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Monday, July 15, 2024

क्या अश्वत्थ बरगद है?

क्या अश्वत्थ पीपल है?

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10/26

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।।

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।२६।।

इस श्लोक में यद्यपि अश्वत्थ का उल्लेख है किन्तु वह पीपल है या वटवृक्ष / बड़ / बरगद है यह स्पष्ट नहीं है। 

भगवान् बुद्ध को जिस बोधिवृक्ष के नीचे आत्मज्ञान हुआ वह संभवतः पीपल ही है जिसकी एक शाखा को सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा के हाथों श्रीलंका भेजा था।

बोधगया का वह बोधिवृक्ष शायद पीपल है, बरगद नहीं।

गूगल पर बोधिवृक्ष लीफ की इमेज देखेंगे तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि बोधिवृक्ष पीपल है, बरगद नहीं है। 

बचपन से श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ता रहा हूँ, वह भी संस्कृत में। फिर कभी कभी गीताप्रेस से प्रकाशित उस गुटके में लिखे अर्थ से गीता के श्लोकों का तात्पर्य भावार्थ क्या है इसे समझने का यत्न भी किया करता था।

उस गुटके में अश्वत्थ का अर्थ "पीपल" बतलाया गया है, किन्तु उसकी जड़ों का जैसा वर्णन है वैसी जड़ें तो बड़ के वृक्ष की ही होती हैं -

श्रीभगवानुवाच 

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थः प्राहुरव्ययम्।।

छन्दाँसि यस्य पर्णानि यस्तद्वेद स वेदवित्।।१।।

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा

गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।।

अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि

कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।२।।

किसी ने बतलाया बरगद "सूर्य-वृक्ष" है -

DharmaLive YouTube  पर। 

तदनुसार और गीता के उपरोक्त श्लोकों के अनुसार बड़ या बरगद, -- अश्वत्थ ही सूर्य-वृक्ष हो सकता है, पीपल नहीं।  कर्म जैसे परस्पर बँध जाते हैं, अश्वत्थ की जड़ें भी ऊपर और नीचे भी वैसे ही परस्पर मिल जाती हैं। इसी तरह सूर्य की किरणें भी परस्पर मिल जाती हैं किरणों से पुनः किरणें इसी प्रकार निकलती हैं।

Physics / भौतिक विज्ञान में भी Optics  में प्रकाश के Polarization and Interference of Light rays के सिद्धान्त में इसे इसी प्रकार से देख सकते हैं।

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते

नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।।

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-

मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।३।।

ततः पदं तत् परिमार्गितव्यः

यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।।

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये 

यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।४।।

श्लोक २ और ४ में "प्रसृता" शब्द का प्रयोग दृष्टव्य है।

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Friday, February 3, 2023

सिद्धानां कपिलो मुनिः

सिद्धिगीता : श्रीमद्भगवद्गीतायाम्

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2/48,

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।४८।।

(अध्याय २)

3/4,

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।।

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।४।।

(अध्याय३)

4/12,

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता।।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।१२।।

4/22,

यदृच्छा लाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।।

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।२२।।

(अध्याय४)

7/3,

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।३।।

(अध्याय ७)

10/26,

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।। 

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।२६।।

(अध्याय १०)

11/36,

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या

जगत्हृष्यत्यनुरज्यते च।।

रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति

सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः।।३६।।

(अध्याय ११)

12/10,

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।।१०।।

(अध्याय १२)

14/1,

परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।।

यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः।।१।।

(अध्याय १४)

16/14,

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।।

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी।।१४।।

16/23,

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।२३।।

(अध्याय १६)

18/13,

 पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।।

साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१३।।

18/26,

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।।

सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।२६।।

18/45,

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।४५।।

18/46,

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।४६।।

18/50,

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।।

समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।५०।।

(अध्याय १८)

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पातञ्जल योगसूत्र :

समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्।।४५।।

(साधनपाद)

जन्मौषधिमन्त्रतपः समाधिजा सिद्धयः।।१।।

(कैवल्यपाद)

सत्त्वपुरुषयोरत्यन्तसंकीर्णयोः प्रत्ययाविशेषाद् भोगः परार्थत्वादन्यस्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानम्।।३६।।

ततः प्रातिभश्रवणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते।।३७।।

ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः।।३८।।

(विभूतिपाद)

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इति भारद्वाजेन शास्त्रिणा विनयेन संकलिता :

श्रीमद्भगवद्गीतायाम्

।। सिद्धिगीता ।।

।।श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।

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Thursday, August 22, 2019

अश्वत्थम्, अश्वत्थः, अश्वत्थामा,

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अश्वत्थम् 15/1, 15/3,
अश्वत्थः 10/26,
अश्वत्थामा 1/8,
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Monday, June 23, 2014

आज का श्लोक, ’सर्ववृक्षाणाम्’ / ’sarvavṛkṣāṇām’

आज का श्लोक,
’सर्ववृक्षाणाम्’ / ’sarvavṛkṣāṇām’ 
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’सर्ववृक्षाणाम्’ / ’sarvavṛkṣāṇām ’ - सब वृक्षों में,

अध्याय 10, श्लोक 26,

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥
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(अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम् देवर्षीणम् च नारदः ।
गन्धर्वाणम् चित्ररथः सिद्धानाम् कपिलः मुनिः ॥)
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भावार्थ :
अश्वत्थ (पीपल अथवा वट आदि) समस्त वृक्षों में, और देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ नामक गन्धर्व, और सिद्धाओं में कपिल मुनि (हूँ) ।

