Monday, October 20, 2014

आज का श्लोक, ’येषाम्’ / ’yeṣām’

आज का श्लोक,  ’येषाम्’ / ’yeṣām’
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’येषाम्’ / ’yeṣām’ - जिनके लिए, जिनमें, जिनके बारे में, जिनके प्रसंग में, जिनसे, जिन्हें,

अध्याय 1, श्लोक 33,

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥
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(येषाम् अर्थे काङ्क्षितम् नः राज्यम् भोगाः सुखानि च ।
ते इमे अवस्थिताः युद्धे प्राणान् त्यक्त्वा धनानि च ॥)
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भावार्थ :
जिनके लिए इस राज्य, भोगों तथा सुखों की प्राप्ति की हमें आकाङ्क्षा है, वे सब तो अपना सर्वस्व, अपने प्राणों (की आशा) को भी त्यागकर यहाँ युद्ध में खड़े हैं ।
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अध्याय 2, श्लोक 35,

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥
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(भयात् रणात् उपरतम् मंस्यन्ते त्वाम् महारथा ॥
येषाम् च त्वम् बहुमतः भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥)
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भावार्थ :
वे ही महारथी जिनकी दृष्टि में पहले कभी तुम बहुत मान्य थे, तुम्हें भय से रण छोड़कर भाग जानेवाला समझेंगे और तुम उनकी दृष्टि में तुच्छ समझे जाओगे ।
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अध्याय 5, श्लोक 16,

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥
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(ज्ञानेन तु यत् अज्ञानम् येषाम् नाशितम् आत्मनः ।
तेषाम् आदित्यवत् ज्ञानम् प्रकाशयति तत् परम् ॥)
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भावार्थ :
जिन्होंने उस ज्ञान से अपनी आत्मा के अज्ञान को मिटा दिया है, सूर्य सा तेजस्वी वही ज्ञान उनके लिए परमेश्वर के तत्व को भी प्रकाशित कर देता है ।  
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अध्याय 5, श्लोक 19,
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इहैव तैर्जितो सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
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(इह-एव तैः जितः सर्गः येषाम् साम्ये स्थितम् मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥)
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जिनका मन समभाव में स्थित हो जाता है उनके द्वारा इस (जीवित अवस्था में ही) संसार जीत लिया जाता है, क्योंकि वे संसार के बंधन से मुक्त होते हैं, और चूँकि वे ब्रह्म में अवस्थित होते हैं, इसलिए सच्चिदानन्घन परमात्मा में स्थित हुए वे ब्रह्मस्वरूप, सम और निर्दोष होते हैं ।
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अध्याय 7, श्लोक 28,

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥
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(येषाम् तु अन्तगतम् पापम् जनानाम् पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः भजन्ते माम् दृढव्रताः ॥)
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भावार्थ :
(इच्छा और द्वेष से उत्पन्न होनेवाले द्वन्द्व तथा मोह को लेकर ही मनुष्यमात्र जन्म लेता है, ऐसा पिछले श्लोक 27 में कहा गया, उसी के बारे में आगे कहते हैं कि ऐसे मनुष्यों में से भी),
जिन पुण्यकर्म करनेवाले मनुष्यों का पाप नष्ट हो गया है, द्वन्द्व तथा मोह से मुक्त हुए वे दृढव्रती / दृढ संकल्पयुक्त, मुझे भजते हैं ।
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टिप्पणी :
देह से युक्त चेतन अपने को देह तक सीमित अनुभव करता हुआ जीव-भाव में बद्ध हो जाता है । अपने चेतन स्वरूप पर देह / जगत् रूपी आवरण तथा जगत् से अपने-आपके भिन्न होने की प्रतीति, ये दोनों उसके (अपने चैतन्य होने के) सहज सत्य पर आवरण डालते हैं और उसकी दृष्टि में विक्षेप पैदा कर देते हैं । ’आवरण’ और ’विक्षेप’ प्रकृति की ये दो शक्तियाँ जीव-भाव को सृजित करती हैं, या कहें कि उससे अभिन्न हैं । जगत् में दुःख की प्रतीति उसे ’अपने’ बारे में चिन्ता करने के लिए बाध्य करती है । वह जगत् में सुख प्राप्ति की आशा करता है, किन्तु कोई कोई ही इस आशा की निरर्थकता को देख-समझ पाता है, और उसे स्पष्ट हो जाता है कि जगत् / संसार में सुख नहीं है, इसलिए प्राप्त भी कैसे होगा, यदि कभी प्राप्त होता प्रतीत भी होता है तो वह मन की सिर्फ़ एक कल्पना चित्त का विक्षेप मात्र है । यह समझ में आना प्रकृति या परमात्मा की ’अनुग्रह’ शक्ति है । जीव-जगत् की लीला इन तीन शक्तियों का विलास मात्र है । आवरण और विक्षेप ही द्वन्द्व तथा मोह हैं जो इच्छा तथा द्वेष से अभिन्न हैं ।
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अध्याय 10, श्लोक 6,

