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Saturday, August 31, 2019

इच्छन्तः, इच्छसि, इच्छा

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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इच्छन्तः 8/11,
इच्छसि 11/7, 18/60, 18/63,
इच्छा 13/6,
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Tuesday, July 30, 2019

अक्षरसमुद्भवम्, अक्षरम्

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अक्षरसमुद्भवम् 3/15,
अक्षरम् 8/3, 8/11, 10/25, 11/18, 11/37, 12/1, 12/3,
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Thursday, October 16, 2014

॥श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासात् ... ॥

आज का श्लोक,

अध्याय 12, श्लोक 12,

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
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(श्रेयः हि ज्ञानम् अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते ।
ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागात् शान्तिः अनन्तरम् ॥)
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भावार्थ :
किसी विषय का ज्ञान होने पर उसका अभ्यास करना, उसके ज्ञान से रहित अभ्यास किए जाने से श्रेष्ठ है, पुनः केवल (बौद्धिक या सैद्धान्तिक) ज्ञान की अपेक्षा ध्यान (ध्यानपूर्वक चित्त को विषय पर लगाना), अधिक श्रेष्ठ है । किन्तु ध्यान की भी अपेक्षा कर्मफल (से आसक्ति) का त्याग सर्वाधिक श्रेष्ठ है, उस त्याग से तत्काल ही वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है ।
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उपरोक्त श्लोक का भाव समझने के लिए हम एक उदाहरण के रूप में ’ब्रह्मचर्य’ को देखें  :
ब्रह्मचर्य का अर्थ प्रायः केवल इन्द्रिय-निग्रह के रूप में ग्रहण किया जाता है । और हमें लगता है कि हमें ब्रह्मचर्य क्या है, इस बारे में और जानने की आवश्यकता नहीं है । किन्तु क्या इतना अर्थ ग्रहण कर लेने मात्र से मनुष्य के लिए इन्द्रिय-निग्रह कर पाना आसान हो जाता है?  इतना अर्थ जानने के बाद जब मनुष्य किसी प्रेरणा, कर्तव्य या बाध्यता के कारण इन्द्रिय-निग्रह की आवश्यकता अनुभव भी करता है, तो क्या वह आसानी से ऐसा कर पाता है? जैसा कि इस ग्रन्थ के अध्याय 8 के श्लोक 11 बतलाया गया है,
’जिसकी (प्राप्ति की) इच्छा करते हुए वेदविद, यती तथा वीतराग पुरुष भी ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस पद को मैं सार-रूप में तुम्हारे लिए निरूपित करूँगा ।’
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अध्याय 8, श्लोक 11,

