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Sunday, April 20, 2025

8/12, 8/13 मुक्ति / मोक्ष

Self-Delivery

आत्ममुक्ति

स्वेच्छा से मृत्यु का वरण 

यहाँ आवश्यकता होने पर स्वेच्छा मृत्यु का वरण कैसे किया जा सकता है इस बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ८ के श्लोक क्रमांक १२ और १३ के संदर्भ में स्पष्ट निर्देश है —

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।

मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।१२।।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।१३।।

उपरोक्त श्लोकों में इस प्रकार से स्वेच्छा मृत्यु को वरण करने की विधि स्पष्ट की गई है –

जो भी इस प्रकार से अभ्यासपूर्वक इस क्रम को अच्छी तरह से कर सकता है उसे परम गति अर्थात् मोक्ष की या ईश्वर की प्राप्ति होती है।

इसके लिए इसके प्रत्येक भाग को ठीक से समझकर उसमें दक्षता प्राप्त होने पर ही यह संभव हो पाता है। यदि पहले से पर्याप्त अभ्यास न किया गया हो तो यह संभव नहीं हो पाता।

Here Gita categorically describes that an aspirant having well-practiced the four key-instructions – namely :

1.Having withdrawn attention from the outgoing senses,

2.Having mind / consciousness / attention fixed firmly in the “heart” / sense of :

Being and Knowing,

3.Having the vital breath established in the 

मूर्ध्नि आधाय (मूर्ध्ना सप्तमी एकवचन)

प्राणम् (द्वितीया एकवचन) 

4.  व्याहरन्  contemplating about / of

ॐ इति एकाक्षरम् ब्रह्म

Thus : The single letter Brahman “Om”

5.मामनुस्मरन् – माम् अनुस्मरन्

And remembering accordingly

“I-AM” / The Self,

One who relinquishes the body,

Attains the State Supreme.

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। 

उपरोक्त आलेख मेरे वर्डप्रेस ब्लॉग के उस पोस्ट से लिया गया है जहाँ मैंने अहं ब्रह्मास्मि के अध्याय 91 का पॉडकास्ट शेयर किया है। इसलिए इसे उस संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

स्वेच्छामृत्यु की अवधारणा इस भ्रम पर आधारित है कि मनुष्य अपनी मृत्यु का चुनाव और वरण करने के लिए स्वतंत्र है। प्रायः आत्महत्या को भय, कायरता से प्रेरित कृत्य समझा जाता है और सामान्य मनुष्य ही नहीं बल्कि बहुत बड़े बड़े बुद्धिजीवी और विद्वान् भी यह समझने में असमर्थ रहते हैं कि प्रत्येक उस जन्म लेनेवाले प्राणी की मृत्यु - वह किस प्रकार से और आयु के किस मोड़ पर होगी, उसके जन्म लेने के समय पर ही विधाता के द्वारा सुनिश्चित हो जाती है और कोई भी आत्महत्या करने या न करने के लिए स्वतंत्र नहीं है।

फिर भी औपचारिक रूप से और प्रसंगवश श्रीमद्भगवद्गीता में योगसाधना करनेवाले मनुष्य के लिए यह निर्देश दिया गया है कि वह किस प्रकार अपने जीवन के अंतिम समय का सदुपयोग इस प्रकार से कर सकता है जिससे कि उसे मृत्यु के बाद परम गति प्राप्त हो।

***


Friday, July 30, 2021

संयम

पातञ्जल योग-सूत्रों में वर्णित संयम 

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श्रीमदभगवद्गीता में 

"संयम" 

शब्द का प्रयोग क्रमशः इस प्रकार से है :

अध्याय २

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।६१।।

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। 

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।६९।।

अध्याय ३

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। 

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।६।।

अध्याय ४

श्रोत्रादीनिन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति। 

शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति।। २६

अध्याय ६

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः। 

मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।। १४

अध्याय ८

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च। 

मूर्ध्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।१२।।

अध्याय १०

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्। 

पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्।।२९।।

पातञ्जल योग-दर्शन के चार अध्यायों में से समाधिपाद नामक पहले अध्याय में समाधि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

