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Friday, February 3, 2023

सिद्धानां कपिलो मुनिः

सिद्धिगीता : श्रीमद्भगवद्गीतायाम्

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2/48,

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।४८।।

(अध्याय २)

3/4,

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।।

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।४।।

(अध्याय३)

4/12,

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता।।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।१२।।

4/22,

यदृच्छा लाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।।

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।२२।।

(अध्याय४)

7/3,

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।३।।

(अध्याय ७)

10/26,

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।। 

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।२६।।

(अध्याय १०)

11/36,

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या

जगत्हृष्यत्यनुरज्यते च।।

रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति

सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः।।३६।।

(अध्याय ११)

12/10,

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।।१०।।

(अध्याय १२)

14/1,

परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।।

यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः।।१।।

(अध्याय १४)

16/14,

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।।

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी।।१४।।

16/23,

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।२३।।

(अध्याय १६)

18/13,

 पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।।

साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१३।।

18/26,

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।।

सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।२६।।

18/45,

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।४५।।

18/46,

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।४६।।

18/50,

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।।

समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।५०।।

(अध्याय १८)

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पातञ्जल योगसूत्र :

समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्।।४५।।

(साधनपाद)

जन्मौषधिमन्त्रतपः समाधिजा सिद्धयः।।१।।

(कैवल्यपाद)

सत्त्वपुरुषयोरत्यन्तसंकीर्णयोः प्रत्ययाविशेषाद् भोगः परार्थत्वादन्यस्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानम्।।३६।।

ततः प्रातिभश्रवणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते।।३७।।

ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः।।३८।।

(विभूतिपाद)

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इति भारद्वाजेन शास्त्रिणा विनयेन संकलिता :

श्रीमद्भगवद्गीतायाम्

।। सिद्धिगीता ।।

।।श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।

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Thursday, August 29, 2019

आप्नोति, आब्रह्मभुवनात्

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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आप्नोति 4/21, 5/12, 18/47, 18/50,
आब्रह्मभुवनात् 8/16,
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Saturday, July 5, 2014

आज का श्लोक, ’समासेन’ / ’samāsena’

आज का श्लोक,  ’समासेन’ /  ’samāsena’ 
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 ’समासेन’ /  ’samāsena’ - सारगर्भित रूप में, सारतः,

अध्याय 13, श्लोक 3,

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥
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(तत् क्षेत्रम् यत् च यादृक् च यत् विकारी यतः च यत् ।
सः च यः यत्-प्रभावः च तत् समासेन मे श्रुणु ॥)
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भावार्थ :
वह क्षेत्र (जिसे इस अध्याय के प्रथम क्षेत्र में ’शरीर’ कहा गया है) जो कुछ है, और जैसा (उसका स्वरूप और वास्तविकता) है, वह जिसका विकार है, और जिसके, जिस (कारण) से इस विकाररूपी इस क्षेत्र (के रूप) में परिणत हुआ है, वह जो और जैसे प्रभाववाला है, उसका साररूप में  वर्णन मुझसे सुनो ।
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अध्याय 13, श्लोक 6,

इच्छाद्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रंसमासेन सविकारमुदाहृतम् ।
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(इच्छा द्वेषः सुखम् दुःखम् सङ्घातः चेतना धृतिः ।
एतत् क्षेत्रम् समासेन सविकारम्-उदाहृतम् ॥)
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भावार्थ :
इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, पञ्चतत्त्वों के सङ्घात (संयुक्त होने) से निर्मित देह, चेतना, तथा धृति, इन सब को सम्मिलित रूप से, इन विकारों सहित संक्षेपतः ’क्षेत्र’ कहा जाता है ।