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
--
(यत्-अक्षरम् वेदविदः वदन्ति
विशन्ति यत्-यतयः वीतरागाः ।
यत्-इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम् चरन्ति
तत्-ते पदम् सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥)
--
भावार्थ :
जिस अव्यय अनश्वर तत्व को वेद के विद्वान ’अक्षर’ कहते हैं,  और जिसकी उपासना में रत आसक्तिरहित हुए महात्मा जिसमें प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ति की आकाँक्षा करते हुए वे ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप से कहूँगा ।
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तात्पर्य यह कि एक मनुष्य जो ब्रह्मचर्य का अर्थ इन्द्रिय-निग्रह मात्र जानकर उस का ’अभ्यास’ करने के लिए बाध्य है, और दूसरा जिसे ब्रह्मचर्य के आचरण का महत्व अच्छी तरह ज्ञात है, ब्रह्मचर्य का पालन भिन्न-भिन्न उद्देश्य से करते हैं । पहले के लिए इन्द्रिय भोगों के आकर्षण से बचना कठिन होता है, जबकि दूसरे को इन्द्रिय-भोगों की सीमा तथा व्यर्थता का भी ज्ञान है । प्रथम को यह भी नहीं पता कि कब इन्द्रियाँ चित्त को बलपूर्वक भोग की ओर खींचती हैं, और वह उन्हें कैसे रोके, जबकि दूसरे को न केवल यह पता होता है कि इन्द्रियाँ कब और कैसे चित्त को बलपूर्वक भोग के लिए बाध्य करती हैं, बल्कि यह भी कि मन क्यों उनके (इन्द्रियों के) वश में होता है? जैसा कि आगे कहा जा रहा है :
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अध्याय 2, श्लोक 67,
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥
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(इन्द्रियाणाम् हि चरताम् यत् मनः अनु-विधीयते ।
तत् अस्य हरति प्रज्ञाम् वायुः नावम् इव अम्भसि ॥)
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भावार्थ :
इंद्रियों के विषयों में रत होते हुए जो / जिसका मन उनमें संलग्न होता है, उसे उसकी इन्द्रियाँ वैसे ही भोगों में बरबस खींच ले जाती हैं जैसे पानी में (पालदार) नौका को बहती वायु अपनी दिशा में ले जाती है ।
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इसलिए वह मन अर्थात् चित्त को उन (इन्द्रियों) का अनुसरण नहीं करने देता । प्रथम के साथ यह समस्या है कि भोगों के प्रति आकर्षण और भोगों में सुख का आभास होने के कारण उसका मन वैसे ही उन भोगों का चिन्तन करता रहता है, और भोगों की कामना को तृप्त करने के लिए अवसर खोजता रहता है । उसे इसकी कल्पना तक नहीं होती कि भोगों में प्रतीत होनेवाला सुख एक अस्थायी अवस्था होने से वास्तव में दुःख का ही एक प्रकार मात्र है, न कि वास्तविक सुख । फिर भोगों का चित्त पर पड़ा सुखबुद्धि का संस्कार उसे पुनः पुनः भोगों की ओर खींचता रहता है । ऐसा मनुष्य का ध्यान कभी-न कभी उन भोगों से त्रस्त भी होने पर ’इन्द्रिय-निग्रह’ के महत्व की ओर भी जा सकता है, किन्तु चित्त पर पड़े संस्कार उसे यह समझने नहीं देते कि इसे कैसे किया जाए । उसके लिए इन्द्रिय-निग्रह की आवश्यकता इसलिए भर है कि वह भोगों से त्रस्त और व्याकुल हो गया है । उसके लिए ’ब्रह्मचर्य’ शायद एक ’आदर्श’ भी हो सकता है, किन्तु उसमें उसे कोई नई उपलब्धि होने की वैसी आशा या कल्पना तक नहीं है, जैसी कि दूसरे मनुष्य (वेदविद, यती, वीतराग, आदि) को होती है ।
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इस प्रकार ’ब्रह्मचर्य’ का अभ्यास ज्ञानरहित अथवा ज्ञानसहित दो तरीकों से किया जाना संभव है ।
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इसी आधार पर हम ’धर्म’ की भी विवेचना कर सकते हैं  ।
न तो Celibacy शब्द ’ब्रह्मचर्य' के अर्थ का उपयुक्त द्योतक है, न religion धर्म के अर्थ का उपयुक्त द्योतक, और शायद इसीलिए आज के मनुष्य को तथाकथित बुद्धिजीवियों और दार्शनिकों के द्वारा प्रतिपादित भ्रमपूर्ण सिद्धान्तों से कोई सहायता नहीं मिल पा रही है ।
--
   
   
       

Saturday, September 6, 2014

आज का श्लोक, ’वदन्ति’ / ’vadanti’

आज का श्लोक, ’वदन्ति’ / ’vadanti’
___________________________

’वदन्ति’ / ’vadanti’  - (वे) कहते हैं,

अध्याय 8, श्लोक 11,

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति 
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
--
(यत्-अक्षरम् वेदविदः वदन्ति
विशन्ति यत्-यतयः वीतरागाः ।
यत्-इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम् चरन्ति
तत्-ते पदम् सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
--
भावार्थ :
जिस अव्यय अनश्वर तत्व को वेदके विद्वान ’अक्षर’ कहते हैं,  और उसकी उपासना में रत आसक्तिरहित हुए महात्मा जिसमें प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ति की आकाँक्षा करते हुए वे ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप से कहूँगा ।
--
’वदन्ति’ / ’vadanti’  - (they) say, express in words,
 