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥
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(महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारः मनवः तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषाम् लोके इमाः प्रजाः ॥)
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भावार्थ :
सात महर्षि, तथा उनसे भी पहले होनेवाले चार (सनक, सनातन, सनन्दन, सनत्कुमार) आदि ऋषि,  तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु,  सभी मेरे ही मानस के संकल्प से उत्पन्न हुए, जिनकी संतान ही यह संसार की समस्त प्रजा है ।
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’येषाम्’ / ’yeṣām’- to / of those who are concerned, in those who, for those who,

Chapter 1, śloka 33,

yeṣāmarthe kāṅkṣitaṃ no
rājyaṃ bhogāḥ sukhāni ca |
ta ime:'vasthitā yuddhe
prāṇāṃstyaktvā dhanāni ca ||
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(yeṣām arthe kāṅkṣitam naḥ
rājyam bhogāḥ sukhāni ca |
te ime avasthitāḥ yuddhe
prāṇān tyaktvā dhanāni ca ||)
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Meaning :
Those, for whom we desire the kingdom and the pleasures, having given up their all and everything, and even the (hopes of) their own lives, are standing here on the battle-field,
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Chapter 2, śloka 35,

bhayādraṇāduparataṃ
maṃsyante tvāṃ mahārathāḥ |
yeṣāṃ ca tvaṃ bahumato
bhūtvā yāsyasi lāghavam ||
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(bhayāt raṇāt uparatam
maṃsyante tvām mahārathā ||
yeṣām ca tvam bahumataḥ
bhūtvā yāsyasi lāghavam ||)
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Meaning :
Those great warriors that presently admire you, will think you escaped from the battle because of fear, and will treat you as coward and worthless.
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Chapter 5, śloka 16,

jñānena tu tadajñānaṃ
yeṣāṃ nāśitamātmanaḥ |
teṣāmādityavajjñānaṃ
prakāśayati tatparam ||
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(jñānena tu yat ajñānam
yeṣām nāśitam ātmanaḥ |
teṣām ādityavat jñānam
prakāśayati tat param ||)
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Meaning :
Those, who through that realization of the Self, have destroyed the ignorance of the Self, for them, the same realization shining like the Sun, also reveals the Supreme.
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Chapter 5, śloka 19,

ihaiva tairjito sargo
yeṣāṃ sāmye sthitaṃ manaḥ |
nirdoṣaṃ hi samaṃ brahma
tasmādbrahmaṇi te sthitāḥ ||
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(iha-eva taiḥ jitaḥ sargaḥ
yeṣām sāmye sthitam manaḥ |
nirdoṣaṃ hi samaṃ brahma
tasmāt brahmaṇi te sthitāḥ ||)
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Meaning :
Those who have attained the equipoise of mind have conquered over the crisis of existing in a world full of sorrow and ignorance. They have attained identity with Brahman and are thus stainless and impartial in Him.
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Chapter 7, śloka 28,

yeṣāṃ tvantagataṃ pāpaṃ
janānāṃ puṇyakarmaṇām |
te dvandvamohanirmuktā
bhajante māṃ dṛḍhavratāḥ ||
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(yeṣām tu antagatam pāpam
janānām puṇyakarmaṇām |
te dvandvamohanirmuktāḥ
bhajante mām dṛḍhavratāḥ ||)
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Meaning :
(In the previous śloka 27, it has been stated that all and every human being is born with a mind occupied with doubt (dvandva / confusion) and delusion (moha) that are with him because are the result of desire (icchā)and envy (dveṣa)
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Note :
A 'self' in a body is because of desire and ignorance of the true nature of the self / consciousness. Because There is a body, that is 'found' in a world, the consciousness confined within the body is occupied with the idea of being some-one, a 'self'. This limitedness causes sense of incompleteness and desire and envy follow. The two powers of prakṛti / manifestation, namely āvaraṇa and vikṣepa, create desire and envy in the mind of such a 'self'. There is yet another power of anugraha (Grace) there in prakṛti / manifestation, that prompts one to think of this whole game and lets him break the bondage of sorrow, the cycle of birth and rebirth, and regain the Reality inherent.
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Chapter 10, śloka 6,

maharṣayaḥ sapta pūrve
catvāro manavastathā |
madbhāvā mānasā jātā
yeṣāṃ loka imāḥ prajāḥ ||
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(maharṣayaḥ sapta pūrve
catvāraḥ manavaḥ tathā |
madbhāvā mānasā jātā
yeṣām loke imāḥ prajāḥ ||)
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Meaning :
Seven Greate sages (sapta rṣi), the four earlier (sanaka, sanātana, sanandana, sanatkumāra) even to those seven, and fourteen  manu, (the foremost forefather of the man-kind), all were created by My own very Being / mind (saṃkalpa).
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