आज का श्लोक, ’योगम्’ / ’yogam’
______________________________
’योगम्’ / ’yogam’ - योग की पूर्णता को, योग की उपयुक्त स्थिति को,
अध्याय 2, श्लोक 53,
--
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥
--
(श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधौ-अचला बुद्धिः तदा योगम् अवाप्स्यसि ॥)
--
भावार्थ :
विविध प्रकार के परस्पर भिन्न भिन्न मतों को सुनने से विचलित और भ्रमित हुई तुम्हारी बुद्धि निश्चल होकर जब अचलरूप से समाधि में सुस्थिर हो जाएगी, तब तुम्हें योग (रूपी लक्ष्य) की उपलब्धि हो जाएगी ।
--
अध्याय 4, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
--
(इमम् विवस्वते योगम् प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम् ।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत ॥)
--
भावार्थ :
अव्यय आत्म-स्वरूप मैंने (अर्थात् परमात्मा ने) इस योग के तत्व को विवस्वान के प्रति (के लिए) कहा, विवस्वान् ने इसे ही मनु के प्रति (के लिए) कहा, और मनु ने इसे ही इक्ष्वाकु के प्रति (के लिए) कहा ।
--
अध्याय 4, श्लोक 42,
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥
--
(तस्मात् अज्ञानसंभूतम् हृत्स्थम् ज्ञानासिना आत्मनः ।
छित्त्वा एनम् संशयम् योगम् आतिष्ठ उत्तिष्ठ भारत ॥)
--
भावार्थ :
अतः हे भारत (अर्जुन)! उठो, तुम्हारे अन्तःकरण में अज्ञान से उत्पन्न हुए और स्थित, इस संशय को विवेक रूपी तलवार से काटकर, योग में दृढता से स्थित हो जाओ !
--
अध्याय 5, श्लोक 1,
अर्जुन उवाच -
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥
--
(सन्न्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुनः योगम् च शंससि ।
यत्-श्रेयः एतयोः एकं तत् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्न्यास (त्याग) की बात करते हैं, किन्तु फिर साथ ही योग की भी प्रशंसा कर रहे हैं । इन दोनों में से कौन सा एक दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है, इस बारे में मुझसे सुनिश्चित रूप से कहें ।
--
अध्याय 5, श्लोक 5,
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पस्यति ॥
--
(यत् साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानम् तत् योगैः अपि गम्यते ।
एकम् साङ्ख्यम् च योगम् च यह पश्यति सः पश्यति ॥)
--
भावार्थ :
जो (परम श्रेष्ठ) स्थान साङ्ख्य-योगियों (अर्थात् ज्ञानयोगियों) के द्वारा पाया जाता है, योगियों (अर्थात् कर्म-योगियों) द्वारा भी उसे ही प्राप्त किया जाता है । जो यह देखता है कि साङ्ख्य (अर्थात् ज्ञान) तथा योग (अर्थात् कर्मयोग) स्वरूपतः एकमेव हैं, वही (इनके स्वरूप) को (वस्तुतः) देख पाता है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 2,
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥
--
(यम् सन्न्यासम् इति प्राहुः योगम् तम् विद्धि पाण्डव ।
न हि असन्न्यस्तसङ्कल्पः योगी भवति कश्चन ॥)
--
भावार्थ :
जिसे संन्यास कहा जाता है तुम उसे ही योग जानो , क्योंकि संकल्पों का त्याग किए बिना कोई भी मनुष्य योगी नहीं होता ।
--
अध्याय 6, श्लोक 3,
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥
--
(आरुरुक्षोः मुनेः योगम् कर्म कारणम् उच्यते ।
योगारूढस्य तस्य एव शमः कारणम् उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
योग में आरूढ होने की इच्छा जिसे होती है, उस मननशील (योग का अभ्यास करनेवाले) के लिए इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निष्काम भाव से कर्म करना ही पर्याप्त कारण होता है । और जो योग में आरूढ हो चुका होता है, उसके लिए संकल्पमात्र का शमन हो जाना ही योग में उसकी नित्यस्थिति के लिए पर्याप्त कारण होता है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 12,
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥
--
(तत्र एकाग्रम् मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्य आसने युञ्ज्यात् योगम् आत्म-विशुद्धये ॥)
--
भावार्थ :
(पिछले श्लोक 11 से आगे, ...)