Chapter 8, śloka 11,

yadakṣaraṃ vedavido vadanti 
viśanti yadyatayo vītarāgāḥ |
yadicchanto brahmacaryaṃ caranti
tatte padaṃ saṅgraheṇa pravakṣye ||
--
(yat-akṣaram vedavidaḥ vadanti
viśanti yat-yatayaḥ vītarāgāḥ |
yat-icchantaḥ brahmacaryam caranti 
tat-te padam saṅgraheṇa pravakṣye ||)
--
Meaning :
The Principle Imperishable, That is termed as 'akṣara', by those who know Veda,
Where ultimately enter the seekers striving for perfection, 
Cherishing the attainment of That (Brahman), 
Which they observe through  the discipline of brahmacarya,  
(restrain of body, mind, thought and actions)
I will tell you in brief, the essence of That (Brahman).
-- 
 

Thursday, August 14, 2014

आज का श्लोक, ’विशन्ति’ / ’viśanti’

आज का श्लोक, ’विशन्ति’ / ’viśanti’
____________________________

’विशन्ति’ / ’viśanti’ - प्रवेश करते हैं, निमज्जित होते हैं, लीन होते हैं,

अध्याय 8, श्लोक 11,

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
--
(यत्-अक्षरम् वेदविदः वदन्ति
विशन्ति यत्-यतयः वीतरागाः ।
यत्-इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम् चरन्ति
तत्-ते पदम् सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
--
भावार्थ :
जिस अव्यय अनश्वर तत्व को वेदके विद्वान ’अक्षर’ कहते हैं,  और उसकी उपासना में रत आसक्तिरहित हुए महात्मा जिसमें प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ति की आकाँक्षा करते हुए वे ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप से कहूँगा ।
--
टिप्पणी :
लक्ष्यार्थ और वाच्यार्थ दोनों दृष्टियों  से ’अक्षर’ और ’पद’ इन दो शब्दों के दो अभिप्रायों के तत्वतः एकत्व को इस श्लोक में अनायास देखा जा सकता है ।
अजहत्-जहत्-लक्षणा का यह एक ऐसा उदाहरण है जो व्याकरण और सिद्धान्त के मनन दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है ।
--

अध्याय 9, श्लोक 21,

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति
एवं            त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते ॥
--
(ते तम्  भुक्त्वा स्वर्गलोकम् विशालम्
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति
एवं            त्रयीधर्मम् अनुप्रपन्नाः
गतागतम्  कामकामाः लभन्ते ॥
--
भावार्थ :
वे कामोपभोगों की इच्छा रखनेवाले, मृत्युलोक और स्वर्ग नरक आदि लोकों में आवागमन करते रहने-वाले, तीनों वेदों में वर्णित सकाम कर्मों का आश्रय लेनेवाले, मृत्यु होने पर विशाल स्वर्गलोक में जाने के बाद वहाँ अपने पुण्यों अर्थात् स्वर्गलोक (के भोगों) को भोगकर, पुण्यों के क्षीण होने पर पुनः मृत्युलोक में लौट जाते हैं ।
--

अध्याय 11, श्लोक 21,

अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति
केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥
--
(अमी हि त्वां सुरसङ्घाः  विशन्ति
केचित् भीताः प्राञ्जलयः गृणन्ति ।
स्वस्ति इति उक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥)
--
भावार्थ :
वे ही देव-समूह आपमें प्रवेश करते हैं / लीन हो जाते हैं, उनमें से अनेक भयभीत होकर हाथों को जोड़कर अपकी कीर्ति का वर्णन करते हैं, हमारा कल्याण हो, ऐसा निवेदन करते हुए महर्षियों और सिद्धों के समुदाय भी अनेक स्तुतियों के माध्यम से आपका स्तवन करते हैं ।
--

अध्याय 11, श्लोक 27,

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति 
दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु
सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः ॥
--
(वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति
दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
केचित्-विलग्नाः दशनान्तरेषु
संदृश्यन्ते चूर्णितैः उत्तमाङ्गैः ॥)
--
भावार्थ :
वे आपके विकराल दाढ़ों वाले भयानक मुखों में तेजी से प्रविष्ट  हो रहे हैं । कई तो उनके चूर्ण होते सिरों सहित, आपके दाँतों के बीच में पड़े दिखलाई दे रहे हैं ।
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अध्याय 11, श्लोक 28,

