आज का श्लोक, ’येन’ / ’yena’
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’येन’ / ’yena’ - जिसके द्वारा,
अध्याय 2, श्लोक 17,
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
--
(अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् ।
विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति ॥)
--
भावार्थ :
नाशरहित तो (तुम) उसको जानो जिससे यह सम्पूर्ण (दृश्य जगत् एवम् दृष्टा भी) व्याप्त है । स्वरूप से ही अविनाशी इस तत्व का जो सबसे / सबमें व्याप्त है, कोई कर सके, ऐसा सक्षम कोई नहीं है ।
--
अध्याय 3, श्लोक 2,
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।
--
(व्यामिश्रेण-इव वाक्येन बुद्धिम् मोहयसि-इव मे ।
तत्-एकम् वद निश्चित्य येन श्रेयः अहम् आप्नुयाम् ॥)
--
भावार्थ :
(अर्जुन बोले): मिले-जुले तात्पर्यवाले जैसे मिश्रित वाक्यों से मुझे लगता है कि आप मेरी बुद्धि को मानों भ्रमित कर रहे हों । इसलिए ऐसा कुछ एक सुनिश्चित कर कहें कि जिससे मुझे श्रेयस्कर की प्राप्ति हो ।
--
अध्याय 4, श्लोक 35,
यज्ज्ञात्वा पुनर्मोहमेवं न यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥
--
(यत् ज्ञात्वा पुनः मोहम् एवम् न यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतानि अशेषेण द्रक्ष्यसि आत्मनि अथो मयि ॥)
--
भावार्थ :
जिसको जानकर, तुम पुनः कभी इस प्रकार के मोह को नहीं प्राप्त होगे, जिसको जानकर, सम्पूर्ण भूतों को वैसे ही (पहले) अपनी आत्मा में देखोगे, जैसा कि (बाद में) मुझमें ।
--
टिप्पणी :
उपरोक्त श्लोक में ’यत्’ / ’जो’ अर्थात् ’जिसको’ का सम्बन्ध पूर्व के श्लोक 34 - ’तद्विद्धि प्रणिपातेन ...’ में वर्णित ’तत्’ / ’उसको’ से है ।
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अध्याय 6, श्लोक 6,
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥
--
(बन्धुः आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एव आत्मना जितः ।
अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत् ॥)
--
भावार्थ : (आत्मा के स्वरूप को जानकर) जिसने आत्मा के द्वारा अपने मन और देह आदि को जीत लिया है उसके लिए उसकी आत्मा बन्धु ही है । दूसरी ओर, जो आत्मा के तत्व से अनभिज्ञ है, ऐसे अनात्मवादी से उसकी निज आत्मा ही शत्रुवत् व्यवहार करती है ।
--
अध्याय 8, श्लोक 22,
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥
--
(पुरुषः सः परः पार्थ भक्त्या लभ्यः तु अनन्यया ।
यस्य अन्तःस्थानि भूतानि येन सर्वम् इदम् ततम् ॥)
--
भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन) जिससे और जिसमें यह सब दृश्य जगत् ओत-प्रोत है, सर्वभूत जिसके ही भीतर अवस्थित हैं, वह पुरुष (परमात्मा) तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता है ।
--
अध्याय 10, श्लोक 10,
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
--
(तेषाम् सततयुक्तानाम् भजताम् प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगम् तम् येन माम् उपयान्ति ते ॥)
--
भावार्थ : उन मुझमें निरन्तर संलग्नचित्त प्रीतिपूर्वक मेरी भक्ति करनेवालों का, वह तत्वज्ञानरूपी योग (मैं) उन्हें प्रदान करता हूँ, जिसकी सहायता से वे मुझको ही प्राप्त होते हैं ।
--
अध्याय 12, श्लोक 19,
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥
--
(तुल्यनिन्दास्तुतिः मौनी सन्तुष्टः येनकेनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिः भक्तिमान् मे प्रियः नरः ॥)
--
भावार्थ :
प्रशंसा और निन्दा को समान समझनेवाला, मननशील, जिस किसी भी परिस्थिति में हो, जो कभी असंतुष्ट नहीं अनुभव करता, गृहविहीन, स्थिरबुद्धि और भक्ति से परिपूर्ण हृदयवाला, ऐसा मनुष्य मुझे प्रिय है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 20,
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
--
(सर्वभूतेषु येन एकम् भावम् अव्ययम् ईक्षते ।