टिप्पणी : साँख्य-दर्शन के अनुसार, पुरुष ही एकमात्र चेतन, अविकारी तत्व है, जबकि प्रकृति नित्य विकारशील, नाम-रूप के साथ परिवर्तन से युक्त जड तत्व है ।
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अध्याय 18, श्लोक 50,
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सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥
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(सिद्धिम् प्राप्तः यथा ब्रह्म तथा आप्नोति निबोध मे ।
समासेन एव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥)
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हे कौन्तेय, जो नैष्कर्म्यसिद्धि ज्ञानयोग की परा निष्ठा है, उसके माध्यम से मनुष्य जिस रीति से ब्रह्म को प्राप्त होता है उसे मुझसे सुनो ।
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’समासेन’ /  ’samāsena’ - in summary,

Chapter 13, śloka 3,

tatkṣetraṃ yacca yādṛkca yadvikāri yataśca yat |
sa ca yo yatprabhāvaśca tatsamāsena me śṛṇu ||
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(tat kṣetram yat ca yādṛk ca yat vikārī yataḥ ca yat |
saḥ ca yaḥ yat-prabhāvaḥ ca tat samāsena me śruṇu ||)
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Meaning : Now listen from Me in short about; What is the form and nature of that dwelling place where the 'Self' lives / abides in, what kind is that place in essence and how, why and to what extent it transforms / mutates, and what affects and causes this transformation.
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Chapter 13, śloka 6,

icchādveṣaḥ sukhaṃ duḥkhaṃ
saṅghātaścetanā dhṛtiḥ |
etatkṣetraṃsamāsena
savikāramudāhṛtam |
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(icchā dveṣaḥ sukham duḥkham
saṅghātaḥ cetanā dhṛtiḥ |
etat kṣetram samāsena 
savikāram-udāhṛtam ||)
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Meaning :
Desire, repulsion, joy, sorrow, the gross body as the composite of 5 elements, consciousness, and just or unjust conviction, In brief, these all together are named 'kṣetra' / the field (where-in all activities take place).
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Note :
According to sāṅkhya, the puruṣa is the only conscious (cetana), immutable underlying principle (Subjective Reality, Brahman) of the Whole Existence. In comparison prakṛti is the insentient objective Reality that keeps undergoing change all the time. So prakṛti is said to be vikārī, vikāraśīla, -subject to mutation, while  puruṣa is ever avikārī principle, - ever unaffected by change.
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Chapter18, śloka  50,

siddhiṃ prāpto yathā brahma
tathāpnoti nibodha me |
samāsenaiva kaunteya
niṣṭhā jñānasya yā parā ||
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(siddhim prāptaḥ yathā brahma
tathā āpnoti nibodha me |
samāsena eva kaunteya
niṣṭhā jñānasya yā parā ||)
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Meaning :
O kaunteya, (arjuna)! Now listen from Me with due attention, - how one, who has attained conviction, abides in the 'Self' / 'Brahman'. How one realizes That, Which is the Wisdom transcendental.
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Monday, April 7, 2014

आज का श्लोक, ’सिद्धिम्’ / 'siddhiM',

आज का श्लोक, ’सिद्धिम्’ / 'siddhiM',
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’सिद्धिम्’ / 'siddhiM', - कर्तृत्व की भावना के नाश-रूपी, साँख्य-निष्ठा रूपी सिद्धि,