वहाँ, उस शुद्ध स्वच्छ भूमि पर, ... मन को एकाग्र अर्थात् मन में एक संकल्प को आगे रखते हुए, चित्त तथा इन्द्रियों की गतिविधि को संयत / नियन्त्रण में रखते हुए, आसन पर बैठकर, आत्म-शुद्धि के लिए योग का अवलंबन ले ।
--
टिप्पणी :
मन में एक संकल्प के रहने पर अन्य सब संकल्प उसमें लीन हो जाते हैं और अन्ततः वह संकल्प भी आधारभूत चेतना में लीन हो जाता है । यह सिद्धान्त अर्थात् योग का विज्ञान है जिसे प्रयोग द्वारा परीक्षित और सिद्ध किया जाना चाहिए ।
चित्त तथा इन्द्रियों को संयत करने से आशय है कि ध्यानपूर्वक उन्हें बाह्य विषयों से परावृत कर (लौटाकर) अपने विशिष्ट संकल्प की ओर लाने का अभ्यास किया जाए । यह संकल्प इष्ट देवता की साकार आकृति, नाम, मन्त्र, या श्वासोच्छ्वास की गतिविधि भी हो सकता है । यह संकल्प प्रश्न-रूप में अपने / आत्मा / परमात्मा के स्वरूप या ब्रह्म के स्वरूप के संबंध में जिज्ञासा के रूप में भी हो सकता है । यह संकल्प, वृत्तिमात्र की प्रकृति को समझने की चेष्टा, या वृत्ति के स्रोत को जानने के प्रयास के रूप में भी हो सकता है । यह इस पर निर्भर है कि साधक का मन तथा संस्कार उसे किस ओर प्रवृत्त करते हैं । कोई-कोई सिद्धि या भौतिक कामनाओं की पूर्ति या कौतूहल से प्रेरित होकर भी किसी विशेष प्रयास में संलग्न हो सकता है, किन्तु तब प्राय उसे अन्त में निराशा ही हाथ लगती है । इसलिए ’आत्म-विशुद्धि’ बुनियादी आवश्यकता है, जिसके लिए योगसाधन किया जाना चाहिए । ध्यान तथा आत्मानुसंधान का भेद समझना भी बहुत महत्वपूर्ण है । भगवान् श्री रमणमहर्षि द्वारा रचित् ’उपदेश-सार’ तथा ’सद्दर्शनम्’ संक्षेप में बहुत गूढ शिक्षा प्रदान करते हैं, विस्तार से समझने के लिए इनका अवलोकन अवश्य करना चाहिए, ऐसा कहा जा सकता है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 19,
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
--
(यथा दीपः निवातस्थः न इङ्गते सा उपमा स्मृता ।
योगिनः यतचित्तस्य युञ्जतः योगम्-आत्मनः ॥)
--
जैसे वायु से सुरक्षित स्थान में दीपक की लौ अकम्पित रहती है, वह उपमा योगी के चित्तरूपी लौ के लिए उदाहरण की तरह स्मरणीय है, क्योंकि अभ्यासरत योगी का चित्त जब परमात्मा के ध्यान में रम जाता है तो इसी प्रकार से निश्चल होता है ।
--
अध्याय 7, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥
--
(मयि आसक्तमनाः पार्थ योगम् युञ्जन् मदाश्रयः ।
असंशयम् समग्रम् माम् यथा ज्ञास्यसि तत्-शृणु ॥)
--
भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
हे पार्थ (हे अर्जुन)! मुझमें / मेरे प्रेम में निमज्जित-हृदय, मुझमें समर्पित-चित्त होकर मेरा आश्रय लेते हुए, जिस प्रकार से तुम मुझको समग्रतः जान लोगे, उसे सुनो ।
--
भावार्थ 2:
हे पार्थ, ’अहम्’ / ’आत्मा’ / अपने-आप से अत्यन्त प्रेम करते हुए अपने ही अन्तर्हृदय में गहरे डूबकर, जहाँ से ’अहं-वृत्ति’ का तथा अन्य सभी गौण वृत्तियों का भी उठना-विलीन होना होता है, उसे जानने पर तुम कैसे समग्रतः आत्मा को जान लोगे, इसे मुझसे सुनो ।
--
अध्याय 9, श्लोक 5,
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥
--
(न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगम् ऐश्वरम् ।
भूतभृत् न च भूतस्थः मम आत्मा भूतभावनः ॥)
--
भावार्थ :
मेरे ईश्वरीय योग-सामर्थ्य को देखो कि यद्यपि ये भूत मुझमें नहीं हैं किन्तु फिर भी समस्त भूतों में उनके आधारभूत की तरह स्थित हुआ मैं ही उनका पालन-पोषण करता हूँ और मेरी आत्मा अर्थात् स्वरूप उन्हें अत्यन्त प्रिय है ।
--
अध्याय 10, श्लोक 7,
--
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥
--
(एताम् विभूतिम् योगम् च मम यः वेत्ति तत्त्वतः ।
सः अविकम्पेन योगेन युज्यते न अत्र संशयः ॥)
--
भावार्थ :
जो पुरुष मेरी परमैश्वर्यरूपी विभूति तथा योग(-सामर्थ्य) को, इन्हें तत्त्वतः जानता है, वह अविकम्पित अचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है, इस बारे में संशय नहीं ।
--
अध्याय 10, श्लोक 18,
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥
--
(विस्तरेण आत्मनः योगम् विभूतिम् च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिः हि शृण्वतः न अस्ति मे अमृतम् ॥)
--
भावार्थ :
हे जनार्दन (कृष्ण)! आप अपनी योगमाया की शक्ति और विभूतियों का पुनः और अधिक विस्तार से वर्णन करें, क्योंकि आपके इन अमृत-वचनों को सुनते हुए मुझ सुननेवाले की और सुनने की उत्कण्ठा अतृप्त ही रहती है ।
--
अध्याय 11, श्लोक 8,
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥
--
(न तु माम् शक्यसे द्रष्टुम् अनेन एव स्वचक्षुषा ।
दिव्यम् ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगम्-ऐश्वरम् ॥)
--
भावार्थ :
मुझे तुम अपने इस (प्रकृतिप्रदत्त/ स्थूल) नेत्र से नहीं देख सकते हो । इसके लिए मैं तुम्हें दिव्य नेत्र प्रदान करता हूँ, इससे तुम मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देखो ।
--
अध्याय 18, श्लोक 75,
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ॥
--
(व्यास-प्रसादात् श्रुतवान्-एतत्-गुह्यम्-अहम् परम् ।
योगम् योगेश्वरात्-कृष्णात्-साक्षात्-कथयतः स्वयम् ॥)
--
स्वयं योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रति कहे जाते हुए इस परम गोपनीय योग को महर्षि श्री व्यासजी के अनुग्रह से (दिव्य-दृष्टि पाकर) मैंने स्वयं प्रत्यक्ष सुना ।
--
’योगम्’ / ’yogam’- the objective that is 'yoga', perfection in yoga,
Chapter 2, śloka 53,
--
śrutivipratipannā te
yadā sthāsyati niścalā |
samādhāvacalā buddhis-
tadā yogamavāpsyasi ||
--
(śrutivipratipannā te
yadā sthāsyati niścalā |
samādhau-acalā buddhiḥ
tadā yogam avāpsyasi ||)
--
Meaning :
When your mind becomes free from the many intellects of the varied and confusing kinds, and stays silent in the Self, then in that silence of the mind, you attain the yoga.
