'sthitadhIH'

आज का श्लोक ’स्थितधीः’ / 'sthitadhIH'
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’स्थितधीः’ / 'sthitadhIH' -  स्थितप्रज्ञ, - जिसकी बुद्धि आत्मा में ठहर चुकी होती है,
अध्याय 2, श्लोक 54,
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अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥
--
(स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किम्-आसीत व्रजेत किम् ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे केशव! जिस मनुष्य की बुद्धि आत्मा में ठहर चुकी होती है, ऐसे समाधिस्थ की भाषा कैसी होती है? स्थितधी क्या कहता-बोलता है, कैसे उठता-बैठता, लोगों से और अपने जीवन में कैसे व्यवहार करता है?
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अध्याय 2, श्लोक 56,
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दुःखेष्वनुद्विग्नमना सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥
--
(दुःखेषु अनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्प्हः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीः मुनिः उच्यते ॥)
--
दुःख जिसके मन को उद्विग्न नहीं करते और सुख जिसके मन में (सुख की) लालसाएँ उत्पन्न नहीं करते, जो राग अर्थात् लिप्तता से, भय और क्रोध से ऊपर उठ चुका है, ऐसे मनुष्य को स्थितधी मुनि कहा जाता है ।
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’स्थितधीः’ / 'sthitadhIH' - One of steady, unwavering mind,
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Chapter 2, shloka 54,
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arjuna uvAcha -
sthitaprajnasya kA bhAShA
samAdhisthasya keshava |
sthitadhIH kiM prabhASheta
kimAsIta vrajeta kiM ||
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Meaning :
arjuna said :
Keshava (shrikRShNa) ! How a 'sthitaprajna', - the One whose mind has acquired the understanding of the Reality, and deviates not from the same, speaks, talks, moves about and behaves in general? What signs are there that indicate such a man ?
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Chapter 2, shloka 56,
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duHkheShvanudvignaH
sukheShu vigataspRhaH |
vIta-rAga-bhaya-krodhaH
sthitadhIrmuniruchyate ||
--
Meaning :
One who is not perturbed by the miseries, one who craves not for the pleasures, when in happiness, who is free from attachment, fear and anger, is called a sahe of steady mind.  
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