अध्याय 3, श्लोक 4,

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥
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(न कर्मणाम् अनारम्भात्-नैष्कर्म्यम् पुरुषः अश्नुते ।
न च सन्न्यसनात् एव सिद्धिं समधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
कर्मों का प्रारम्भ ही न करने (के निश्चय) से मनुष्य को निष्कर्म की अवस्था* नहीं प्राप्त हो जाती है । और न ही, कर्मों का संकल्पपूर्वक त्याग कर देने से उसे (कर्तृत्व की भावना के नाशरूपी साँख्य-निष्ठा रूपी) सिद्धि * मिल जाती है ।  
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*टिप्पणी :
मनुष्य जब तक अपने स्वरूप से अनभिज्ञ होता है तब तक वह अपने आप के स्वतन्त्र कर्ता होने के भ्रम से ग्रस्त रहता है । और तब यह आवश्यक होता है कि जिस वस्तु को ’मैं’ कहा जाता है, और जिसे ’मेरा’ कहा जाता है, उन दोनों के स्वरूप के अन्तर को और उनके यथार्थ तत्व को ठीक से खोजकर जान और समझ लिया जाए । जिसे ’मैं’ कहा जाता है वह निर्विवाद और अकाट्य रूप से (एक अथवा अनेक की कोटि से विलक्षण स्वरूप की) चेतन-सत्ता है, जबकि जिसे ’मेरा’ कहा जाता है, वह निर्विवाद और अकाट्य रूप से (एक और अनेक में प्रतीत होनेवाली कोई) जड वस्तु । चेतन ही जड को प्रमाणित और प्रकाशित करता है । जब इस प्रकार से ’मैं’ को उसके शुद्ध स्वरूप में ठीक से समझ लिया जाता है तो स्पष्ट हो जाता है कि वह नित्य ’अकर्ता’ है । और यह स्पष्ट हो जाने के बाद उसके लिए ’कर्म’ करना असंभव हो जाता है । इसे समझ लेनेवाला मनुष्य व्यावहारिक रूप से भले ही ’मैं’ शब्द का प्रचलित अर्थ में प्रयोग करे (या न करे) उसके कर्म तथा अपने आपके स्वतन्त्र कर्ता होने के भ्रम अवश्य ही समाप्त हो जाते हैं । किन्तु तब वह अपने आपके कोई विशिष्ट देह या व्यक्ति-विशेष की तरह होने की मान्यता से भी मुक्त हो जाता है । ऐसी साँख्य-निष्ठा को प्राप्त हुआ मनुष्य ’सिद्ध’ कहा जाता है ।
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अध्याय 4, श्लोक 12,
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
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(काङ्क्षन्तः कर्मणाम् सिद्धिम् यजन्ते इह देवताः ।
क्षिप्रम् हि मानुषे लोके सिद्धिः भवति कर्मजा ॥)
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भावार्थ :
इस लोक में विभिन्न देवताओं का पूजन करनेवाले, कर्मों के माध्यम से उनसे किसी फल-विशेष की प्राप्ति की कामना रखते हैं । और तब, इस मनुष्य-लोक में उस कर्म से उत्पन्न वह फल-विशेष उन्हें शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है ।
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टिप्पणी : इस श्लोक का संबंध पिछले श्लोक से है, :
ये यथा माम् प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
(अध्याय 4,श्लोक 11)
जो जिस भावना से प्रेरित होकर मेरी ओर आकृष्ट होते हैं मैं उन्हें उसी भावना के अनुरूप प्रत्युत्तर देता हूँ, क्योंकि हे पार्थ! मनुष्य किसी भी मार्ग पर जाए, उसका वह मार्ग मेरी ओर आनेवाले मार्ग पर ही आ मिलता है ।
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अध्याय 12, श्लोक 10,
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अभ्यासेऽपिसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।
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(अभ्यासे अपि असमर्थः असि मत्-कर्मपरमः भव ।
मदर्थम् अपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिम् अवाप्स्यसि ॥
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भावार्थ :
यदि तुम (इस अध्याय में वर्णित श्लोक 8 के अनुसार) अभ्यास करने में भी अपने-आप को असमर्थ अनुभव करते हो, तो केवल मेरे निमित्त कर्म में रत हो रहो । मेरे निमित्त किए जानेवाले कर्मों का निर्वाह करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त हो जाओगे ।
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अध्याय 14, श्लोक 1,
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श्रीभगवान् उवाच -
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥
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(परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानाम् ज्ञानम् उत्तमम् ।
यत् ज्ञात्वा मुनयः सर्वे पराम् सिद्धिम् इतः गताः ॥)
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भावार्थ :
श्रीभगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
पुनः (मैं) तुमसे उस ज्ञान को कहूँगा, जो (समस्त दूसरे) ज्ञानों में भी अति उत्तम है, जिसको जानकर, सब मुनिजन इस संसार से मुक्ति पाकर परम सिओद्धि को प्राप्त हो गए हैं ।
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अध्याय 16, श्लोक 23,

