आज का श्लोक,
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अध्याय 9, श्लोक 5,
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥
--
(न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगम् ऐश्वरम् ।
भूतभृत् न च भूतस्थः मम आत्मा भूतभावनः ॥)
--
भावार्थ :
मेरे ईश्वरीय योग-सामर्थ्य को देखो कि यद्यपि ये भूत मुझमें नहीं हैं किन्तु फिर भी समस्त भूतों में उनके आधारभूत की तरह स्थित हुआ मैं ही उनका पालन-पोषण करता हूँ और मेरी आत्मा अर्थात् स्वरूप उन्हें अत्यन्त प्रिय है ।
--
टिप्पणी :
1. इसी अध्याय के श्लोक 4 में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्वस्थितः ॥
--
(मया ततम् इदम् सर्वम् जगत् अव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्वस्थितः ॥)
--
भावार्थ :
मुझ अव्यक्तस्वरूप (निराकार) से यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है । और सम्पूर्ण भूत मेरे ही आश्रय से मुझमें स्थित हैं, न कि मैं उनमें ।
--
टिप्पणी :
सम्पूर्ण जगत् एवम् भूत आदि अपने अस्तित्व के प्रमाण के लिए किसी चेतन सत्ता के आश्रित होते हैं, जबकि वह चेतन सत्ता अपने अस्तित्व का प्रमाण स्वयं ही है । इस प्रकार से ’चेतनता’ के सर्वव्यापक होने के तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । वही चेतनता किसी देह में प्राणरूप से व्यक्त होने पर उसे व्यक्ति-विशेष के रूप में अभिव्यक्त करती है । इस प्रकार से चेतनता की अभिव्यक्ति होने के पश्चात् ही ’मैं’ यह-यह, इस प्रकार का हूँ आदि भावनाएँ मन-मस्तिष्क में उत्पन्न होती हैं । इस प्रकार से परिभाषित हुआ ’व्यक्ति’, विनाशशील कल्पना मात्र है, जबकि इस कल्पना का आश्रय अविनाशी परमात्मा ।
और प्रस्तुत श्लोक में वे कहते हैं :
’... न च मत्स्थानि भूतानि’ (अर्थात् वे भूत, मुझमें नहीं हैं ।) क्या यह विरोधाभासी नहीं जान पड़ता । किन्तु अगर इन दोनों वक्तव्यों को समन्वित रूप से देखें तो विरोधाभास तत्क्षण दूर हो जाता है । यद्यपि वे भूत ’चेतन-सत्ता के आश्रित हैं , किन्तु चेतन-सत्ता स्वयं उनके आश्रित नहीं । उन भूत-समुदाय की सत्ता उस चेतन-सत्ता के आश्रय से और उसके ही अन्तर्गत है, किन्तु वह चेतन-सत्ता, उनसे सर्वथा अस्पर्शित, स्वतन्त्र है । यह है योग-ऐश्वर ।
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2.अध्याय 10 के श्लोक 22 में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं, :
’ ... भूतानामस्मि चेतना ॥’
इसका तात्पर्य यह हुआ कि चेतना अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियों में अपने होने का सहज-बोध ही उस परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन है । वह परमात्मा इन सब की आधारभूत चेतना होते हुए वही सब के होने का और बने रहने का आदि और आधारभूत कारण है, वही सबका पालनकर्ता है, और यह भी स्पष्ट है कि हर किसी को अपना होना, अपने प्राण सर्वाधिक प्रिय होते हैं ।
--
Chapter 9, śloka 5,
na ca matsthāni bhūtāni
paśya me yogamaiśvaram |
bhūtabhṛnna ca bhūtastho
mamātmā bhūtabhāvanaḥ ||
--
(na ca matsthāni bhūtāni
paśya me yogam aiśvaram |
bhūtabhṛt na ca bhūtasthaḥ
mama ātmā bhūtabhāvanaḥ ||)
--
Meaning :
See My Divine splendor of Yoga! These beings are not there in Me, though I AM ever there, in the core of their very being* and I sustain them. I AM their Beloved and keep them happy.
--
*Note :
Which can be easily realized as one's own consciousness. They love their being, and their own consciousness, Though they seem to distinguish between these two aspects of MY / their own Reality, nevertheless they love ME, because they love themselves utterly.
2.To understand the purport of this śloka 5, reference to śloka 4, is very much helpful. It is suggested to the reader to find out the paradox between these two śloka-s 4 and 5, and see what is 'yogamaiśvaram', the divine-splendor that clears away this doubt / paradox.