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः
समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति ।
तथा तवामी नरलोकवीरा
विशन्ति वक्ताण्यभिज्वलन्ति ॥
--
(यथा नदीनाम् बहवः अम्बुवेगाः
समुद्रम् एव अभिमुखाः द्रवन्ति ।
तथा तव अमी नरलोकवीराः
विशन्ति वक्त्राणि अभिज्वलन्ति ॥
--
भावार्थ : जैसे नदियों के अनेक जल-प्रवाह अनायास ही समुद्र की दिशा में ही दौड़ते हैं, वैसे ही वे मनुष्यलोक के वीर भी आपके मुखों में प्रवेश कर रहे हैं ।
--
टिप्पणी :
मनुष्यलोक के वे वीर, जो क्षात्रधर्म का निर्वाह करते हुए युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त कर लेते हैं, उनकी वैयक्तिक चेतना ईश्वरीय (श्रीकृष्ण)-चेतना में लीन हो जाती है ।
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अध्याय 11, श्लोक 29,

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा
विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।
तथैव विशन्ति           लोका-
स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥
--
(यथा प्रदीप्तम् ज्वलनम् पतङ्गाः
विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।
तथा एव नाशाय विशन्ति लोकाः
तव अपि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥)
--
भावार्थ :
नाशोन्मुख पतंगे जैसे प्रदीप्त अग्नि में तीव्र वेग से प्रविष्ट होते हैं उसी प्रकार से सारे लोक भी आपके मुखों में अपने नाश के लिए प्रविष्ट हो रहे हैं ।
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’विशन्ति’ / ’viśanti’  - enter, become one with, abide into,

Chapter 8, śloka 11,

yadakṣaraṃ vedavido vadanti
viśanti yadyatayo vītarāgāḥ |
yadicchanto brahmacaryaṃ caranti
tatte padaṃ saṅgraheṇa pravakṣye ||
--
(yat-akṣaram vedavidaḥ vadanti
viśanti yat-yatayaḥ vītarāgāḥ |
yat-icchantaḥ brahmacaryam caranti
tat-te padam saṅgraheṇa pravakṣye ||)
--
Meaning :
The Principle Imperishable, That is termed as 'akṣara', by those who know Veda,
Where ultimately enter the seekers striving for perfection,
Cherishing the attainment of That (Brahman), Which they observe through  the discipline of brahmacarya,
(restrain of body, mind, thought and actions)
I will tell you in brief, the essence of That (Brahman).
--

Chapter 9, śloka 21,

te taṃ bhuktvā svargalokaṃ viśālaṃ
kṣīṇe puṇye martyalokaṃ viśanti |
evaṃ            trayīdharmamanuprapannā
gatāgataṃ kāmakāmā labhante ||
--
(te tam  bhuktvā svargalokam viśālam
kṣīṇe puṇye martyalokaṃ viśanti |
evaṃ            trayīdharmam anuprapannāḥ
gatāgatam  kāmakāmāḥ labhante ||
--
Meaning :
Those who prompted by the desires of enjoying pleasures perform various sacrifices, accordingly as is instructed in the 3 vedas, do go to heaven and enjoy those pleasures there, as the fruits of the merits of such sacrifices. But when their fruits of such merits are exhausted, they fall to the world of mortals again and again. --

Chapter 11, śloka 21,

amī hi tvāṃ surasaṅghā viśanti
kecidbhītāḥ prāñjalayo gṛṇanti |
svastītyuktvā maharṣi siddhasaṅghāḥ
stuvanti tvāṃ stutibhiḥ puṣkalābhiḥ ||
--
(amī hi tvāṃ surasaṅghāḥ  viśanti
kecit bhītāḥ prāñjalayaḥ gṛṇanti |
svasti iti uktvā maharṣi siddhasaṅghāḥ
stuvanti tvāṃ stutibhiḥ puṣkalābhiḥ ||)
--
Meaning :
Those very Gods together in many groups are entering into you / seeking shelter in Your Being, A few of them are though fearful, with folded hands singing praises to you, 'May all be well to all', 'Save us please', praying so, the Great sages and their lot are offering hymns to You with great reverence.
--
Chapter 11, śloka 27,