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥
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(यः शास्त्रविधिम्-उत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिम्-अवाप्नोति न सुखम् न पराम् गतिम् ॥)
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भावार्थ :
जो मनुष्य शास्त्रसम्मत (वेदविहित) तरीके को त्यागकर अपनी इच्छा से प्रेरित हुआ मनमाना आचरण करता है उसे ध्येय-प्राप्ति नहीं होती, उसे न ही सुख प्राप्त होता है और न परम गति ।
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अध्याय 18, श्लोक 45,

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
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(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिम् यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
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भावार्थ :
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कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है ।
अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए  उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, उसे सुनो ।
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(टिप्पणी - ’कर्म’ एक व्यापक तात्पर्ययुक्त पद है । मनुष्य अपने संस्कारों से प्रेरित हुआ कर्म-विशेष में प्रवृत्त होता है, वहीं दूसरी ओर कर्म जिसे वह करता है, वे भी उसके अज्ञानग्रस्त या ज्ञानयुक्त होने के अनुसार उसमें / उस पर अपने संस्कार छोड़ जाते हैं । यह है कर्म का दुष्चक्र । अज्ञानी के कर्म, इस दुष्चक्र-रूपी बंधन को दॄढ करते हैं, जबकि ज्ञानी के कर्म उसे नहीं बाँधते, और सिर्फ़ भोग-हेतु होते हैं जिन्हें वह ’प्रारब्धवश’ ही करता है । वे उसमें नए संस्कार नहीं उत्पन्न करते, और पुराने संस्कारों को भी क्षीण कर देते हैं । जब मनुष्य अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार अपने विशिष्ट कर्म का सम्यक्-रूपेण आचरण करता है तो उसे ज्ञान-निष्ठा की प्राप्ति होती है ।
यहाँ यह समझना आसान है कि मनुष्य किसी विशिष्ट कुल या वातावरण में ही क्यों जन्म लेता है । अपने पूर्व-जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर ही ऐसा करने हेतु वह बाध्य होता है । इसलिए इसमें ’वर्ण’ की अंशतः अपनी एक विशिष्ट भूमिका होने से इंकार नहीं किया जा सकता । और ज्ञान-निष्ठा तथा जीवन में ही ज्ञान-निष्ठा के माध्यम से मुक्ति पाने का अवसर मनुष्य-मात्र को है । वैदिक ’वर्ण-व्यवस्था’ की यदि इस आधार पर विवेचना की जाए तो हम समझ सकते हैं कि वेद किसी प्रकार का कोई आग्रह नहीं रखते और न विभिन्न वर्णों के बीच उच्च-नीच का भेद रखते हैं । वेद तो ’वर्ण-व्यवस्था’ को न माननेवालों या विरोधियों को भी उनके ’अपने धर्म’ पर आचरण करने का सुझाव देते हैं -
’श्रेयान्धर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ...गीता 3/35)
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अध्याय  18, श्लोक  46,

