Sunday, October 19, 2014

आज का श्लोक, ’योगमायासमावृतः’ / ’yogamāyāsamāvṛtaḥ’

आज का श्लोक,
’योगमायासमावृतः’ / ’yogamāyāsamāvṛtaḥ’ 
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’योगमायासमावृतः’ / ’yogamāyāsamāvṛtaḥ’  -योगमाया* में आवरित,

अध्याय 7, श्लोक 25,

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजव्ययम् ॥
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(न अहम् प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः
मूढः अयम् न अभिजानाति लोकः माम् अजम् अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
अपनी योगमाया* में अच्छी तरह से आवरित मैं सबको प्रत्यक्ष प्रकटतः नहीं दिखलाई देता । यह मूढ संसार मुझ जन्मरहित अविनाशी मेरे स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है ।
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*टिप्पणी :
(भगवान् की योगमाया के तीन पक्ष हैं - आवरण, विक्षेप और अनुग्रह । इन तीन शक्तियों के प्रभाव से ही आत्मा जीव के रूप में बन्धनग्रस्त होती है और फिर मुक्ति को प्राप्त होकर अपने स्वरूप (भगवान्) में समाहित हो जाती है ।
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’योगमायासमावृतः’ / ’yogamāyāsamāvṛtaḥ’ - hidden under the veil of illusion caused because of my power of manifestation. 

Chapter 7, śloka 25,

nāhaṃ prakāśaḥ sarvasya 
yogamāyāsamāvṛtaḥ |
mūḍho:'yaṃ nābhijānāti 
loko māmajavyayam ||
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(na aham prakāśaḥ sarvasya 
yogamāyāsamāvṛtaḥ |
mūḍhaḥ ayam na abhijānāti 
lokaḥ mām ajam avyayam ||)
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Meaning :
Hidden under My yogamāyā*, I AM not visible to all. So, this world ignorant of My Reality, is unable to know Me, -The Unborn and The Imperishable principle.
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*Note :
yogamāyā is the power that manifests in the 3 forms as : āvaraṇa, vikṣepa, anugraha, 
āvaraṇa,  conceals the Reality from our eyes. 
vikṣepa, imposes upon us something else as true. 
anugraha, is the Grace, that enables to free ourselves from these two kinds which keep us in bondage.
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