vaktrāṇi te tvaramāṇā viśanti 
daṃṣṭrākarālāni bhayānakāni |
kecidvilagnā daśanāntareṣu
sandṛśyante cūrṇitairuttamāṅgaiḥ ||
--
(vaktrāṇi te tvāmāṇā viśanti
daṃṣṭrākarālāni bhayānakāni |
kecit-vilagnāḥ daśanāntareṣu
saṃdṛśyante cūrṇitaiḥ uttamāṅgaiḥ ||)
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Meaning :
Rapidly entering your ferocious mouths, where they are seen with their heads crushed by your sharp fierce teeth, while some  clinging in between the teeth.
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Chapter 11, śloka 28,

yathā nadīnāṃ bahavo:'mbuvegāḥ
samudramevābhimukhā dravanti |
tathā tavāmī naralokavīrā
viśanti vaktāṇyabhijvalanti ||
--
(yathā nadīnām bahavaḥ ambuvegāḥ
samudram eva abhimukhāḥ dravanti |
tathā tava amī naralokavīrāḥ
viśanti vaktrāṇi abhijvalanti ||
--
Meaning :
The individual consciousness (personal identity with a name and form) of those valiant warriors who lay down their lives while carrying out their legitimate duties (kṣātradharma) at the battle field, merges into Your own Divine Consciousness O Lord!, just like the waters flowing in the various rivers are attracted by and run forcibly towards the ocean.
--

Chapter 11, śloka 29,

yathā pradīptaṃ jvalanaṃ pataṅgā
viśanti nāśāya samṛddhavegāḥ |
tathaiva          viśanti         lokā-
stavāpi vaktrāṇi samṛddhavegāḥ ||
--
(yathā pradīptam jvalanam pataṅgāḥ
viśanti nāśāya samṛddhavegāḥ |
tathā eva nāśāya viśanti lokāḥ
tava api vaktrāṇi samṛddhavegāḥ ||)
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Meaning : Attracted to their own destruction, these people are entering your mouths with fast speed, exactly like the moths entering a blazing fire.
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Saturday, August 9, 2014

आज का श्लोक, ’वीतरागाः’ / ’vītarāgāḥ’

आज का श्लोक,  ’वीतरागाः’ / ’vītarāgāḥ’
______________________________

वीतरागाः’ / ’vītarāgāḥ’ - आसक्ति से ऊपर उठ चुके,

अध्याय 8, श्लोक 11,

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
--
(यत्-अक्षरम् वेदविदः वदन्ति
विशन्ति यत्-यतयः वीतरागाः
यत्-इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम् चरन्ति
तत्-ते पदम् सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
--
भावार्थ :
जिस अव्यय अनश्वर तत्व को वेदके विद्वान ’अक्षर’ कहते हैं,  और उसकी उपासना में रत आसक्तिरहित हुए महात्मा जिसमें प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ति की आकाँक्षा करते हुए वे ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप से कहूँगा ।
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वीतरागाः’ / ’vītarāgāḥ’ - those who have transcended attachment,
Chapter 8, śloka 11,
yadakṣaraṃ vedavido vadanti 
viśanti yadyatayo vītarāgāḥ |
yadicchanto brahmacaryaṃ caranti
tatte padaṃ saṅgraheṇa pravakṣye ||
--
(yat-akṣaram vedavidaḥ vadanti
viśanti yat-yatayaḥ vītarāgāḥ |
yat-icchantaḥ brahmacaryam caranti 
tat-te padam saṅgraheṇa pravakṣye ||)
--
Meaning :
The Principle Imperishable, That is termed as 'akṣara', by those who know Veda,
Where ultimately enter the seekers striving for perfection, 
Cherishing the attainment of That (Brahman), Which they observe through  the discipline of brahmacarya,  
(restrain of body, mind, thought and actions)
I will tell you in brief, the essence of That (Brahman) .
-- 

Thursday, August 7, 2014

आज का श्लोक, ’वेदविदः ’ / ’vedavidaḥ’

