नैव किञ्चित्करोमीति
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।।८।।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।९।।
दो श्लोकों में अभिव्यक्त इन पंक्तियों को क्या एक ही श्लोक में अभिव्यक्त किया जाना विचारणीय नहीं होगा?
क्योंकि दोनों को संयुक्त रूप में देखने पर उनके पृथक् रूप में प्रतीत होने वाला उनका आंशिक तात्पर्य एकमेव और पूर्ण जान पड़ता है। और यह भी सत्य है कि दोनों को एक दूसरे से अलग देखने पर दोनों ही अधूरे जान पड़ते हैं।
जैसे इसे अपनी रुचि और सुविधा के लिए निम्नलिखित प्रकार से भी सुनिश्चित किया जा सकता है -
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।
मुझे प्रायः इसे इसी रूप में स्मरण रखना प्रिय है।
प्रसंगवश यहाँ उल्लेखनीय है कि श्रीमद्भागवद्महापुराण के आधार पर श्री मध्वाचार्य संप्रदाय श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १३ में इस ग्रन्थ के मूलपाठ में प्रथम श्लोक को संशोधित कर एक अन्य श्लोक प्रक्षेपित किया गया है, जिसके आधार पर इस अध्याय में एक श्लोक बढ़ गया है, जिसे श्रीधर स्वामी के श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य में भी पाया जा सकता है।
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