आज का श्लोक ’योगिनाम्’ / ’yoginām’
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’योगिनाम्’ / ’yoginām’ - योगियों की,
अध्याय 3, श्लोक 3,
श्रीभगवान् उवाच :
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
--
(लोके-अस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया अनघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानाम् कर्मयोगेन योगिनाम् ॥)
--
भावार्थ :
हे अनघ अर्जुन! इस लोक में (अधिकारी-भेद के अनुसार भिन्न-भिन्न मनुष्यों में) जो दो निष्ठाएँ (परमार्थ की सिद्धि / प्राप्ति कैसे होती है, इस विषय में) होती हैं, उनके बारे नें मेरे द्वारा बहुत पहले ही कहा जा चुका है । साङ्ख्ययोग के प्रति ज्ञानयोगियों की निष्ठा, और कर्मयोग के प्रति कर्मयोगियों की निष्ठा ।
--
अध्याय 6, श्लोक 42,
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्, ।
--
(अथवा योगिनाम् एव कुले भवति धीमताम् ।
एतत् हि दुर्लभतरम् लोके जन्म यत्-ईदृशम् ॥)
--
भावार्थ :
अथवा, (वह योग से भ्रष्ट हुआ), ज्ञानवान योगियों के ही कुल में ही जन्म लेता है । संसार में इस प्रकार से प्राप्त होनेवाला जन्म भी अत्यन्त दुर्लभ ही है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 47,
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥
--
(योगिनाम् अपि सर्वेषाम् मद्गतेन अन्तरात्मना ।
श्रद्धावान् भजते यो माम् सः मे युक्ततमः मतः ॥)
--
भावार्थ :
समस्त योगियों में भी पुनः वह योगी, जो अपनी अन्तरात्मा में मुझको जानकर मुझमें प्रविष्ट और समाहित हुआ है, ऐसा श्रद्धान्वित, जो मुझे इस प्रकार से भजता है मेरे मत में श्रेष्ठ योगी है ।
--
’योगिनाम्’ / ’yoginām’ - of yogin-s,
Chapter 3, shloka 3,
śrībhagavān uvāca :
loke:'smindvividhā niṣṭhā
purā proktā mayānagha |
jñānayogena sāṅkhyānāṃ
karmayogena yoginām ||
__
(loke-asmin dvividhā niṣṭhā
purā proktā mayā anagha |
jñānayogena sāṅkhyānām
karmayogena yoginām ||)
--
Meaning :
Lord śrīkṛṣṇa said :
O sinless arjuna of pure mind! Long ago in times, there are two different kinds of ways to follow for approaching the Supreme which were described by ME (for those who deserve, according to the specific bent of their mind). Those who are inclined to follow the way of sāṅkhya-yoga (by deduction and enquiry into the nature of Reality, Self) are the jñāna-yogins. Others, who emphasize and are inclined to follow the way of action are the karma-yogins.
--
Chapter 6, śloka 42,
athavā yogināmeva
kule bhavati dhīmatām |
etaddhi durlabhataraṃ
loke janma yadīdṛśam, |
--
(athavā yoginām eva
kule bhavati dhīmatām |
etat hi durlabhataram
loke janma yat-īdṛśam ||)
--
Meaning :
Or (such a yogī, who failed in attaining perfection of yoga) gets born in the family of wise yogin-s, in this world indeed, very rarely one gets such a birth.
--
Chapter 6, śloka 47,
yogināmapi sarveṣāṃ
madgatenāntarātmanā |
śraddhāvānbhajate yo māṃ
sa me yuktatamo mataḥ ||
--
(yoginām api sarveṣām
madgatena antarātmanā |
śraddhāvān bhajate yo mām
saḥ me yuktatamaḥ mataḥ ||)
--
Meaning :
Of all the yogī-s, One who has entered me through the heart, one who shares deep love with me, is truly the greatest and the most beloved to Me.
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’योगिनाम्’ / ’yoginām’ - योगियों की,
अध्याय 3, श्लोक 3,
श्रीभगवान् उवाच :
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
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(लोके-अस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया अनघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानाम् कर्मयोगेन योगिनाम् ॥)
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भावार्थ :
हे अनघ अर्जुन! इस लोक में (अधिकारी-भेद के अनुसार भिन्न-भिन्न मनुष्यों में) जो दो निष्ठाएँ (परमार्थ की सिद्धि / प्राप्ति कैसे होती है, इस विषय में) होती हैं, उनके बारे नें मेरे द्वारा बहुत पहले ही कहा जा चुका है । साङ्ख्ययोग के प्रति ज्ञानयोगियों की निष्ठा, और कर्मयोग के प्रति कर्मयोगियों की निष्ठा ।
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अध्याय 6, श्लोक 42,
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्, ।
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(अथवा योगिनाम् एव कुले भवति धीमताम् ।
एतत् हि दुर्लभतरम् लोके जन्म यत्-ईदृशम् ॥)
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भावार्थ :
अथवा, (वह योग से भ्रष्ट हुआ), ज्ञानवान योगियों के ही कुल में ही जन्म लेता है । संसार में इस प्रकार से प्राप्त होनेवाला जन्म भी अत्यन्त दुर्लभ ही है ।
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अध्याय 6, श्लोक 47,
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥
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(योगिनाम् अपि सर्वेषाम् मद्गतेन अन्तरात्मना ।
श्रद्धावान् भजते यो माम् सः मे युक्ततमः मतः ॥)
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भावार्थ :
समस्त योगियों में भी पुनः वह योगी, जो अपनी अन्तरात्मा में मुझको जानकर मुझमें प्रविष्ट और समाहित हुआ है, ऐसा श्रद्धान्वित, जो मुझे इस प्रकार से भजता है मेरे मत में श्रेष्ठ योगी है ।
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’योगिनाम्’ / ’yoginām’ - of yogin-s,
Chapter 3, shloka 3,
śrībhagavān uvāca :
loke:'smindvividhā niṣṭhā
purā proktā mayānagha |
jñānayogena sāṅkhyānāṃ
karmayogena yoginām ||
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(loke-asmin dvividhā niṣṭhā
purā proktā mayā anagha |
jñānayogena sāṅkhyānām
karmayogena yoginām ||)
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Meaning :
Lord śrīkṛṣṇa said :
O sinless arjuna of pure mind! Long ago in times, there are two different kinds of ways to follow for approaching the Supreme which were described by ME (for those who deserve, according to the specific bent of their mind). Those who are inclined to follow the way of sāṅkhya-yoga (by deduction and enquiry into the nature of Reality, Self) are the jñāna-yogins. Others, who emphasize and are inclined to follow the way of action are the karma-yogins.
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Chapter 6, śloka 42,
athavā yogināmeva
kule bhavati dhīmatām |
etaddhi durlabhataraṃ
loke janma yadīdṛśam, |
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(athavā yoginām eva
kule bhavati dhīmatām |
etat hi durlabhataram
loke janma yat-īdṛśam ||)
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Meaning :
Or (such a yogī, who failed in attaining perfection of yoga) gets born in the family of wise yogin-s, in this world indeed, very rarely one gets such a birth.
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Chapter 6, śloka 47,
yogināmapi sarveṣāṃ
madgatenāntarātmanā |
śraddhāvānbhajate yo māṃ
sa me yuktatamo mataḥ ||
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(yoginām api sarveṣām
madgatena antarātmanā |
śraddhāvān bhajate yo mām
saḥ me yuktatamaḥ mataḥ ||)
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Meaning :
Of all the yogī-s, One who has entered me through the heart, one who shares deep love with me, is truly the greatest and the most beloved to Me.
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