आज का श्लोक, 'हृदि' /'hRdi'
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अध्याय 8, श्लोक 12,
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सर्वद्वाराणि संयम्य
मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राण-
मास्थितो योगधारणाम् ॥
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हृदि = हृदय में ।
भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात् 'हृदय' में ठहराकर और पुनः उन मार्गों पर न जाने देकर (चित्त निरोध )। प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
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अध्याय 13 , श्लोक 17,
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ज्योतिषामपि तज्ज्योति-
स्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं
हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥
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हृदि = हृदय में ।
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भावार्थ :
समस्त ज्योतिर्मय पिंडों में स्थित स्थूल (इंद्रियग्राह्य) ज्योति की तुलना में उसी ज्योति को से श्रेष्ठ कहा गया है, जो सबके हृदय में ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञानगम्य तीनों रूपों में प्रविष्ट है ।
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अध्याय 15, श्लोक 15,
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सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेवचाहम् ॥
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हृदि = हृदय में, अन्तःकरण में ।
भावार्थ :
'मैं' सबके हृदय में चेतना के रूप में सदा अवस्थित हूँ । मुझसे ही प्राणिमात्र में स्मृति, ज्ञान एवं उनका उद्गम और विलोपन होता रहता है । पुनः समस्त वेदों में एकमात्र मुझे ही जानने योग्य कहा गया है । वेदान्त का प्रणेता, वेदार्थ का कर्ता और वेद को समझनेवाला भी मैं ही हूँ।
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'हृदि' /'hRdi'
Meaning : In the core of the Heart.
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Chapter 8, shloka 12,
sarvadWarANi sanyamya
mano hRdi nirudhya cha |
mUrdhnyAdhAyAtmanaH prANa-
mAsthito yogadhAraNaM ||
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Meaning :
controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy (prANas) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
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Chapter 13, shloka 17,
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jyotiShAmapi tajjyotis-
tamasaH paramuchyate |
jnAnaM jneyaM jnAnagamyaM
hRdi sarvasya viShThitaM ||
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Meaning :
It is the light of all lights, different from darkness, It is the Enlightenment, comprehensible and within the capacity of understanding. It is already and ever there available accessible and inherent in the Heart of all beings.
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Chapter 15, shloka 15,
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sarvasya chAhaM hRdi sanniviShTo
mattaH smRtirjnAnamapohanaM cha |
vedaishcha sarvairahameva vedyo
vedAntakRdvedavideva chAhaM ||
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I am seated in the Hearts of all being. I am the source of memory, knowledge and forgetfulness also. I am the principle all the Vedas speak of, and is learnt from. Alone I am the author and the One Who knows the veda.
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अध्याय 8, श्लोक 12,
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सर्वद्वाराणि संयम्य
मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राण-
मास्थितो योगधारणाम् ॥
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हृदि = हृदय में ।
भावार्थ :
मन जिन इंद्रियों के मार्ग से बहिर्मुख होता है, उन सब रोककर मन को अंतर्मुख अर्थात् 'हृदय' में ठहराकर और पुनः उन मार्गों पर न जाने देकर (चित्त निरोध )। प्राणों को हृदय से मूर्ध्ना की दिशा में जानेवाली नाड़ी पर ले जाकर मस्तक में स्थिर (प्राण-निरोध) करते हुए साधक योगधारणा में प्रवृत्त होता है।
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अध्याय 13 , श्लोक 17,
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ज्योतिषामपि तज्ज्योति-
स्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं
हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥
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हृदि = हृदय में ।
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भावार्थ :
समस्त ज्योतिर्मय पिंडों में स्थित स्थूल (इंद्रियग्राह्य) ज्योति की तुलना में उसी ज्योति को से श्रेष्ठ कहा गया है, जो सबके हृदय में ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञानगम्य तीनों रूपों में प्रविष्ट है ।
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अध्याय 15, श्लोक 15,
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सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेवचाहम् ॥
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हृदि = हृदय में, अन्तःकरण में ।
भावार्थ :
'मैं' सबके हृदय में चेतना के रूप में सदा अवस्थित हूँ । मुझसे ही प्राणिमात्र में स्मृति, ज्ञान एवं उनका उद्गम और विलोपन होता रहता है । पुनः समस्त वेदों में एकमात्र मुझे ही जानने योग्य कहा गया है । वेदान्त का प्रणेता, वेदार्थ का कर्ता और वेद को समझनेवाला भी मैं ही हूँ।
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'हृदि' /'hRdi'
Meaning : In the core of the Heart.
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Chapter 8, shloka 12,
sarvadWarANi sanyamya
mano hRdi nirudhya cha |
mUrdhnyAdhAyAtmanaH prANa-
mAsthito yogadhAraNaM ||
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Meaning :
controlling all the sense-organs where-from the attention strays away towards the objects, holding back the mind into the Heart, directing the vital energy (prANas) towards the cerebrum, abide in the contemplation of Yoga.
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Chapter 13, shloka 17,
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jyotiShAmapi tajjyotis-
tamasaH paramuchyate |
jnAnaM jneyaM jnAnagamyaM
hRdi sarvasya viShThitaM ||
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Meaning :
It is the light of all lights, different from darkness, It is the Enlightenment, comprehensible and within the capacity of understanding. It is already and ever there available accessible and inherent in the Heart of all beings.
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Chapter 15, shloka 15,
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sarvasya chAhaM hRdi sanniviShTo
mattaH smRtirjnAnamapohanaM cha |
vedaishcha sarvairahameva vedyo
vedAntakRdvedavideva chAhaM ||
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I am seated in the Hearts of all being. I am the source of memory, knowledge and forgetfulness also. I am the principle all the Vedas speak of, and is learnt from. Alone I am the author and the One Who knows the veda.
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