अविभक्तम् विभक्तेषु तत्-ज्ञानम् विद्धि सात्त्विकम् ॥)
--
भावार्थ :
जिस ज्ञान (के माध्यम) से मनुष्य सब भूतों में अविभक्त अर्थात् समान रूप से विद्यमान एक ही अविनाशी परमात्मभाव को देखता है उस ज्ञान को (तुम) सात्त्विक (ज्ञान) जानो ।
--
अध्याय 18, श्लोक 46,
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
--
(यतः प्रवृत्तिः भूतानाम् येन सर्वम् इदं ततम् ।
स्वकर्मणा तम्-अभ्यर्च्य सिद्धिम् विन्दति मानवः ॥)
--
भावार्थ :
जिस मूल तत्व से समस्त प्राणियों में प्रवृत्ति-विशेष का उद्भव होता है, (और जैसे बर्फ़ जल से व्याप्त होता है,) जिससे यह सब-कुछ व्याप्त है, अपने-अपने विशिष्ट स्वाभाविक कर्म (के आचरण) से उसकी आराधना करते हुए मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
--
’येन’ / ’yena’ - he, by one who, (instrumental case), by means of which,
Chapter 2, śloka 17,
avināśi tu tadviddhi
yena sarvamidaṃ tatam |
vināśamavyayāsya
na kaścitkartumarhati ||
--
(avināśi tu tat viddhi
yena sarvam idam tatam |
vināśam avyayasya asya
na kaścit kartum arhati ||)
--
Meaning :
Know that, That (brahman), Which is imperishable pervades all this universe. No one is capable to destroy this imperishable principle, (Brahman).
--
Chapter 3, śloka 2,
vyāmiśreṇeva vākyena
buddhiṃ mohayasīva me |
tadekaṃ vada niścitya
yena śreyo:'hamāpnuyām |
--
(vyāmiśreṇa-iva vākyena
buddhim mohayasi-iva me |
tat-ekam vada niścitya
yena śreyaḥ aham āpnuyām ||)
--
Meaning :
(arjuna said) : Your words seem to conflict and confuse my intellect, therefore please advise me in the appropriate words the exact way so that I may achieve what is the highest good (śreyaḥ) for me.
--
Chapter 4, śloka 35,
yajjñātvā punarmoha-
mevaṃ na yāsyasi pāṇḍava |
yena bhūtānyaśeṣeṇa
drakṣyasyātmanyatho mayi ||
--
(yat jñātvā punaḥ moham
evam na yāsyasi pāṇḍava |
yena bhūtāni aśeṣeṇa
drakṣyasi ātmani atho mayi ||)
--
Meaning :
Which, having known, you shall not again fall prey to delusion like this. Which, having known, You shall see all beings (first) in the Self, (and there-after like-wise) in ME.
--
Note :
'Which' in this śloka 35 is in reference with 'That' / 'tat' in the earlier śloka 34, ’tadviddhi praṇipātena ...’ meaning:
"Know / learn That (Truth / Brahman) by honoring and listening to the wise through proper enquiry into the Truth and they, who have realized this truth, shall point out to you the same, ..."
--
Chapter 6, śloka 6,
bandhurātmātmanastasya
yenātmaivātmanā jitaḥ |
anātmanastu śatrutve
vartetātmaiva śatruvat ||
--
(bandhuḥ ātmā ātmanaḥ tasya
yena ātmā eva ātmanā jitaḥ |
anātmanaḥ tu śatrutve
varteta ātmā eva śatruvat ||)
--
Meaning :
(Having realized the truth of Self) one who has conquered his self (body, and mind) by Means of (this awareness of the true) Self, finds the Self like a brother. On the other hand, one who is ignorant / unaware of (the truth of) Self, his own self (body and mind) treats with him like an enemy.
--
Chapter 8, śloka 22, - That is worth attainable,
puruṣaḥ sa paraḥ pārtha
bhaktyā labhyastvananyayā |
yasyāntaḥsthāni bhūtāni
yena sarvamidaṃ tatam ||
--
(puruṣaḥ saḥ paraḥ pārtha
bhaktyā labhyaḥ tu ananyayā |
yasya antaḥsthāni bhūtāni
yena sarvam idam tatam ||)
--
Meaning :
O pārtha (arjuna)! The Supreme, wherein abides the whole existence, is all over and everywhere yet transcends all, and all beings are within Him, is attained only through devotion extreme.
