Thursday, October 16, 2014

॥श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासात् ... ॥

आज का श्लोक,

अध्याय 12, श्लोक 12,

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
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(श्रेयः हि ज्ञानम् अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते ।
ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागात् शान्तिः अनन्तरम् ॥)
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भावार्थ :
किसी विषय का ज्ञान होने पर उसका अभ्यास करना, उसके ज्ञान से रहित अभ्यास किए जाने से श्रेष्ठ है, पुनः केवल (बौद्धिक या सैद्धान्तिक) ज्ञान की अपेक्षा ध्यान (ध्यानपूर्वक चित्त को विषय पर लगाना), अधिक श्रेष्ठ है । किन्तु ध्यान की भी अपेक्षा कर्मफल (से आसक्ति) का त्याग सर्वाधिक श्रेष्ठ है, उस त्याग से तत्काल ही वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है ।
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उपरोक्त श्लोक का भाव समझने के लिए हम एक उदाहरण के रूप में ’ब्रह्मचर्य’ को देखें  :
ब्रह्मचर्य का अर्थ प्रायः केवल इन्द्रिय-निग्रह के रूप में ग्रहण किया जाता है । और हमें लगता है कि हमें ब्रह्मचर्य क्या है, इस बारे में और जानने की आवश्यकता नहीं है । किन्तु क्या इतना अर्थ ग्रहण कर लेने मात्र से मनुष्य के लिए इन्द्रिय-निग्रह कर पाना आसान हो जाता है?  इतना अर्थ जानने के बाद जब मनुष्य किसी प्रेरणा, कर्तव्य या बाध्यता के कारण इन्द्रिय-निग्रह की आवश्यकता अनुभव भी करता है, तो क्या वह आसानी से ऐसा कर पाता है? जैसा कि इस ग्रन्थ के अध्याय 8 के श्लोक 11 बतलाया गया है,
’जिसकी (प्राप्ति की) इच्छा करते हुए वेदविद, यती तथा वीतराग पुरुष भी ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस पद को मैं सार-रूप में तुम्हारे लिए निरूपित करूँगा ।’
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अध्याय 8, श्लोक 11,

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
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(यत्-अक्षरम् वेदविदः वदन्ति
विशन्ति यत्-यतयः वीतरागाः ।
यत्-इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम् चरन्ति
तत्-ते पदम् सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥)
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भावार्थ :
जिस अव्यय अनश्वर तत्व को वेद के विद्वान ’अक्षर’ कहते हैं,  और जिसकी उपासना में रत आसक्तिरहित हुए महात्मा जिसमें प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ति की आकाँक्षा करते हुए वे ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप से कहूँगा ।
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तात्पर्य यह कि एक मनुष्य जो ब्रह्मचर्य का अर्थ इन्द्रिय-निग्रह मात्र जानकर उस का ’अभ्यास’ करने के लिए बाध्य है, और दूसरा जिसे ब्रह्मचर्य के आचरण का महत्व अच्छी तरह ज्ञात है, ब्रह्मचर्य का पालन भिन्न-भिन्न उद्देश्य से करते हैं । पहले के लिए इन्द्रिय भोगों के आकर्षण से बचना कठिन होता है, जबकि दूसरे को इन्द्रिय-भोगों की सीमा तथा व्यर्थता का भी ज्ञान है । प्रथम को यह भी नहीं पता कि कब इन्द्रियाँ चित्त को बलपूर्वक भोग की ओर खींचती हैं, और वह उन्हें कैसे रोके, जबकि दूसरे को न केवल यह पता होता है कि इन्द्रियाँ कब और कैसे चित्त को बलपूर्वक भोग के लिए बाध्य करती हैं, बल्कि यह भी कि मन क्यों उनके (इन्द्रियों के) वश में होता है? जैसा कि आगे कहा जा रहा है :
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अध्याय 2, श्लोक 67,
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥
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(इन्द्रियाणाम् हि चरताम् यत् मनः अनु-विधीयते ।
तत् अस्य हरति प्रज्ञाम् वायुः नावम् इव अम्भसि ॥)
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भावार्थ :
इंद्रियों के विषयों में रत होते हुए जो / जिसका मन उनमें संलग्न होता है, उसे उसकी इन्द्रियाँ वैसे ही भोगों में बरबस खींच ले जाती हैं जैसे पानी में (पालदार) नौका को बहती वायु अपनी दिशा में ले जाती है ।
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इसलिए वह मन अर्थात् चित्त को उन (इन्द्रियों) का अनुसरण नहीं करने देता । प्रथम के साथ यह समस्या है कि भोगों के प्रति आकर्षण और भोगों में सुख का आभास होने के कारण उसका मन वैसे ही उन भोगों का चिन्तन करता रहता है, और भोगों की कामना को तृप्त करने के लिए अवसर खोजता रहता है । उसे इसकी कल्पना तक नहीं होती कि भोगों में प्रतीत होनेवाला सुख एक अस्थायी अवस्था होने से वास्तव में दुःख का ही एक प्रकार मात्र है, न कि वास्तविक सुख । फिर भोगों का चित्त पर पड़ा सुखबुद्धि का संस्कार उसे पुनः पुनः भोगों की ओर खींचता रहता है । ऐसा मनुष्य का ध्यान कभी-न कभी उन भोगों से त्रस्त भी होने पर ’इन्द्रिय-निग्रह’ के महत्व की ओर भी जा सकता है, किन्तु चित्त पर पड़े संस्कार उसे यह समझने नहीं देते कि इसे कैसे किया जाए । उसके लिए इन्द्रिय-निग्रह की आवश्यकता इसलिए भर है कि वह भोगों से त्रस्त और व्याकुल हो गया है । उसके लिए ’ब्रह्मचर्य’ शायद एक ’आदर्श’ भी हो सकता है, किन्तु उसमें उसे कोई नई उपलब्धि होने की वैसी आशा या कल्पना तक नहीं है, जैसी कि दूसरे मनुष्य (वेदविद, यती, वीतराग, आदि) को होती है ।
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इस प्रकार ’ब्रह्मचर्य’ का अभ्यास ज्ञानरहित अथवा ज्ञानसहित दो तरीकों से किया जाना संभव है ।
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इसी आधार पर हम ’धर्म’ की भी विवेचना कर सकते हैं  ।
न तो Celibacy शब्द ’ब्रह्मचर्य' के अर्थ का उपयुक्त द्योतक है, न religion धर्म के अर्थ का उपयुक्त द्योतक, और शायद इसीलिए आज के मनुष्य को तथाकथित बुद्धिजीवियों और दार्शनिकों के द्वारा प्रतिपादित भ्रमपूर्ण सिद्धान्तों से कोई सहायता नहीं मिल पा रही है ।
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