--
Chapter 4, śloka 1,
śrībhagavānuvāca :
imaṃ vivasvate yogaṃ
proktavānahamavyayam |
vivasvānmanave prāha
manurikṣvākave:'bravīt ||
--
(imam vivasvate yogam
proktavān aham avyayam |
vivasvān manave prāha
manuḥ ikṣvākave abravīta ||)
--
Meaning :
I, the Eternal Self-Divine imparted this element of yoga to vivasvān (Sun*), vivasvān to manu*, and then manu to ikṣvāku,
--
Chapter 4, śloka 42,
tasmādajñānasaṃbhūtaṃ
hṛtsthaṃ jñānāsinātmanaḥ |
chittvainaṃ saṃśayaṃ yogam-
ātiṣṭhottiṣṭha bhārata ||
--
(tasmāt ajñānasaṃbhūtam
hṛtstham jñānāsinā ātmanaḥ |
chittvā enam saṃśayam yogam
ātiṣṭha uttiṣṭha bhārata ||)
--
Meaning :
Therefore O bhārata (arjuna)! Arise, stand up with determination, and by means of the sword of the wisdom, cut down the doubt born of ignorance and is rooted deep down there in your mind.
--
Chapter 5, śloka 1,
arjuna uvāca -
sannyāsaṃ karmaṇāṃ kṛṣṇa
punaryogaṃ ca śaṃsasi |
yacchreya etayorekaṃ
tanme brūhi suniścitam ||
--
(sannyāsam karmaṇām kṛṣṇa
punaḥ yogam ca śaṃsasi |
yat-śreyaḥ etayoḥ ekaṃ
tat me brūhi suniścitam ||)
--
Meaning :
arjuna said : O kṛṣṇa! You speak of Renunciation (saṃnnyāsa) of action (karma) ), and at the same time You also praise yoga. Please tell me with certainty, which of the two is superior.
--
Chapter 5, śloka 5,
yatsāṅkhyaiḥ prāpyate sthānaṃ
tadyogairapi gamyate |
ekaṃ sāṅkhyaṃ ca yogaṃ ca
yaḥ paśyati sa pasyati ||
--
(yat sāṅkhyaiḥ prāpyate sthānam
tat yogaiḥ api gamyate |
ekam sāṅkhyam ca yogam ca
yaha paśyati saḥ paśyati ||)
--
Meaning :
The (Supreme) state that is attained by those sāṅkhya-yogin-s who abide in wisdom (sāṅkhya), is the same as that is attained by the karma-yogin-s (yogin-s). One who realizeds that the two are one and the same, sees the truth indeed.
--
Chapter 6, śloka 2,
yaṃ sannyāsamiti prāhur-
yogaṃ taṃ viddhi pāṇḍava |
na hyasaṃnyastasaṅkalpo
yogī bhavati kaścana ||
--
(yam sannyāsam iti prāhuḥ
yogam tam viddhi pāṇḍava |
na hi asannyastasaṅkalpaḥ
yogī bhavati kaścana ||)
--
Meaning :
What is described as sannyāsa, Renunciation, know well that yoga is the same, O pāṇḍava! (arjuna)! No one can be a yogī without first having relinquished the mode of will prompted by desire (saṅkalpa-vṛtti).
--
Chapter 6, śloka 3,
ārurukṣormuneryogaṃ
karma kāraṇamucyate |
yogārūḍhasya tasyaiva
śamaḥ kāraṇamucyate ||
--
(ārurukṣoḥ muneḥ yogam
karma kāraṇam ucyate |
yogārūḍhasya tasya eva
śamaḥ kāraṇam ucyate ||)
--
Meaning :
There are two stages in acquiring and stabilising yoga. The first (ārurukṣa > aspiring to attain yoga), that means practicing (karma), efforts that are accompanied by self-less action (niṣkāma karma), and the next is (yogārūḍha) when one has to free the mind from thought (saṃkalpa / vṛtti), that means subsiding / elimination of thought in all its forms (modes of mind. This includes the key-thought that is the source of all thought as such. This prime thought is I-thought (aham-vṛtti / aham-saṅkalpa).
--
When all thought is calmed down, the aspirant is said to have firmly established in Yoga (sthita-dhī / sthitaprajña). --And the practice therefore in the second / advanced stage of yoga is to pacify the thought (śama). This may further intensified by means of 'Self-Enquiry' as is taught by (bhagavān śrī ramaṇa maharṣi).
--
Note : śamaḥ is about purification of mind. damaḥ is about the control of the senses. Mind is subtle than senses. It is the mind that gets involved in senses and the functioning of them. But if the senses forcibly drive the mind, it should be taken care of. This happens because mind finds gratification in the pleasures obtained throuh the indulgence in senses. This 'pleasure' is transitory and is soon lost. That is the reason why mind should prevail over the senses and this much is enough to control them. Mind is no doubt stronger and has more power than the senses. So damaḥ is for the senses, while śamaḥ is for the mind. The mind that is purified itself becomes strong, calm and peaceful.