--
Chapter 10, śloka 10,
teṣāṃ satatayuktānāṃ
bhajatāṃ prītipūrvakam |
dadāmi buddhiyogaṃ taṃ
yena māmupayānti te ||
--
(teṣām satatayuktānām
bhajatām prītipūrvakam |
dadāmi buddhiyogam tam
yena mām upayānti te ||)
--
Meaning :
To those who with their heart and mind dedicated in remembering steadily ME, worshiping ME with deep love always, I give them their own yoga of wisdom (buddhiyoga), by means of which, they attain ME only.
--
Chapter 12, śloka 19,
tulyanindāstutirmaunī
santuṣṭo yenakenacit |
aniketaḥ sthiramatir-
bhaktimānme priyo naraḥ ||
--
(tulyanindāstutiḥ maunī
santuṣṭaḥ yenakenacit |
aniketaḥ sthiramatiḥ
bhaktimān me priyaḥ naraḥ ||)
--
Meaning :
One who is alike in praise and blame, whatever be the situation, has no discontent in mind, who owns no house of one's own to live in (is free from the sense of possession over things and people, -relationships with them), who is firm in thought and is dedicated to Me, is dear to Me.
--
Chapter 18, śloka 20,
sarvabhūteṣu yenaikaṃ
bhāvamavyayamīkṣate |
avibhaktaṃ vibhakteṣu
tajjñānaṃ viddhi sāttvikam ||
--
(sarvabhūteṣu yena ekam
bhāvam avyayam īkṣate |
avibhaktam vibhakteṣu
tat-jñānam viddhi sāttvikam ||)
--
Meaning :
The wisdom which helps one in realizing the same imperishable and unique principle as the unique undivided divine one whole, as the underlying one that is the support of all divided into various different forms, is of the sāttvika kind.
--
Chapter 18, śloka 46,
yataḥ pravṛttirbhūtānāṃ
yena sarvamidaṃ tatam |
svakarmaṇā tamabhyarcya
siddhiṃ vindati mānavaḥ ||
--
(yataḥ pravṛttiḥ bhūtānām
yena sarvam idaṃ tatam |
svakarmaṇā tam-abhyarcya
siddhim vindati mānavaḥ ||)
--
Meaning :
Performing honestly and devotedly all the duties allotted to one, and worshiping in this way The One Supreme, Who is present in all beings, and Who is the Source, from where all the tendencies arise in the heart (of all beings), one attains perfection in one-self.
--
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’येन’ / ’yena’ - जिसके द्वारा,
अध्याय 2, श्लोक 17,
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
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(अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् ।
विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति ॥)
--
भावार्थ :
नाशरहित तो (तुम) उसको जानो जिससे यह सम्पूर्ण (दृश्य जगत् एवम् दृष्टा भी) व्याप्त है । स्वरूप से ही अविनाशी इस तत्व का जो सबसे / सबमें व्याप्त है, कोई कर सके, ऐसा सक्षम कोई नहीं है ।
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अध्याय 3, श्लोक 2,
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।
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(व्यामिश्रेण-इव वाक्येन बुद्धिम् मोहयसि-इव मे ।
तत्-एकम् वद निश्चित्य येन श्रेयः अहम् आप्नुयाम् ॥)
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भावार्थ :
(अर्जुन बोले): मिले-जुले तात्पर्यवाले जैसे मिश्रित वाक्यों से मुझे लगता है कि आप मेरी बुद्धि को मानों भ्रमित कर रहे हों । इसलिए ऐसा कुछ एक सुनिश्चित कर कहें कि जिससे मुझे श्रेयस्कर की प्राप्ति हो ।
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अध्याय 4, श्लोक 35,
यज्ज्ञात्वा पुनर्मोहमेवं न यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥
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(यत् ज्ञात्वा पुनः मोहम् एवम् न यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतानि अशेषेण द्रक्ष्यसि आत्मनि अथो मयि ॥)
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भावार्थ :
जिसको जानकर, तुम पुनः कभी इस प्रकार के मोह को नहीं प्राप्त होगे, जिसको जानकर, सम्पूर्ण भूतों को वैसे ही (पहले) अपनी आत्मा में देखोगे, जैसा कि (बाद में) मुझमें ।
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टिप्पणी :
उपरोक्त श्लोक में ’यत्’ / ’जो’ अर्थात् ’जिसको’ का सम्बन्ध पूर्व के श्लोक 34 - ’तद्विद्धि प्रणिपातेन ...’ में वर्णित ’तत्’ / ’उसको’ से है ।
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अध्याय 6, श्लोक 6,
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥
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(बन्धुः आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एव आत्मना जितः ।
अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत् ॥)