दूसरे अध्याय साधनपाद में समाधि की प्रक्रिया में जिन साधनों की सहायता लेना आवश्यक है, उन साधनों का वर्णन विस्तार से किया गया है। 

उन साधनों का ठीक से प्रयोग करने पर चित्त का रूपान्तरण जिस प्रकार से हो जाता है, और आत्मा के स्वरूप को जानकर वह जिस कैवल्य में दृढतापूर्वक अधिष्ठित हो जाता है,  उस कैवल्य-मुक्ति का वर्णन किया गया है। 

विभूतिपाद के प्रथम तीन सूत्र क्रमशः इस प्रकार से हैं :

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।।१।।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।३।।

उपरोक्त सूत्र में समाधिपाद के सूत्र :

स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ।।४३।।

का संदर्भ 'स्वरूपशून्यमिव' के तुल्य और समानार्थी भी है।

इस प्रकार गीता में प्रयुक्त 'समाधि' तथा 'ध्यान', 'संयम' की सिद्धि में सहायक हैं और 'धारणा', 'ध्यान' तथा 'समाधि' का सामान्य और विशेष अर्थ 'संयम' के संदर्भ में दृष्टव्य है ।

***





Friday, August 30, 2019

आस्थाय 7/20, आस्थितः 5/4, 6/31, 7/18, 8/12, आस्थिताः 3/20,

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
आस्थाय 7/20,
आस्थितः 5/4, 6/31, 7/18, 8/12,
आस्थिताः 3/20,
--            

Thursday, August 29, 2019

आधत्स्व, आधाय, आधिपत्यम्

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
आधत्स्व 12/8,
आधाय 5/10, 8/12,
आधिपत्यम् 2/8,
--          

Wednesday, August 28, 2019

आत्मनः ... 2.

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
आत्मनः 8/12, 10/18, 16/21, 16/22, 17/19, 18/39,
--            

Monday, October 20, 2014

आज का श्लोक, ’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’

आज का श्लोक,
’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’
___________________________

’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’ - योगविषयक लक्ष्य पर एकाग्र होने के प्रति,

अध्याय 8, श्लोक 12,
--
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो  योगधारणाम्
--
(सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्नि आधायात्मनः प्राणम् आस्थितः योगधारणम् ॥)
--

भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख  होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात्  'हृदय' में ठहराकर  और पुनः उन मार्गों पर न जाने  देकर  (चित्त निरोध )।  प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर  (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
--

’योगधारणाम्’ / ’yogadhāraṇām’ - in the effort of fixing the attention on the object of yoga,

Chapter 8, śloka 12,
--
sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhnyādhāyātmanaḥ
prāṇamāsthito yogadhāraṇām ||
--
(sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhni ādhāyātmanaḥ
prāṇam āsthitaḥ yogadhāraṇam ||)
--

Meaning :
Controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy ((प्राण / prāṇa-s) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
--

Saturday, June 28, 2014

आज का श्लोक, ’सर्वद्वाराणि’ / ’sarvadvārāṇi’

आज का श्लोक,
’सर्वद्वाराणि’ / ’sarvadvārāṇi’
_______________________

’सर्वद्वाराणि’ / ’sarvadvārāṇi’ - इन्द्रियों रूपी द्वार जिनसे चित्त बाहर की दिशा में जाता है ।

अध्याय 8, श्लोक 12,
--
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो  योगधारणाम् ॥
--
(सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्नि आधायात्मनः प्राणम् आस्थितः योगधारणम् ॥)
--

भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख  होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात्  'हृदय' में ठहराकर  और पुनः उन मार्गों पर न जाने  देकर  (चित्त निरोध )।  प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर  (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
--
’सर्वद्वाराणि’ / ’sarvadvārāṇi’ -all the senses that are door for the attention of mind to go in the outward direction, away from the 'Self'.

