आज का श्लोक,
’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’
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’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’ - योगविषयक लक्ष्य पर एकाग्र होने के प्रति,
अध्याय 8, श्लोक 12,
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सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥
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(सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्नि आधायात्मनः प्राणम् आस्थितः योगधारणम् ॥)
--
भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात् 'हृदय' में ठहराकर और पुनः उन मार्गों पर न जाने देकर (चित्त निरोध )। प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
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’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’ - in the effort of fixing the attention on the object of yoga,
Chapter 8, śloka 12,
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sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhnyādhāyātmanaḥ
prāṇamāsthito yogadhāraṇām ||
--
(sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhni ādhāyātmanaḥ
prāṇam āsthitaḥ yogadhāraṇam ||)
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Meaning :
Controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy ((प्राण / prāṇa-s) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
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’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’
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’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’ - योगविषयक लक्ष्य पर एकाग्र होने के प्रति,
अध्याय 8, श्लोक 12,
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सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥
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(सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्नि आधायात्मनः प्राणम् आस्थितः योगधारणम् ॥)
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भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात् 'हृदय' में ठहराकर और पुनः उन मार्गों पर न जाने देकर (चित्त निरोध )। प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
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’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’ - in the effort of fixing the attention on the object of yoga,
Chapter 8, śloka 12,
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sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhnyādhāyātmanaḥ
prāṇamāsthito yogadhāraṇām ||
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(sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhni ādhāyātmanaḥ
prāṇam āsthitaḥ yogadhāraṇam ||)
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Meaning :
Controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy ((प्राण / prāṇa-s) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
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