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भावार्थ : (आत्मा के स्वरूप को जानकर) जिसने आत्मा के द्वारा अपने मन और देह आदि को जीत लिया है उसके लिए उसकी आत्मा बन्धु ही है । दूसरी ओर, जो आत्मा के तत्व से अनभिज्ञ है, ऐसे अनात्मवादी से उसकी निज आत्मा ही शत्रुवत् व्यवहार करती है ।
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अध्याय 8, श्लोक 22,
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥
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(पुरुषः सः परः पार्थ भक्त्या लभ्यः तु अनन्यया ।
यस्य अन्तःस्थानि भूतानि येन सर्वम् इदम् ततम् ॥)
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भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन) जिससे और जिसमें यह सब दृश्य जगत् ओत-प्रोत है, सर्वभूत जिसके ही भीतर अवस्थित हैं, वह पुरुष (परमात्मा) तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता है ।
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अध्याय 10, श्लोक 10,
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
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(तेषाम् सततयुक्तानाम् भजताम् प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगम् तम् येन माम् उपयान्ति ते ॥)
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भावार्थ : उन मुझमें निरन्तर संलग्नचित्त प्रीतिपूर्वक मेरी भक्ति करनेवालों का, वह तत्वज्ञानरूपी योग (मैं) उन्हें प्रदान करता हूँ, जिसकी सहायता से वे मुझको ही प्राप्त होते हैं ।
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अध्याय 12, श्लोक 19,
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥
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(तुल्यनिन्दास्तुतिः मौनी सन्तुष्टः येनकेनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिः भक्तिमान् मे प्रियः नरः ॥)
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भावार्थ :
प्रशंसा और निन्दा को समान समझनेवाला, मननशील, जिस किसी भी परिस्थिति में हो, जो कभी असंतुष्ट नहीं अनुभव करता, गृहविहीन, स्थिरबुद्धि और भक्ति से परिपूर्ण हृदयवाला, ऐसा मनुष्य मुझे प्रिय है ।
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अध्याय 18, श्लोक 20,
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
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(सर्वभूतेषु येन एकम् भावम् अव्ययम् ईक्षते ।
अविभक्तम् विभक्तेषु तत्-ज्ञानम् विद्धि सात्त्विकम् ॥)
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भावार्थ :
जिस ज्ञान (के माध्यम) से मनुष्य सब भूतों में अविभक्त अर्थात् समान रूप से विद्यमान एक ही अविनाशी परमात्मभाव को देखता है उस ज्ञान को (तुम) सात्त्विक (ज्ञान) जानो ।
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अध्याय 18, श्लोक 46,
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
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(यतः प्रवृत्तिः भूतानाम् येन सर्वम् इदं ततम् ।
स्वकर्मणा तम्-अभ्यर्च्य सिद्धिम् विन्दति मानवः ॥)
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भावार्थ :
जिस मूल तत्व से समस्त प्राणियों में प्रवृत्ति-विशेष का उद्भव होता है, (और जैसे बर्फ़ जल से व्याप्त होता है,) जिससे यह सब-कुछ व्याप्त है, अपने-अपने विशिष्ट स्वाभाविक कर्म (के आचरण) से उसकी आराधना करते हुए मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
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’येन’ / ’yena’ - he, by one who, (instrumental case), by means of which,
Chapter 2, śloka 17,
avināśi tu tadviddhi
yena sarvamidaṃ tatam |
vināśamavyayāsya
na kaścitkartumarhati ||
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(avināśi tu tat viddhi
yena sarvam idam tatam |
vināśam avyayasya asya
na kaścit kartum arhati ||)
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Meaning :
Know that, That (brahman), Which is imperishable pervades all this universe. No one is capable to destroy this imperishable principle, (Brahman).
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Chapter 3, śloka 2,
vyāmiśreṇeva vākyena
buddhiṃ mohayasīva me |
tadekaṃ vada niścitya
yena śreyo:'hamāpnuyām |
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(vyāmiśreṇa-iva vākyena
buddhim mohayasi-iva me |
tat-ekam vada niścitya
yena śreyaḥ aham āpnuyām ||)
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Meaning :
(arjuna said) : Your words seem to conflict and confuse my intellect, therefore please advise me in the appropriate words the exact way so that I may achieve what is the highest good (śreyaḥ) for me.