Chapter 8, śloka 12,
--
sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhnyādhāyātmanaḥ
prāṇamāsthito  yogadhāraṇām ||
--
(sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhni ādhāyātmanaḥ
prāṇam āsthitaḥ yogadhāraṇam ||)
--

Meaning :
Controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy (prANas) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
--

Friday, May 9, 2014

आज का श्लोक, ’संयम्य’ / ’saṃyamya’

आज का श्लोक,  ’संयम्य’ / ’ saṃyamya ’  
_______________________________

’संयम्य’ / ’saṃyamya’  - नियन्त्रण में रखते हुए,

अध्याय 2, श्लोक 61,
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तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
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(तानि सर्वाणि संयम्य युक्तः आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्य इन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥)
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भावार्थ :
(श्लोक 58, 59,60 में कहा गया है कि किस प्रकार इन्द्रियों को भीतर की ओर अन्तर्मुख किया जाता है, और योगाभ्यास में संलग्न मनुष्य की इन्द्रियाँ विषयों से दूर रहने पर भी विषयों (के  भोगों) के प्रति मन की राग-बुद्धि समाप्त नहीं होती, और इसलिए कैसे बुद्धिमान मनुष्य के मन को भी इन्द्रियाँ बलपूर्वक हर लेती हैं । और इस राग-बुद्धि की निवृत्ति तो परमेश्वर के साक्षात्कार से ही होती है । इसलिए,)
जो उन सभी इन्द्रियों को संयमित रखते हुए मुझमें समाहित चित्त हुआ, मुझमें अर्पित मन वाला होता है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित, सुस्थिर हो जाती है ।
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अध्याय 3, श्लोक 6,

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
--
(कर्मेन्द्रियाणि संयम्य यः आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः सः उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर, उन्हें उनके विषयों से दूर रखते हुए भी, मन से इन्द्रियों के उन विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 14,
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प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥)
--
(प्रशान्तात्मा विगतभीः ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तः युक्तः आसीत् मत्परः ॥)
--
भावार्थ :
जिसकी वृत्तियाँ शान्त हों, जो भयरहित हो, ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित हो, मन को बाह्य विषयों में जाने से रोककर मुझमें संलग्नचित्त होकर मेरे परायण होकर मुझमें
निमग्न रहे ।
--
अध्याय 8, श्लोक 12,
--
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो  योगधारणाम् ॥
--
(सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्नि आधायात्मनः प्राणम् आस्थितः योगधारणम् ॥)
--

भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख  होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात्  'हृदय' में ठहराकर  और पुनः उन मार्गों पर न जाने  देकर  (चित्त निरोध )।  प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर  (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
--
’संयम्य’ / ’saṃyamya’ - having restrained, controlled,

Chapter 2, shloka 61,

tāni sarvāṇi saṃyamya 
yukta āsīta matparaḥ |
vaśe hi yasyendriyāṇi
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
--
(tāni sarvāṇi saṃyamya 
yuktaḥ āsīta matparaḥ |
vaśe hi yasya indriyāṇi
tasyua prajñā pratiṣṭhitā ||)
--
Meaning :
[śloka 58, 59, 60 of this Chapter 2 describe that the aspirant though practices withdrawing the mind and senses inwards, the sense-organs keep attracting him forcefully towards the objects of enjoyments and the sense of pleasure from them remains intact. This sense of pleasure is lost only when one has seen the Supreme, The 'Self', Me (Divine). So, ... ]
Having restrained those sense-organs, One who keeps them under control, who is devoted to Me, such a man is said to have steady wisdom.
--  
 
Chapter 3, shloka 6,

karmendriyāṇi saṃyamya 
ya āste manasā smaran |
indriyārthānvimūḍhātmā
mithyācāraḥ sa ucyate ||
--
(karmendriyāṇi saṃyamya 
yaḥ āste manasā smaran |
indriyārthān vimūḍhātmā
mithyācāraḥ saḥ ucyate ||)
--
Meaning :
One who though outwardly restraining the organs, keeps on indulging in the the thoughts of the objects and the pleasures that are enjoyed from them, is verily deluded and is a hypocrite.
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Chapter 6, shloka 14,
--
praśāntātmā vigatabhīr-
brahmacārivrate sthitaḥ |
manaḥ saṃyamya maccitto
yukta āsīta matparaḥ ||)
--
(praśāntātmā vigatabhīḥ
brahmacārivrate sthitaḥ |
manaḥ saṃyamya maccittaḥ
yuktaḥ āsīt matparaḥ ||)
--