--
Chapter 6, śloka 12,
tatraikāgraṃ manaḥ kṛtvā
yatacittendriyakriyaḥ |
upaviśyāsane yuñjyād-
yogamātmaviśuddhaye ||
--
(tatra ekāgram manaḥ kṛtvā
yatacittendriyakriyaḥ |
upaviśya āsane yuñjyāt
yogam ātma-viśuddhaye ||)
--
Meaning :
(starting from the preceding śloka 11, ... There on the clean ground, one should fix the seat for meditation, ...) and keeping the mind one-pointed, controlling the senses and the intellect / thought / (citta), not allowing the attention to go outward toward the objects of the mind and the senses, one should sit comfortably on this seat, and try to fix the attention on the 'Self' / 'self' in whatever way one can start with with the purpose of purification of the mind.
--
Note :
According to one's temperament and conditioning of the mind, predisposition, one can either contemplate about the nature of consciousness, or keep a single thought at the fore, excluding all other thought(s), either through effort, or through ignoring them and reminding oneself of the purpose of meditation repeatedly. One can also chant a sacred syllable / mantra, or visualize the form of some divine aspect of the Supreme Reality, in what-ever one would like to. One can investigate in a hundred ways and meditate in a thousand ways, but the core aim here is the purification of the mind. If you miss this, you miss all.
--
Chapter 6, śloka 19,
yathā dīpo nivātastho
neṅgate sopamā smṛtā |
yogino yatacittasya
yuñjato yogamātmanaḥ ||
--
(yathā dīpaḥ nivātasthaḥ
na iṅgate sā upamā smṛtā |
yoginaḥ yatacittasya
yuñjataḥ yogam-ātmanaḥ ||)
--
Meaning :
Protected from the wind, the flame of a lamp does not flicker. This simile is quite appropriate and may be remembered to describe the state of the mind of a yogi, who practices yoga keeping his attention fixed on the Self.
--
Captter 7, śloka 1,
śrībhagavānuvāca :
mayyāsaktamanāḥ pārtha
yogaṃ yuñjanmadāśrayaḥ |
asaṃśayaṃ samagraṃ māṃ
yathā jñāsyasi tacchṛṇu ||
--
(mayi āsaktamanāḥ pārtha
yogam yuñjan madāśrayaḥ |
asaṃśayam samagram mām
yathā jñāsyasi tat-śṛṇu ||)
--
Meaning :
Now listen to Me, O pārtha (arjuna) ! In earnest love for Me, Having dedicated to Me his whole heart and being, how one is most intimately linked to Me, how through this yoga, one attains and knows Me perfectly and thoroughly, in all My aspects, What I AM, without no trace of doubt.
--
Chapter 9, śloka 5,
na ca matsthāni bhūtāni
paśya me yogamaiśvaram |
bhūtabhṛnna ca bhūtastho
mamātmā bhūtabhāvanaḥ ||
--
(na ca matsthāni bhūtāni
paśya me yogam aiśvaram |
bhūtabhṛt na ca bhūtasthaḥ
mama ātmā bhūtabhāvanaḥ ||)
--
Meaning :
See My Divine splendor of Yoga! These beings are not there in Me, though I AM ever there, in the core of their very being and I sustain them. I AM their Beloved and keep them happy.
--
Chapter 10, śloka 7,
etāṃ vibhūtiṃ yogaṃ ca
mama yo vetti tattvataḥ |
so:'vikampena yogena
yujyate nātra saṃśayaḥ ||
--
(etām vibhūtim yogam ca
mama yaḥ vetti tattvataḥ |
saḥ avikampena yogena
yujyate na atra saṃśayaḥ ||)
--
Meaning :
One who realizes the Essence of My Divine forms (vibhūti) andthe Power associated with them, and My (yoga-aiśvarya ) / infinite potential, He attains the unwavering devotion ( acala bhakti ) towards Me.
--
Chapter 10, śloka 18,
vistareṇātmano yogaṃ
vibhūtiṃ ca janārdana |
bhūyaḥ kathaya tṛptirhi
śṛṇvato nāsti me:'mṛtam ||
--
(vistareṇa ātmanaḥ yogam
vibhūtim ca janārdana |
bhūyaḥ kathaya tṛptiḥ hi
śṛṇvataḥ na asti me amṛtam ||)
--
Meaning :
O janārdana (kṛṣṇa) ! Please describe for me Your divine power of yogamāyā and the divine glories in details, because while hearing your ambrosial words, my thirst is not quenched and asks for even more.
--
Chapter 11, śloka 8,
na tu māṃ śakyase draṣṭum-
anenaiva svacakṣuṣā |
divyaṃ dadāmi te cakṣuḥ
paśya me yogamaiśvaram ||
--
(na tu mām śakyase draṣṭum
anena eva svacakṣuṣā |
divyam dadāmi te cakṣuḥ
paśya me yogam-aiśvaram ||)
--
Meaning :
Through your this physical eye, it is not possible for you to see MY Divine affluence. To see My Majestic form, The Divine power of yoga (yogamaiśvaram), I give you this divine-eye, See Me through this.
--
Chapter 18, śloka 75,
vyāsaprasādācchrutavān-
etadguhyamahaṃ param |
yogaṃ yogeśvarātkṛṣṇāt-
sākṣātkathayataḥ svayam ||
--
(vyāsa-prasādāt śrutavān-
etat-guhyam-aham param |
yogam yogeśvarāt-kṛṣṇāt-
sākṣāt-kathayataḥ svayam ||)
--
Meaning :
By the Grace of maharṣi śrī vyāsa, Having acquired the divine vision, I have heard these most confidential talks directly from the Lord of all yoga, yogeśvara bhagavān śrīkṛṣṇa. And I myself before my own eyes, saw Him Himself imparting this to Arjuna.