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Chapter 4, śloka 35,
yajjñātvā punarmoha-
mevaṃ na yāsyasi pāṇḍava |
yena bhūtānyaśeṣeṇa
drakṣyasyātmanyatho mayi ||
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(yat jñātvā punaḥ moham
evam na yāsyasi pāṇḍava |
yena bhūtāni aśeṣeṇa
drakṣyasi ātmani atho mayi ||)
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Meaning :
Which, having known, you shall not again fall prey to delusion like this. Which, having known, You shall see all beings (first) in the Self, (and there-after like-wise) in ME.
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Note :
'Which' in this śloka 35 is in reference with 'That' / 'tat' in the earlier śloka 34, ’tadviddhi praṇipātena ...’ meaning:
"Know / learn That (Truth / Brahman) by honoring and listening to the wise through proper enquiry into the Truth and they, who have realized this truth, shall point out to you the same, ..."
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Chapter 6, śloka 6,
bandhurātmātmanastasya
yenātmaivātmanā jitaḥ |
anātmanastu śatrutve
vartetātmaiva śatruvat ||
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(bandhuḥ ātmā ātmanaḥ tasya
yena ātmā eva ātmanā jitaḥ |
anātmanaḥ tu śatrutve
varteta ātmā eva śatruvat ||)
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Meaning :
(Having realized the truth of Self) one who has conquered his self (body, and mind) by Means of (this awareness of the true) Self, finds the Self like a brother. On the other hand, one who is ignorant / unaware of (the truth of) Self, his own self (body and mind) treats with him like an enemy.
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Chapter 8, śloka 22, - That is worth attainable,
puruṣaḥ sa paraḥ pārtha
bhaktyā labhyastvananyayā |
yasyāntaḥsthāni bhūtāni
yena sarvamidaṃ tatam ||
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(puruṣaḥ saḥ paraḥ pārtha
bhaktyā labhyaḥ tu ananyayā |
yasya antaḥsthāni bhūtāni
yena sarvam idam tatam ||)
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Meaning :
O pārtha (arjuna)! The Supreme, wherein abides the whole existence, is all over and everywhere yet transcends all, and all beings are within Him, is attained only through devotion extreme.
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Chapter 10, śloka 10,
teṣāṃ satatayuktānāṃ
bhajatāṃ prītipūrvakam |
dadāmi buddhiyogaṃ taṃ
yena māmupayānti te ||
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(teṣām satatayuktānām
bhajatām prītipūrvakam |
dadāmi buddhiyogam tam
yena mām upayānti te ||)
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Meaning :
To those who with their heart and mind dedicated in remembering steadily ME, worshiping ME with deep love always, I give them their own yoga of wisdom (buddhiyoga), by means of which, they attain ME only.
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Chapter 12, śloka 19,
tulyanindāstutirmaunī
santuṣṭo yenakenacit |
aniketaḥ sthiramatir-
bhaktimānme priyo naraḥ ||
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(tulyanindāstutiḥ maunī
santuṣṭaḥ yenakenacit |
aniketaḥ sthiramatiḥ
bhaktimān me priyaḥ naraḥ ||)
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Meaning :
One who is alike in praise and blame, whatever be the situation, has no discontent in mind, who owns no house of one's own to live in (is free from the sense of possession over things and people, -relationships with them), who is firm in thought and is dedicated to Me, is dear to Me.
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Chapter 18, śloka 20,
sarvabhūteṣu yenaikaṃ
bhāvamavyayamīkṣate |
avibhaktaṃ vibhakteṣu
tajjñānaṃ viddhi sāttvikam ||
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(sarvabhūteṣu yena ekam
bhāvam avyayam īkṣate |
avibhaktam vibhakteṣu
tat-jñānam viddhi sāttvikam ||)
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Meaning :
The wisdom which helps one in realizing the same imperishable and unique principle as the unique undivided divine one whole, as the underlying one that is the support of all divided into various different forms, is of the sāttvika kind.
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Chapter 18, śloka 46,
yataḥ pravṛttirbhūtānāṃ
yena sarvamidaṃ tatam |
svakarmaṇā tamabhyarcya
siddhiṃ vindati mānavaḥ ||
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(yataḥ pravṛttiḥ bhūtānām
yena sarvam idaṃ tatam |
svakarmaṇā tam-abhyarcya
siddhim vindati mānavaḥ ||)
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Meaning :
Performing honestly and devotedly all the duties allotted to one, and worshiping in this way The One Supreme, Who is present in all beings, and Who is the Source, from where all the tendencies arise in the heart (of all beings), one attains perfection in one-self.
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