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यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
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(यतः प्रवृत्तिः भूतानाम् येन सर्वम् इदं ततम् ।
स्वकर्मणा तम्-अभ्यर्च्य सिद्धिम् विन्दति मानवः ॥)
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भावार्थ :
जिस मूल तत्व से समस्त प्राणियों में प्रवृत्ति-विशेष का उद्भव होता है, (और जैसे बर्फ़ जल से व्याप्त होता है,)  जिससे यह सब-कुछ व्याप्त है, अपने-अपने विशिष्ट स्वाभाविक कर्म (के आचरण) से उसकी आराधना करते हुए मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 50,
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सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥
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(सिद्धिम् प्राप्तः यथा ब्रह्म तथा आप्नोति निबोध मे ।
समासेन एव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥)
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हे कौन्तेय, जो नैष्कर्म्यसिद्धि ज्ञानयोग की परा निष्ठा है, उसके माध्यम से मनुष्य जिस रीति से ब्रह्म को प्राप्त होता है उसे मुझसे सुनो ।
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’सिद्धिम्’ / 'siddhiM', - Understanding the difference between the 'I' / one-self, as a notion and as a Reality. And the consequent attainment of the conviction, that is 'sAnkhya-niShThA', firm abidance in this Reality / 'Self'.
Chapter 3, shloka 4,na karmaNAmanArambhAn-
naiShkarmyaM puruSho'shnute |
na cha sannyasanAdeva
siddhiM samadhigachchhati ||
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Just by (determination of) not starting the actions (karma), one is not freed of the karma, and merely running away from (performing) them, one does not attain the conviction that the consciousness, by the very nature itself is ever free from all action.
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Chapter 4, shloka 12,
kAnMkShantaH karmaNAM siddhiM
yajanta iha devatA |
kShipraM hi mAnuShe loke
siddhrbhavati karmajA ||
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Meaning :
Desiring quick success, people in this world, get engaged in actions. They worship many different Gods, praying for success, and they sure succeed and get their desires fulfilled as the consequence of those actions.
Note : Though they are not aware that through those various Gods, I AM the One, Who grants them success*
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(*This shloka is to be read with the earlier one, 11 of this chapter 4, :
ye yathA mAM prapadyante
tAnstathaiva bhajAmyahaM |
mama vartmAnuvartante
manuShyAH pArtha sarvashaH

Meaning :
Who-soever comes to ME by what-so-ever path of his choice, with what-so-ever goal or attitude in his mind, I always respond to him accordingly. And by whatever path may one follow, he comes to Me only because all paths lead to and merge in ME.)
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Chapter 12, shloka 10,
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abhyAse'pyasamartho'si
matkarmaparamo bhava |
madarthamapi karmANi
kurvansiddhiMavApsyasi |
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Meaning :
If you find yourself unable to pursue the practice (of yoga as described in shloka 8 of this chapter 12) then work for Me alone, (and dedicating all your actions, duties, responsibilities and performance to Me). By doing so also you will attain perfection.
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Chapter 14, shloka 1,
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shrI bhagavAn uvAcha :

paraM bhUyaH pravakShyAmi
jnAnAnAM jnAnamuttamaM |
yajjnAtvA munayaH sarve
parAM siddhiM ito gatAH ||
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Lord shrikRShNa said :
Meaning : I shall again tell you the knowledge superior to all (other) knowledges, which has helped the seers (elevated seekers) to cross over the ocean of saMsAra (repeated births and rebirths) and attain the supreme state of perfection.
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Chapter 16, shloka 23,
yaH shAstravidhimutsRjya
vartate kAmakArataH |
na sa siddhiMavApnoti
na sukhaM na parA gatiM ||
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Meaning :
One who ignores scriptural injuctions and acts motivated by desire, does not attain perfection, nor happiness and the goal of the supreme spiritual goal.
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Chapter 18, shloka 45,
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swe swe karmaNyabhirataH
saMsiddhiM labhate naraH |
swakarmanirataH siddhiM
yathA vindati tachchhruNu ||
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When devoted to the ordained duties as advised / instructed by his own 'dharma', one attains the Supreme Goal , perfection. Now listen to, how one attains this, while performing his own duties in the right way,
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Chapter 18, shloka 46,
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yataH pravRttirbhUtAnAM
yena sarvamidaM tataM |
swakarmaNA tamabhyarchya
siddhiM vindati mAnavaH ||
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Performing honestly and devotedly all the duties allotted to one, and worshiping in this way The One Supreme, Who is present in all beings, and Who is the Source, from where all the tendencies arise in the heart (of all beings), one attains perfection in one-self.
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Chapter18, shloka 50,
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siddhiM prApto yathA brahma
tathApnoti nibodha me |
samAsenaiva kaunteya
niShThA jnAnasya yA parA ||
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Meaning :
O kaunteya, (arjuna)! Now listen from Me with due attention, - how one, who has attained conviction, abides in the 'Self' / 'Brahman'. How one realizes That Which is the Wisdom transcendental.
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