--
______________________________
’योगम्’ / ’yogam’ - योग की पूर्णता को, योग की उपयुक्त स्थिति को,
अध्याय 2, श्लोक 53,
--
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥
--
(श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधौ-अचला बुद्धिः तदा योगम् अवाप्स्यसि ॥)
--
भावार्थ :
विविध प्रकार के परस्पर भिन्न भिन्न मतों को सुनने से विचलित और भ्रमित हुई तुम्हारी बुद्धि निश्चल होकर जब अचलरूप से समाधि में सुस्थिर हो जाएगी, तब तुम्हें योग (रूपी लक्ष्य) की उपलब्धि हो जाएगी ।
--
अध्याय 4, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
--
(इमम् विवस्वते योगम् प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम् ।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत ॥)
--
भावार्थ :
अव्यय आत्म-स्वरूप मैंने (अर्थात् परमात्मा ने) इस योग के तत्व को विवस्वान के प्रति (के लिए) कहा, विवस्वान् ने इसे ही मनु के प्रति (के लिए) कहा, और मनु ने इसे ही इक्ष्वाकु के प्रति (के लिए) कहा ।
--
अध्याय 4, श्लोक 42,
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥
--
(तस्मात् अज्ञानसंभूतम् हृत्स्थम् ज्ञानासिना आत्मनः ।
छित्त्वा एनम् संशयम् योगम् आतिष्ठ उत्तिष्ठ भारत ॥)
--
भावार्थ :
अतः हे भारत (अर्जुन)! उठो, तुम्हारे अन्तःकरण में अज्ञान से उत्पन्न हुए और स्थित, इस संशय को विवेक रूपी तलवार से काटकर, योग में दृढता से स्थित हो जाओ !
--
अध्याय 5, श्लोक 1,
अर्जुन उवाच -
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥
--
(सन्न्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुनः योगम् च शंससि ।
यत्-श्रेयः एतयोः एकं तत् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्न्यास (त्याग) की बात करते हैं, किन्तु फिर साथ ही योग की भी प्रशंसा कर रहे हैं । इन दोनों में से कौन सा एक दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है, इस बारे में मुझसे सुनिश्चित रूप से कहें ।
--
अध्याय 5, श्लोक 5,
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पस्यति ॥
--
(यत् साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानम् तत् योगैः अपि गम्यते ।
एकम् साङ्ख्यम् च योगम् च यह पश्यति सः पश्यति ॥)
--
भावार्थ :
जो (परम श्रेष्ठ) स्थान साङ्ख्य-योगियों (अर्थात् ज्ञानयोगियों) के द्वारा पाया जाता है, योगियों (अर्थात् कर्म-योगियों) द्वारा भी उसे ही प्राप्त किया जाता है । जो यह देखता है कि साङ्ख्य (अर्थात् ज्ञान) तथा योग (अर्थात् कर्मयोग) स्वरूपतः एकमेव हैं, वही (इनके स्वरूप) को (वस्तुतः) देख पाता है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 2,
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥
--
(यम् सन्न्यासम् इति प्राहुः योगम् तम् विद्धि पाण्डव ।
न हि असन्न्यस्तसङ्कल्पः योगी भवति कश्चन ॥)
--
भावार्थ :
जिसे संन्यास कहा जाता है तुम उसे ही योग जानो , क्योंकि संकल्पों का त्याग किए बिना कोई भी मनुष्य योगी नहीं होता ।
--
अध्याय 6, श्लोक 3,
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥
--
(आरुरुक्षोः मुनेः योगम् कर्म कारणम् उच्यते ।
योगारूढस्य तस्य एव शमः कारणम् उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
योग में आरूढ होने की इच्छा जिसे होती है, उस मननशील (योग का अभ्यास करनेवाले) के लिए इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निष्काम भाव से कर्म करना ही पर्याप्त कारण होता है । और जो योग में आरूढ हो चुका होता है, उसके लिए संकल्पमात्र का शमन हो जाना ही योग में उसकी नित्यस्थिति के लिए पर्याप्त कारण होता है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 12,
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥
--
(तत्र एकाग्रम् मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्य आसने युञ्ज्यात् योगम् आत्म-विशुद्धये ॥)
--
भावार्थ :
(पिछले श्लोक 11 से आगे, ...)
