आज का श्लोक / ’हुतम्’ / 'hutaM'
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अध्याय 4, श्लोक 24,
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ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥
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हुतम् - हवन में अर्पित की गई सामग्री, हव्य ।
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भावार्थ :
ब्रह्म को जाननेवाले की दृष्टि में यज्ञ में किया जानेवाला हवन, हवन में अर्पित हव्य, यज्ञाग्नि, सभी ब्रह्म हैं । वह भी ब्रह्म ही है जिसके द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान किया जाता है । और इस प्रकार के ब्रह्मकर्म के अनुष्ठान से ब्रह्मकर्मरूपी समाधि के द्वारा उसे ब्रह्म की ही प्राप्ति होती है ।
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अध्याय 9, श्लोक 16,
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अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहग्निरहं हुतम् ॥
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भावार्थ :
मैं ही क्रतु (श्रौतयज्ञविशेष) और यज्ञ (स्मार्तकर्मविशेष) मैं ही हूँ, पितरों को अर्पित किया जानेवाला ’स्वधा’ तथा प्राणियों के द्वारा खायाजानेवाला अन्न अर्थात् औषधि भी मैं हूँ । मन्त्र मैं हूँ, आज्य अर्थात् हवि-घृत मैं हूँ, मैं ही अग्नि तथा अग्नि में अर्पित की जानेवाली हव्य सामग्री भी हूँ ।
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अध्याय 17, श्लोक 28,
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अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न तत्प्रेत्य नो इह ॥
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भावार्थ :
श्रद्धारहित जो हवन, दान, तप,किया जाता है, उसे असत् तप कहा जाता है, वह न तो इस लोक में सुख देता है, न परलोक में ।
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Chapter 4, shloka 24,
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brahmArpaNaM brahmahavir-
brahmAgnau brahmaNA hutaM |
brahmaiva tena gantavyaM
brahmakarmasamAdhinA ||
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Meaning : One who knows 'brahman' /Supreme Reality, sees Him everywhere, in the Fire, in the offerings, in te oblation, in the goal and within himself also.
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Chapter 9, shloka 16,
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ahaM kraturahaM yajnaH
swadhAhamahamauShadhaM |
mantro'hamahamevAjya-
mahamagnirahaM hutaM ||
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I am the ritual, The sacrifice, the offerings made in the sacred Fires. I'm the sacred text, the medicinal herbs, the ghrit (clarified butter).
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Chapter 17, shloka 28,
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ashraddhayA hutaM dattaM
tapastaptaM kRtaM cha yat |
asadityuchyate pArtha
na tatpretya no iha ||
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Sacrifice, charity or austerity without faith in such action is worth-less, For it yields neither the happiness in this world nor here-after in another.
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अध्याय 4, श्लोक 24,
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ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥
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हुतम् - हवन में अर्पित की गई सामग्री, हव्य ।
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भावार्थ :
ब्रह्म को जाननेवाले की दृष्टि में यज्ञ में किया जानेवाला हवन, हवन में अर्पित हव्य, यज्ञाग्नि, सभी ब्रह्म हैं । वह भी ब्रह्म ही है जिसके द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान किया जाता है । और इस प्रकार के ब्रह्मकर्म के अनुष्ठान से ब्रह्मकर्मरूपी समाधि के द्वारा उसे ब्रह्म की ही प्राप्ति होती है ।
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अध्याय 9, श्लोक 16,
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अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहग्निरहं हुतम् ॥
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भावार्थ :
मैं ही क्रतु (श्रौतयज्ञविशेष) और यज्ञ (स्मार्तकर्मविशेष) मैं ही हूँ, पितरों को अर्पित किया जानेवाला ’स्वधा’ तथा प्राणियों के द्वारा खायाजानेवाला अन्न अर्थात् औषधि भी मैं हूँ । मन्त्र मैं हूँ, आज्य अर्थात् हवि-घृत मैं हूँ, मैं ही अग्नि तथा अग्नि में अर्पित की जानेवाली हव्य सामग्री भी हूँ ।
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अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न तत्प्रेत्य नो इह ॥
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भावार्थ :
श्रद्धारहित जो हवन, दान, तप,किया जाता है, उसे असत् तप कहा जाता है, वह न तो इस लोक में सुख देता है, न परलोक में ।
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’हुतम्’ / 'hutaM' - The offerings made into the sacrificial Fire (yajna)--
Chapter 4, shloka 24,
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brahmArpaNaM brahmahavir-
brahmAgnau brahmaNA hutaM |
brahmaiva tena gantavyaM
brahmakarmasamAdhinA ||
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Meaning : One who knows 'brahman' /Supreme Reality, sees Him everywhere, in the Fire, in the offerings, in te oblation, in the goal and within himself also.
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Chapter 9, shloka 16,
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ahaM kraturahaM yajnaH
swadhAhamahamauShadhaM |
mantro'hamahamevAjya-
mahamagnirahaM hutaM ||
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I am the ritual, The sacrifice, the offerings made in the sacred Fires. I'm the sacred text, the medicinal herbs, the ghrit (clarified butter).
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Chapter 17, shloka 28,
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ashraddhayA hutaM dattaM
tapastaptaM kRtaM cha yat |
asadityuchyate pArtha
na tatpretya no iha ||
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Sacrifice, charity or austerity without faith in such action is worth-less, For it yields neither the happiness in this world nor here-after in another.
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