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अध्याय 9, श्लोक 5,
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥
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(न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगम् ऐश्वरम् ।
भूतभृत् न च भूतस्थः मम आत्मा भूतभावनः ॥)
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भावार्थ :
मेरे ईश्वरीय योग-सामर्थ्य को देखो कि यद्यपि ये भूत मुझमें नहीं हैं किन्तु फिर भी समस्त भूतों में उनके आधारभूत की तरह स्थित हुआ मैं ही उनका पालन-पोषण करता हूँ और मेरी आत्मा अर्थात् स्वरूप उन्हें अत्यन्त प्रिय है ।
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टिप्पणी :
1. इसी अध्याय के श्लोक 4 में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्वस्थितः ॥
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(मया ततम् इदम् सर्वम् जगत् अव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्वस्थितः ॥)
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भावार्थ :
मुझ अव्यक्तस्वरूप (निराकार) से यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है । और सम्पूर्ण भूत मेरे ही आश्रय से मुझमें स्थित हैं, न कि मैं उनमें ।
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टिप्पणी :
सम्पूर्ण जगत् एवम् भूत आदि अपने अस्तित्व के प्रमाण के लिए किसी चेतन सत्ता के आश्रित होते हैं, जबकि वह चेतन सत्ता अपने अस्तित्व का प्रमाण स्वयं ही है । इस प्रकार से ’चेतनता’ के सर्वव्यापक होने के तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । वही चेतनता किसी देह में प्राणरूप से व्यक्त होने पर उसे व्यक्ति-विशेष के रूप में अभिव्यक्त करती है । इस प्रकार से चेतनता की अभिव्यक्ति होने के पश्चात् ही ’मैं’ यह-यह, इस प्रकार का हूँ आदि भावनाएँ मन-मस्तिष्क में उत्पन्न होती हैं । इस प्रकार से परिभाषित हुआ ’व्यक्ति’, विनाशशील कल्पना मात्र है, जबकि इस कल्पना का आश्रय अविनाशी परमात्मा ।
और प्रस्तुत श्लोक में वे कहते हैं :
’... न च मत्स्थानि भूतानि’ (अर्थात् वे भूत, मुझमें नहीं हैं ।) क्या यह विरोधाभासी नहीं जान पड़ता । किन्तु अगर इन दोनों वक्तव्यों को समन्वित रूप से देखें तो विरोधाभास तत्क्षण दूर हो जाता है । यद्यपि वे भूत ’चेतन-सत्ता के आश्रित हैं , किन्तु चेतन-सत्ता स्वयं उनके आश्रित नहीं । उन भूत-समुदाय की सत्ता उस चेतन-सत्ता के आश्रय से और उसके ही अन्तर्गत है, किन्तु वह चेतन-सत्ता, उनसे सर्वथा अस्पर्शित, स्वतन्त्र है । यह है योग-ऐश्वर ।
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2.अध्याय 10 के श्लोक 22 में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं, :
’ ... भूतानामस्मि चेतना ॥’
इसका तात्पर्य यह हुआ कि चेतना अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियों में अपने होने का सहज-बोध ही उस परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन है । वह परमात्मा इन सब की आधारभूत चेतना होते हुए वही सब के होने का और बने रहने का आदि और आधारभूत कारण है, वही सबका पालनकर्ता है, और यह भी स्पष्ट है कि हर किसी को अपना होना, अपने प्राण सर्वाधिक प्रिय होते हैं ।
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Chapter 9, śloka 5,
na ca matsthāni bhūtāni
paśya me yogamaiśvaram |
bhūtabhṛnna ca bhūtastho
mamātmā bhūtabhāvanaḥ ||
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(na ca matsthāni bhūtāni
paśya me yogam aiśvaram |
bhūtabhṛt na ca bhūtasthaḥ
mama ātmā bhūtabhāvanaḥ ||)
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Meaning :
See My Divine splendor of Yoga! These beings are not there in Me, though I AM ever there, in the core of their very being* and I sustain them. I AM their Beloved and keep them happy.
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*Note :
Which can be easily realized as one's own consciousness. They love their being, and their own consciousness, Though they seem to distinguish between these two aspects of MY / their own Reality, nevertheless they love ME, because they love themselves utterly.
2.To understand the purport of this śloka 5, reference to śloka 4, is very much helpful. It is suggested to the reader to find out the paradox between these two śloka-s 4 and 5, and see what is 'yogamaiśvaram', the divine-splendor that clears away this doubt / paradox.
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