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Sunday, April 17, 2022

सम्मोह, स्मृति और ध्यान

अध्याय २

ध्यायतो विषयान्पुन्सः संगस्तेषूपजायते।।

सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।६२।।

क्रोधात्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।६३।।

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अध्याय ६

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्लमस्थिरम्।। 

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।

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अध्याय ७

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत।। 

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

अध्याय १८

श्रीभगवानुवाच --

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।। 

कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।। ७२।।

अर्जुन उवाच --

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा  त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।७३।।

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जब पुरुष / मनुष्य जिस भी किसी विषय का ध्यान करता है, या जब किसी विषय पर उसका ध्यान होता है तो उसका चित्त उस विषय से जुड़ जाता है। इस प्रकार किसी भी विषय से जुड़ते ही उस विषय से संबंधित कामना जन्म लेती है और उस कामना के पूर्ण न होने से, या कामना से विपरीत, अनचाहा अनुभव प्राप्त होने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध के परिणाम से सम्मोह चित्त को अभिभूत कर लेता है। सम्मोह के प्रभाव से स्मृति का भ्रंश होकर स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति के भ्रष्ट होने का तात्पर्य है, विभिन्न स्थितियों, वस्तुओं आदि को उनके वास्तविक स्वरूप से न देखकर अन्य किसी और ही कल्पना को विषय पर आरोपित कर दिया जाता है। तब मनुष्य की बुद्धि में भी विकार उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार बुद्धि के नष्ट हो जाने से मनुष्य भी नष्ट हो जाता है। 

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चञ्चल मन जहाँ जहाँ भटकता हो, वहाँ वहाँ से उसे पुनः पुनः लौटकर अपनी आत्मा के ही वश में लाया जाना आवश्यक है, (ताकि वह विषयों से संलग्न ही न हो।)

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हे परन्तप! मनुष्य-मात्र में, जन्मजात ही (सुख-प्राप्ति की) इच्छा और (दुःख प्राप्त न हो, या दुःख से भयरूपी) द्वेष की भावना  भावना विद्यमान होती है। और उन दोनों के बीच द्वन्द्व-रूपी मोह होने से निरपवाद रूप से प्रत्येक मनुष्य जन्म से ही संभ्रम-युक्त मोह से ग्रस्त होता है।

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भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा --

हे अर्जुन! मैंने तुमसे जो कुछ भी कहा, क्या एकाग्र-चित्त होकर तुमने उसका श्रवण किया? क्या तुम्हारा अज्ञान और संशय पूरी तरह से नष्ट हुआ?

अर्जुन ने कहा --

हे अच्युत! तुम्हारी कृपा के प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया और मेरी स्मृति भी दोषरहित होकर पुनः मुझे प्राप्त हो गयी। अब मेरे हृदय से सन्देह भी दूर हो गया है, इसलिए अब मैं वही करूँगा, जैसा करने के लिए तुमने मुझसे कहा है।

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Thursday, March 24, 2022

I just don't know ...

About :

--

I just don't know,

Who is / are viewing this blog,

For whatsoever reasons.

But I would sure like to thank them all.

Obeisance :

At the Holy feet of Lord Sri-Krishna, who dwells in the heart of all and everyone! 

Regards!

May Krishna shower His Blessings / grace upon all who go through / study / worship / adore / follow this great text.

***

श्री भगवानुवाच :

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।। 

भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।६१।।

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।। 

तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।६२।।

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।। 

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।६३।।

सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः।। 

इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ।।६४।।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।। 

मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।६५।।

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।। 

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।६६।।

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।६७।।

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।। 

भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।।६८।।

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।।

भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।६९।।

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।। 

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।।७०।।

श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः।। 

सोऽपि मुक्तः शुभान्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।।७१।।

कच्चितैच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।।

कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।७२।।

अर्जुन उवाच :

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।७३।।

सञ्जय उवाच :

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।। 

संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।७४।।

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।। 

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।।७५।।

राजन्स्मृसंत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।। 

केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।।७६।।

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।। 

विस्मयो मे महान्-राजन्-हृष्यामि च पुनः पुनः।।७७।।

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।। 

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।७८।।

***

समाप्तमिदं गीताशास्त्रम् ।।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

।।श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।

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Monday, July 21, 2014

आज का श्लोक, ’श्रुतम्’ / ’śrutam’,

आज का श्लोक, ’श्रुतम्’ / ’śrutam’
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’श्रुतम्’ / ’śrutam’ - सुना गया,

अध्याय 18, श्लोक 72,

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेणचेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ॥
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(कच्चित् एतत् श्रुतम् पार्थ त्वया एकाग्रेण चेतसा ।
कच्चित् अज्ञानसम्मोहः प्रनष्टः ते धनञ्जय ॥)
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भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! क्या तुमने इसे एकाग्रचित्त होकर सुना? हे धनञ्जय (अर्जुन)! क्या (इसे सुनकर) तुम्हारा अज्ञानजनित मोह मष्ट हुआ?
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’श्रुतम्’ / ’śrutam’ - has been heard, listened to,

Chapter 18, śloka 72,

kaccidetacchrutaṃ pārtha
tvayaikāgreṇacetasā |
kaccidajñānasammohaḥ
pranaṣṭaste dhanañjaya ||
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(kaccit etat śrutam pārtha
tvayā ekāgreṇa cetasā |
kaccit ajñānasammohaḥ
pranaṣṭaḥ te dhanañjaya ||)
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Meaning :
O  pārtha (arjuna) ! Did you hear this all with keen, undivided attention?
O dhanañjaya (arjuna)! and, (having heard this), Are your confusions and doubts born of the delusion cleared away?
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