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’सर्ववृक्षाणाम्’ / ’sarvavṛkṣāṇām’ - among the trees,

Chapter 10, śloka 26,

aśvatthaḥ sarvavṛkṣāṇāṃ 
devarṣīṇāṃ ca nāradaḥ |
gandharvāṇāṃ citrarathaḥ
siddhānāṃ kapilo muniḥ ||
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(aśvatthaḥ sarvavṛkṣāṇām 
devarṣīṇam ca nāradaḥ |
gandharvāṇam citrarathaḥ
siddhānām kapilaḥ muniḥ ||)
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The ( aśvatthaḥ) Indian fig-tree among all the trees, and nārada among the celestial sages, citraratha among the celestial musicians,  and kapila muni among the siddha-s ; (I AM)
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Note : kapila muni : the famous inspired sage, son of sage (kardama) and (devahūti) who reduced to ashes 60000 sons of sagara, who, while searching for the sacrificial horse taken away by Indra, fell in with him (kapila muni) and accused him (kapila muni) of stealing the horse. He (kapila muni) reduced the multiplicity of elements to 3, i.e. Sattva, Rajas, and Tamas, and saw the distinction between prakṛti and puruṣa, who activates it ( prakṛti ) and is yet quite distinct from it.
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Monday, April 7, 2014

आज का श्लोक, ’सिद्धानाम्’ / 'siddhAnAm'

आज का श्लोक, ’सिद्धानाम्’ / 'siddhAnAM'
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’सिद्धानाम्’ / 'siddhAnAM'

अध्याय 7, श्लोक 3,

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥
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(मनुष्याणाम् सहस्रेषु कश्चित् यतति सिद्धये ।
यतताम् अपि सिद्धानाम् कश्चित् माम् वेत्ति तत्त्वतः ॥)
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भावार्थ :
सहस्रों मनुष्यों में कोई एक ही वास्तविक जिज्ञासु होता है, और तत्व को जानने के लिए यत्न किया करता है । ऐसे जिज्ञासुओं में से जो तत्त्व को जान लेते हैं, और सिद्ध कहे जाते हैं उनमें से भी कोई कोई ही मुझे तत्त्व से भी जानता है ।
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टिप्पणी :
यद्यपि अनेक लोगों में ईश्वर, आत्मा, परमात्मा आदि को जानने का कौतूहल होता है, और वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव भी बन जाए तो भी इस कौतूहल से अधिक रुचि उन्हें अन्य अनित्य वस्तुओं में सुख-प्राप्ति की होती है । वे ईश्वर को भी ’साधन’ की तरह प्रयोग करना चाहते हैं । उनमें से ही कुछ बिरले ही यत्नरत रहते हुए यद्यपि साँख्य-निष्ठा को प्राप्त हुए होते हैं, जबकि बहुत से मनुष्य तो आध्यात्मिक शक्तियों अर्थात् सिद्धियों की प्राप्ति की ओर आकर्षित होकर ’मुझसे’ दूर हो जाते हैं । वे ब्रह्म-ज्ञानी भी हो जाते हैं, इसलिए ’अर्हत्’ / ’दक्ष’ और सिद्ध भी कहे जाते हैं, किन्तु आत्म-ज्ञान से फिर भी दूर ही होते हैं । किन्तु जो ’ईश्वर’ को ’मुझसे’ अर्थात् अपनी आत्मा से अभिन्न की भाँति जान लेता है, वही ’मुझको’ तत्त्वतः जानता है । सिद्धों में से भी कुछ ही ’मुझे’ (मेरे स्वरूप को) तत्त्व से जान पाते हैं । ब्रह्म-ज्ञानी / सिद्ध भी प्रायः ’सब-कुछ ब्रह्म है’ के ज्ञान और अनुभव में भी जाने-अनजाने ही, अपने-आपको ’ब्रह्म-ज्ञानी’ की तरह ब्रह्म से भिन्न की भाँति ग्रहण कर लेते हैं । यद्यपि वे ’मुक्त’ तो होते हैं किन्तु अपने आप को तत्वतः नहीं जान पाते । गीता अध्याय 11 के श्लोक 28 में ’सिद्धसङ्घाः’ में इसी सन्दर्भ में देखा जा सकता है ।
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अध्याय 10, श्लोक 26,
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥
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(अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम् देवर्षीणाम् च नारदः ।
गन्धर्वाणाम् चित्ररथः सिद्धानाम् कपिलः मुनिः ॥)
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भावार्थ:
समस्त वृक्षों में अश्वत्थ, देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि ।
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’सिद्धानाम्’ / 'siddhAnAm' - Those who have attained perfection, and have realized 'Brahman'.

Chapter 7, shloka 3,

manuShyANAM sahasreShu
kashchidyatati siddhaye |
yatatAmapi siddhAnAM
kashchinmAM vetti tattvataH ||
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Meaning :
Among thousands of men, a rare one attempts to gain the spiritual truth. And even if a few attain the spiritual truth, most ('sidhha', / 'arhat', / adept, lured by spiritual powers, don't go further) don't know ME in the true sense.
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Chapter 10, shloka 26,
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ashvatthaH sarvavRkShANAM
devarShINAM cha nAradaH |
gandharvANAM chitrarathaH
siddhAnAM kapilo muniH ||
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Ashvattha (The Indian fig tree) among all the trees, nArada among the sages Celestial, chitrarathaH among the Celestial musicians, and kapila among the siddhA(s).
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