वहाँ, उस शुद्ध स्वच्छ भूमि पर, ... मन को एकाग्र अर्थात् मन में एक संकल्प को आगे रखते हुए, चित्त तथा इन्द्रियों की गतिविधि को संयत / नियन्त्रण में रखते हुए, आसन पर बैठकर, आत्म-शुद्धि के लिए योग का अवलंबन ले ।
--
टिप्पणी :
मन में एक संकल्प के रहने पर अन्य सब संकल्प उसमें लीन हो जाते हैं और अन्ततः वह संकल्प भी आधारभूत चेतना में लीन हो जाता है । यह सिद्धान्त अर्थात् योग का विज्ञान है जिसे प्रयोग द्वारा परीक्षित और सिद्ध किया जाना चाहिए ।
चित्त तथा इन्द्रियों को संयत करने से आशय है कि ध्यानपूर्वक उन्हें बाह्य विषयों से परावृत कर (लौटाकर) अपने विशिष्ट संकल्प की ओर लाने का अभ्यास किया जाए । यह संकल्प इष्ट देवता की साकार आकृति, नाम, मन्त्र, या श्वासोच्छ्वास की गतिविधि भी हो सकता है । यह संकल्प प्रश्न-रूप में अपने / आत्मा / परमात्मा के स्वरूप या ब्रह्म के स्वरूप के संबंध में जिज्ञासा के रूप में भी हो सकता है । यह संकल्प, वृत्तिमात्र की प्रकृति को समझने की चेष्टा, या वृत्ति के स्रोत को जानने के प्रयास के रूप में भी हो सकता है । यह इस पर निर्भर है कि साधक का मन तथा संस्कार उसे किस ओर प्रवृत्त करते हैं । कोई-कोई सिद्धि या भौतिक कामनाओं की पूर्ति या कौतूहल से प्रेरित होकर भी किसी विशेष प्रयास में संलग्न हो सकता है, किन्तु तब प्राय उसे अन्त में निराशा ही हाथ लगती है । इसलिए ’आत्म-विशुद्धि’ बुनियादी आवश्यकता है, जिसके लिए योगसाधन किया जाना चाहिए । ध्यान तथा आत्मानुसंधान का भेद समझना भी बहुत महत्वपूर्ण है । भगवान् श्री रमणमहर्षि द्वारा रचित् ’उपदेश-सार’ तथा ’सद्दर्शनम्’ संक्षेप में बहुत गूढ शिक्षा प्रदान करते हैं, विस्तार से समझने के लिए इनका अवलोकन अवश्य करना चाहिए, ऐसा कहा जा सकता है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 19,
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
--
(यथा दीपः निवातस्थः न इङ्गते सा उपमा स्मृता ।
योगिनः यतचित्तस्य युञ्जतः योगम्-आत्मनः ॥)
--
जैसे वायु से सुरक्षित स्थान में दीपक की लौ अकम्पित रहती है, वह उपमा योगी के चित्तरूपी लौ के लिए उदाहरण की तरह स्मरणीय है, क्योंकि अभ्यासरत योगी का चित्त जब परमात्मा के ध्यान में रम जाता है तो इसी प्रकार से निश्चल होता है ।
--
अध्याय 7, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥
--
(मयि आसक्तमनाः पार्थ योगम् युञ्जन् मदाश्रयः ।
असंशयम् समग्रम् माम् यथा ज्ञास्यसि तत्-शृणु ॥)
--
भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
हे पार्थ (हे अर्जुन)! मुझमें / मेरे प्रेम में निमज्जित-हृदय, मुझमें समर्पित-चित्त होकर मेरा आश्रय लेते हुए, जिस प्रकार से तुम मुझको समग्रतः जान लोगे, उसे सुनो ।
--
भावार्थ 2:
हे पार्थ, ’अहम्’ / ’आत्मा’ / अपने-आप से अत्यन्त प्रेम करते हुए अपने ही अन्तर्हृदय में गहरे डूबकर, जहाँ से ’अहं-वृत्ति’ का तथा अन्य सभी गौण वृत्तियों का भी उठना-विलीन होना होता है, उसे जानने पर तुम कैसे समग्रतः आत्मा को जान लोगे, इसे मुझसे सुनो ।
--
अध्याय 9, श्लोक 5,
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥
--
(न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगम् ऐश्वरम् ।
भूतभृत् न च भूतस्थः मम आत्मा भूतभावनः ॥)
--
भावार्थ :
मेरे ईश्वरीय योग-सामर्थ्य को देखो कि यद्यपि ये भूत मुझमें नहीं हैं किन्तु फिर भी समस्त भूतों में उनके आधारभूत की तरह स्थित हुआ मैं ही उनका पालन-पोषण करता हूँ और मेरी आत्मा अर्थात् स्वरूप उन्हें अत्यन्त प्रिय है ।
--
अध्याय 10, श्लोक 7,
--
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥
--
(एताम् विभूतिम् योगम् च मम यः वेत्ति तत्त्वतः ।
सः अविकम्पेन योगेन युज्यते न अत्र संशयः ॥)
--
भावार्थ :
जो पुरुष मेरी परमैश्वर्यरूपी विभूति तथा योग(-सामर्थ्य) को, इन्हें तत्त्वतः जानता है, वह अविकम्पित अचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है, इस बारे में संशय नहीं ।
--
अध्याय 10, श्लोक 18,
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥
--
(विस्तरेण आत्मनः योगम् विभूतिम् च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिः हि शृण्वतः न अस्ति मे अमृतम् ॥)
--
भावार्थ :
हे जनार्दन (कृष्ण)! आप अपनी योगमाया की शक्ति और विभूतियों का पुनः और अधिक विस्तार से वर्णन करें, क्योंकि आपके इन अमृत-वचनों को सुनते हुए मुझ सुननेवाले की और सुनने की उत्कण्ठा अतृप्त ही रहती है ।
--
अध्याय 11, श्लोक 8,
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥
--
(न तु माम् शक्यसे द्रष्टुम् अनेन एव स्वचक्षुषा ।
दिव्यम् ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगम्-ऐश्वरम् ॥)
--
भावार्थ :
मुझे तुम अपने इस (प्रकृतिप्रदत्त/ स्थूल) नेत्र से नहीं देख सकते हो । इसके लिए मैं तुम्हें दिव्य नेत्र प्रदान करता हूँ, इससे तुम मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देखो ।
--
अध्याय 18, श्लोक 75,
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ॥
--
(व्यास-प्रसादात् श्रुतवान्-एतत्-गुह्यम्-अहम् परम् ।
योगम् योगेश्वरात्-कृष्णात्-साक्षात्-कथयतः स्वयम् ॥)
--
स्वयं योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रति कहे जाते हुए इस परम गोपनीय योग को महर्षि श्री व्यासजी के अनुग्रह से (दिव्य-दृष्टि पाकर) मैंने स्वयं प्रत्यक्ष सुना ।
--
’योगम्’ / ’yogam’- the objective that is 'yoga', perfection in yoga,
Chapter 2, śloka 53,
--
śrutivipratipannā te
yadā sthāsyati niścalā |
samādhāvacalā buddhis-
tadā yogamavāpsyasi ||
--
(śrutivipratipannā te
yadā sthāsyati niścalā |
samādhau-acalā buddhiḥ
tadā yogam avāpsyasi ||)
--
Meaning :
When your mind becomes free from the many intellects of the varied and confusing kinds, and stays silent in the Self, then in that silence of the mind, you attain the yoga.