आज का श्लोक,
’वेदविदः ’ / ’vedavidaḥ’
____________________

’वेदविदः ’ / ’vedavidaḥ’ - वेदों के विद्वान, ब्रह्मविद्, 
 
अध्याय 8, श्लोक 11,

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति 
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
--
(यत्-अक्षरम् वेदविदः वदन्ति
विशन्ति यत्-यतयः वीतरागाः ।
यत्-इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम् चरन्ति 
तत्-ते पदम् सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
--
भावार्थ :
जिस अव्यय अनश्वर तत्व को वेदके विद्वान ’अक्षर’ कहते हैं,  और उसकी उपासना में रत आसक्तिरहित हुए महात्मा जिसमें प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ति की आकाँक्षा करते हुए वे ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप से कहूँगा । 
--
टिप्पणी :
लक्ष्यार्थ और वाच्यार्थ दोनों दृष्टियों  से ’अक्षर’ और ’पद’ इन दो शब्दों के दो अभिप्रायों के तत्वतः एकत्व को इस श्लोक में अनायास देखा जा सकता है ।
अजहत्-जहत्-लक्षणा का यह एक ऐसा उदाहरण है जो व्याकरण और सिद्धान्त के मनन दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है ।
-- 

’वेदविदः ’ / ’vedavidaḥ’- those who know veda, those who know 'Brahman'.

Chapter 8, śloka 11,

yadakṣaraṃ vedavido vadanti 
viśanti yadyatayo vītarāgāḥ |
yadicchanto brahmacaryaṃ caranti
tatte padaṃ saṅgraheṇa pravakṣye ||
--
(yat-akṣaram vedavidaḥ vadanti
viśanti yat-yatayaḥ vītarāgāḥ |
yat-icchantaḥ brahmacaryam caranti 
tat-te padam saṅgraheṇa pravakṣye ||)
--
Meaning :
The Principle Imperishable, That is termed as 'akṣara', by those who know Veda,
Where ultimately enter the seekers striving for perfection, 
Cherishing the attainment of That (Brahman), Which they observe through  the discipline of brahmacarya,  
(restrain of body, mind, thought and actions)
I will tell you in brief, the essence of That.
-- 
 

Sunday, June 8, 2014

आज का श्लोक, ’सङ्ग्रहेण’ / ’saṅgraheṇa’

आज का श्लोक,  ’सङ्ग्रहेण’ /  ’saṅgraheṇa’ 
___________________________________

’सङ्ग्रहेण’ /  ’saṅgraheṇa’ - संक्षेप में, सारगर्भित रूप में,

अध्याय 8, श्लोक 11,

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
--
(यत्-अक्षरम् वेदविदः वदन्ति
विशन्ति यत्-यतयः वीतरागाः ।
यत्-इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम् चरन्ति
तत्-ते पदम् सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
--
भावार्थ :
जिस अव्यय अनश्वर तत्व को वेदके विद्वान ’अक्षर’ कहते हैं,  और उसकी उपासना में रत आसक्तिरहित हुए महात्मा जिसमें प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ति की आकाँक्षा करते हुए वे ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप से कहूँगा ।
--
टिप्पणी :
लक्ष्यार्थ और वाच्यार्थ दोनों दृष्टियों  से ’अक्षर’ और ’पद’ इन दो शब्दों के दो अभिप्रायों के तत्वतः एकत्व को इस श्लोक में अनायास देखा जा सकता है । अजहत्-जहत्-लक्षणा का यह एक ऐसा उदाहरण है जो व्याकरण और सिद्धान्त के मनन दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है ।
--
’सङ्ग्रहेण’ /  ’saṅgraheṇa’  - Essence in nutshell, in brief,

Chapter , śloka 11,

yadakṣaraṃ vedavido vadanti
viśanti yadyatayo vītarāgāḥ |
yadicchanto brahmacaryaṃ caranti
tatte padaṃ saṅgraheṇa pravakṣye ||
--
(yat-akṣaram vedavidaḥ vadanti
viśanti yat-yatayaḥ vītarāgāḥ |
yat-icchantaḥ brahmacaryam caranti
tat-te padam saṅgraheṇa pravakṣye ||)
--
Meaning :
The Principle Imperishable That is termed as 'akṣara', by those who know Veda,
Where ultimately enter the seekers striving for perfection,
Cherishing the attainment of Which, they observe the discipline of brahmacarya,
(restrain of body, mind, thought and actions)
I will tell you in brief, the essence of That.
--
 
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