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Meaning :
One who has all the vRtti -s / (various modes of the mind) pacified, subsided, and thus has quiet in mind, who has no fear, one who dwells in the contemplation of 'Brahman', who is free from the complexities and obtuseness of mind,  and thus has spontaneous control over the mind, who is devoted and absorbed in 'Me', One so having attained 'Me', ...
--
Chapter 8, shloka 12,

sarvadvārāṇi saṃyamya
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhnyādhāyātmanaḥ prāṇa-
māsthito  yogadhāraṇām ||
--
(sarvadvārāṇi saṃyamya 
mano hṛdi nirudhya ca |
mūrdhni ādhāyātmanaḥ prāṇam
āsthitaḥ yogadhāraṇam ||)
--

--
Meaning :
Controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy (prANas) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
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Saturday, January 25, 2014

आज का श्लोक 'हृदि' / hRdi'

आज का श्लोक, 'हृदि' /'hRdi'
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अध्याय 8, श्लोक 12,
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सर्वद्वाराणि संयम्य
मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राण-
मास्थितो  योगधारणाम् ॥
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हृदि  = हृदय में ।
भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख  होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात्  'हृदय' में ठहराकर  और पुनः उन मार्गों पर न जाने  देकर  (चित्त निरोध )।  प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर  (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
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अध्याय 13 , श्लोक 17,
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ज्योतिषामपि तज्ज्योति-
स्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं
हृदि  सर्वस्य विष्ठितम्   ॥
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हृदि  = हृदय में ।
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भावार्थ :
समस्त ज्योतिर्मय पिंडों में स्थित स्थूल (इंद्रियग्राह्य) ज्योति की तुलना में उसी ज्योति को  से श्रेष्ठ कहा गया है, जो सबके हृदय में ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञानगम्य तीनों रूपों में प्रविष्ट है ।
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अध्याय 15, श्लोक 15,
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सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं  च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेवचाहम्  ॥
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हृदि  = हृदय में, अन्तःकरण में  ।
भावार्थ :
'मैं' सबके हृदय में  चेतना के रूप में सदा अवस्थित हूँ । मुझसे ही प्राणिमात्र में स्मृति, ज्ञान एवं उनका उद्गम और विलोपन होता रहता है ।  पुनः समस्त वेदों में एकमात्र मुझे ही जानने योग्य कहा गया है । वेदान्त का प्रणेता, वेदार्थ का कर्ता और वेद को समझनेवाला भी मैं ही हूँ।
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'हृदि' /'hRdi' 
Meaning : In the core of the Heart.
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Chapter 8, shloka 12,
sarvadWarANi sanyamya
mano hRdi nirudhya cha |
mUrdhnyAdhAyAtmanaH prANa-
mAsthito yogadhAraNaM ||
--
Meaning :
controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy (prANas) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
--
Chapter 13, shloka 17,
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jyotiShAmapi tajjyotis-
tamasaH paramuchyate |
jnAnaM jneyaM jnAnagamyaM
hRdi sarvasya viShThitaM ||
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Meaning :
It is the light of all lights, different from darkness, It is the Enlightenment, comprehensible and within the capacity of understanding. It is already and ever there available accessible and inherent in the Heart of all beings.
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Chapter 15, shloka 15,
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sarvasya chAhaM hRdi sanniviShTo
mattaH smRtirjnAnamapohanaM cha |
vedaishcha sarvairahameva vedyo
vedAntakRdvedavideva chAhaM ||
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I am seated in the Hearts of all being. I am the source of memory, knowledge and forgetfulness also. I am the principle all the Vedas speak of, and is learnt from. Alone I am the author and the One Who knows the veda.
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