--
Chapter 4, śloka 1,
śrībhagavānuvāca :
imaṃ vivasvate yogaṃ
proktavānahamavyayam |
vivasvānmanave prāha
manurikṣvākave:'bravīt ||
--
(imam vivasvate yogam
proktavān aham avyayam |
vivasvān manave prāha
manuḥ ikṣvākave abravīta ||)
--
Meaning :
I, the Eternal Self-Divine imparted this element of yoga to vivasvān (Sun*), vivasvān to manu*, and then manu to ikṣvāku,
--
Chapter 4, śloka 42,
tasmādajñānasaṃbhūtaṃ
hṛtsthaṃ jñānāsinātmanaḥ |
chittvainaṃ saṃśayaṃ yogam-
ātiṣṭhottiṣṭha bhārata ||
--
(tasmāt ajñānasaṃbhūtam
hṛtstham jñānāsinā ātmanaḥ |
chittvā enam saṃśayam yogam
ātiṣṭha uttiṣṭha bhārata ||)
--
Meaning :
Therefore O bhārata (arjuna)! Arise, stand up with determination, and by means of the sword of the wisdom, cut down the doubt born of ignorance and is rooted deep down there in your mind.
--
Chapter 5, śloka 1,
arjuna uvāca -
sannyāsaṃ karmaṇāṃ kṛṣṇa
punaryogaṃ ca śaṃsasi |
yacchreya etayorekaṃ
tanme brūhi suniścitam ||
--
(sannyāsam karmaṇām kṛṣṇa
punaḥ yogam ca śaṃsasi |
yat-śreyaḥ etayoḥ ekaṃ
tat me brūhi suniścitam ||)
--
Meaning :
arjuna said : O kṛṣṇa! You speak of Renunciation (saṃnnyāsa) of action (karma) ), and at the same time You also praise yoga. Please tell me with certainty, which of the two is superior.
--
Chapter 5, śloka 5,
yatsāṅkhyaiḥ prāpyate sthānaṃ
tadyogairapi gamyate |
ekaṃ sāṅkhyaṃ ca yogaṃ ca
yaḥ paśyati sa pasyati ||
--
(yat sāṅkhyaiḥ prāpyate sthānam
tat yogaiḥ api gamyate |
ekam sāṅkhyam ca yogam ca
yaha paśyati saḥ paśyati ||)
--
Meaning :
The (Supreme) state that is attained by those sāṅkhya-yogin-s who abide in wisdom (sāṅkhya), is the same as that is attained by the karma-yogin-s (yogin-s). One who realizeds that the two are one and the same, sees the truth indeed.
--
Chapter 6, śloka 2,
yaṃ sannyāsamiti prāhur-
yogaṃ taṃ viddhi pāṇḍava |
na hyasaṃnyastasaṅkalpo
yogī bhavati kaścana ||
--
(yam sannyāsam iti prāhuḥ
yogam tam viddhi pāṇḍava |
na hi asannyastasaṅkalpaḥ
yogī bhavati kaścana ||)
--
Meaning :
What is described as sannyāsa, Renunciation, know well that yoga is the same, O pāṇḍava! (arjuna)! No one can be a yogī without first having relinquished the mode of will prompted by desire (saṅkalpa-vṛtti).
--
Chapter 6, śloka 3,
ārurukṣormuneryogaṃ
karma kāraṇamucyate |
yogārūḍhasya tasyaiva
śamaḥ kāraṇamucyate ||
--
(ārurukṣoḥ muneḥ yogam
karma kāraṇam ucyate |
yogārūḍhasya tasya eva
śamaḥ kāraṇam ucyate ||)
--
Meaning :
There are two stages in acquiring and stabilising yoga. The first (ārurukṣa > aspiring to attain yoga), that means practicing (karma), efforts that are accompanied by self-less action (niṣkāma karma), and the next is (yogārūḍha) when one has to free the mind from thought (saṃkalpa / vṛtti), that means subsiding / elimination of thought in all its forms (modes of mind. This includes the key-thought that is the source of all thought as such. This prime thought is I-thought (aham-vṛtti / aham-saṅkalpa).
--
When all thought is calmed down, the aspirant is said to have firmly established in Yoga (sthita-dhī / sthitaprajña). --And the practice therefore in the second / advanced stage of yoga is to pacify the thought (śama). This may further intensified by means of 'Self-Enquiry' as is taught by (bhagavān śrī ramaṇa maharṣi).
--
Note : śamaḥ is about purification of mind. damaḥ is about the control of the senses. Mind is subtle than senses. It is the mind that gets involved in senses and the functioning of them. But if the senses forcibly drive the mind, it should be taken care of. This happens because mind finds gratification in the pleasures obtained throuh the indulgence in senses. This 'pleasure' is transitory and is soon lost. That is the reason why mind should prevail over the senses and this much is enough to control them. Mind is no doubt stronger and has more power than the senses. So damaḥ is for the senses, while śamaḥ is for the mind. The mind that is purified itself becomes strong, calm and peaceful.
--
Chapter 6, śloka 12,
tatraikāgraṃ manaḥ kṛtvā
yatacittendriyakriyaḥ |
upaviśyāsane yuñjyād-
yogamātmaviśuddhaye ||
--
(tatra ekāgram manaḥ kṛtvā
yatacittendriyakriyaḥ |
upaviśya āsane yuñjyāt
yogam ātma-viśuddhaye ||)
--
Meaning :
(starting from the preceding śloka 11, ... There on the clean ground, one should fix the seat for meditation, ...) and keeping the mind one-pointed, controlling the senses and the intellect / thought / (citta), not allowing the attention to go outward toward the objects of the mind and the senses, one should sit comfortably on this seat, and try to fix the attention on the 'Self' / 'self' in whatever way one can start with with the purpose of purification of the mind.
--
Note :
According to one's temperament and conditioning of the mind, predisposition, one can either contemplate about the nature of consciousness, or keep a single thought at the fore, excluding all other thought(s), either through effort, or through ignoring them and reminding oneself of the purpose of meditation repeatedly. One can also chant a sacred syllable / mantra, or visualize the form of some divine aspect of the Supreme Reality, in what-ever one would like to. One can investigate in a hundred ways and meditate in a thousand ways, but the core aim here is the purification of the mind. If you miss this, you miss all.
--
Chapter 6, śloka 19,
yathā dīpo nivātastho
neṅgate sopamā smṛtā |
yogino yatacittasya
yuñjato yogamātmanaḥ ||
--
(yathā dīpaḥ nivātasthaḥ
na iṅgate sā upamā smṛtā |
yoginaḥ yatacittasya
yuñjataḥ yogam-ātmanaḥ ||)
--
Meaning :
Protected from the wind, the flame of a lamp does not flicker. This simile is quite appropriate and may be remembered to describe the state of the mind of a yogi, who practices yoga keeping his attention fixed on the Self.
--
Captter 7, śloka 1,
śrībhagavānuvāca :
mayyāsaktamanāḥ pārtha
yogaṃ yuñjanmadāśrayaḥ |
asaṃśayaṃ samagraṃ māṃ
yathā jñāsyasi tacchṛṇu ||
--
(mayi āsaktamanāḥ pārtha
yogam yuñjan madāśrayaḥ |
asaṃśayam samagram mām
yathā jñāsyasi tat-śṛṇu ||)
--
Meaning :
Now listen to Me, O pārtha (arjuna) ! In earnest love for Me, Having dedicated to Me his whole heart and being, how one is most intimately linked to Me, how through this yoga, one attains and knows Me perfectly and thoroughly, in all My aspects, What I AM, without no trace of doubt.
--
Chapter 9, śloka 5,
na ca matsthāni bhūtāni
paśya me yogamaiśvaram |
bhūtabhṛnna ca bhūtastho
mamātmā bhūtabhāvanaḥ ||
--
(na ca matsthāni bhūtāni
paśya me yogam aiśvaram |
bhūtabhṛt na ca bhūtasthaḥ
mama ātmā bhūtabhāvanaḥ ||)
--
Meaning :
See My Divine splendor of Yoga! These beings are not there in Me, though I AM ever there, in the core of their very being and I sustain them. I AM their Beloved and keep them happy.
--
Chapter 10, śloka 7,
etāṃ vibhūtiṃ yogaṃ ca
mama yo vetti tattvataḥ |
so:'vikampena yogena
yujyate nātra saṃśayaḥ ||
--
(etām vibhūtim yogam ca
mama yaḥ vetti tattvataḥ |
saḥ avikampena yogena
yujyate na atra saṃśayaḥ ||)
--
Meaning :
One who realizes the Essence of My Divine forms (vibhūti) andthe Power associated with them, and My (yoga-aiśvarya ) / infinite potential, He attains the unwavering devotion ( acala bhakti ) towards Me.
--
Chapter 10, śloka 18,
vistareṇātmano yogaṃ
vibhūtiṃ ca janārdana |
bhūyaḥ kathaya tṛptirhi
śṛṇvato nāsti me:'mṛtam ||
--
(vistareṇa ātmanaḥ yogam
vibhūtim ca janārdana |
bhūyaḥ kathaya tṛptiḥ hi
śṛṇvataḥ na asti me amṛtam ||)
--
Meaning :
O janārdana (kṛṣṇa) ! Please describe for me Your divine power of yogamāyā and the divine glories in details, because while hearing your ambrosial words, my thirst is not quenched and asks for even more.
--
Chapter 11, śloka 8,
na tu māṃ śakyase draṣṭum-
anenaiva svacakṣuṣā |
divyaṃ dadāmi te cakṣuḥ
paśya me yogamaiśvaram ||
--
(na tu mām śakyase draṣṭum
anena eva svacakṣuṣā |
divyam dadāmi te cakṣuḥ
paśya me yogam-aiśvaram ||)
--
Meaning :
Through your this physical eye, it is not possible for you to see MY Divine affluence. To see My Majestic form, The Divine power of yoga (yogamaiśvaram), I give you this divine-eye, See Me through this.
--
Chapter 18, śloka 75,
vyāsaprasādācchrutavān-
etadguhyamahaṃ param |
yogaṃ yogeśvarātkṛṣṇāt-
sākṣātkathayataḥ svayam ||
--
(vyāsa-prasādāt śrutavān-
etat-guhyam-aham param |
yogam yogeśvarāt-kṛṣṇāt-
sākṣāt-kathayataḥ svayam ||)
--
Meaning :
By the Grace of maharṣi śrī vyāsa, Having acquired the divine vision, I have heard these most confidential talks directly from the Lord of all yoga, yogeśvara bhagavān śrīkṛṣṇa. And I myself before my own eyes, saw Him Himself imparting this to Arjuna.
--
No comments:
Post a Comment