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Tuesday, August 13, 2024

युधिष्ठिर

कौन है युधिष्ठिर ?

अध्याय ४

श्रीभगवानुवाच --

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।।

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एव मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।।

भक्तोऽसि सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच --

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्रीभगवानुवाच --

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

इस युद्ध में अर्जुन मोहित बुद्धि के वश में हो, अनिश्चय से ग्रस्त हो गया अर्थात् वह अस्थिरमति हो गया। जबकि भगवान् श्रीकृष्ण की बुद्धि अर्थात् मति सदा की भाँति एक जैसी स्थिर थी। जिसकी बुद्धि युद्ध के समय स्थिर होती है उसे युधिष्ठिर कहा जाता है-

युधि स्थिरा मतिः यस्य स युधिष्ठिरो उच्यते।।

इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश भगवान् श्रीकृष्ण के  द्वारा किंकर्तव्यविमूढ अस्थिरमति अर्जुन को दिया गया, न कि उसके बड़े भाई युधिष्ठिर को।

युधिष्ठिर को इसीलिए धर्मराज भी कहा जाता है। 

***

Friday, October 27, 2023

तस्याहं निग्रहं मन्ये

Chapter 6,

Verse 34, 35

अध्याय ६,

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।३४।।

--

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।३५।।

--

उपरोक्त दोनों श्लोकों में ध्यान दिए जाने योग्य महत्वपूर्ण बिन्दु यह है - अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से प्रश्न पूछते हैं : हे कृष्ण! मन चञ्चल, हठी, अत्यन्त बलवान् और दृढ है। मैं मानता हूँ कि उसका निग्रह करना उसी तरह अत्यन्त कठिन है जैसे कि बहती हुई वायु को रोक सकना।

भगवान् श्रीकृष्ण उत्तर देते हुए कहते हैं :

हे महाबाहो अर्जुन! इसमें संशय नहीं है कि मन चञ्चल है और उसका निग्रह कर सकना कठिन भी है। किन्तु हे कौन्तेय! अभ्यास और वैराग्य से तो (अवश्य ही) उसका निग्रह किया जाता है।

यहाँ अर्जुन असावधानी से 'मन' और अपने आपको दो भिन्न वस्तुएँ मानकर यह प्रश्न पूछते हैं। "अहं मन्ये" -इस वाक्यांश से यही प्रतीत होता है। भगवान् श्रीकृष्ण इसका उत्तर देते हुए "अहं" पद का प्रयोग किए बिना ही अर्जुन से कहते हैं : "हे कौन्तेय! मन अवश्य ही चञ्चल है, और उसका निग्रह कर पाना बहुत कठिन है, फिर भी अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से उसका निग्रह किया जाता है।

यहाँ यह विचारणीय है कि क्या प्रश्नकर्ता अर्जुन का 'मन' उस प्रश्नकर्ता (अर्जुन) से पृथक् कोई भिन्न और अन्य / इतर वस्तु है, या स्वयं 'मन' ही अपने आपको "मैं" और 'मन' में विभाजित कर लेता है?

भगवान् श्रीकृष्ण फिर भी इस काल्पनिक प्रश्न का उत्तर देकर अर्जुन की समस्या का समाधान / निराकरण कर देते हैं।

अर्जुन के विषय में कुछ कहने से पहले यह समझ लिया जाना जरूरी है कि क्या हम सभी के साथ ऐसा ही नहीं होता है? कभी तो हम कहते हैं : "मैं प्रसन्न हूँ।" और कभी कहते हैं "मन प्रसन्न है।" ऐसी स्थिति में ध्यान इस ओर नहीं जाता कि जिसे "मैं" कहा जा रहा है, और जिसे "मन" कहा जा रहा है, क्या वह "मैं" और वह 'मन' एक ही वस्तु है, या दोनों दो भिन्न वस्तुएँ हैं! 

स्पष्ट है कि जो सतत परिवर्तित हो रहा है, कभी प्रसन्न तो कभी खिन्न हो रहा है वह 'मन' है, जबकि इस 'मन' को, अपरिवर्तित रहते हुए "जो" जानता है वह "मैं"। 

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Tuesday, June 14, 2022

लक्ष्यार्थ और वाच्यार्थ

माम् एकम्।। 

--

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।। 

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।६६।।

(अध्याय १८)

वाच्यार्थ :

समस्त धर्मों का त्याग कर मुझ एक (कृष्ण की) शरण में आओ।

शोक मत करो, मैं (कृष्ण) तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्त कर दूँगा ।

लक्ष्यार्थ :

समस्त धर्मों को त्याग कर मेरे (एकमेव आत्मा के) एक धर्म की शरण में आओ।

शोक मत करो, मेरी / तुम्हारी अपनी यह आत्मा ही तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्त कर देगी।

--

धर्म अर्थात् आचरण, -- आचरण किन्हीं परंपराओं, सुनिश्चित तौर तरीकों, सिद्धान्तों पर आधारित हो सकता है और जो आचरण किसी एक परंपरा में पुण्य है, उसे किसी दूसरी परंपरा में पाप भी माना जा सकता है। भिन्न भिन्न परंपराओं के मतभेदों को महत्व मत दो, और मेरे (आत्मा के) धर्म की शरण लो। किन्तु इसके लिए पहले, तुम्हें आत्मा का स्वरूप और धर्म क्या है इसे जानना होगा। और चूँकि यह आत्मा तो सबमें विद्यमान समान आधारभूत तत्व है, इसलिए उसे जानना और प्राप्त कर लेना ही एकमात्र ऐसा उपाय है, जिसका सहारा सभी ले सकते हैं, चाहे उनका आचरण, आचार-विचार एक दूसरे से कितना ही अलग क्यों न हो।

गीता के तात्पर्य को ग्रहण करने में जहाँ जहाँ सर्वनाम अस्मद् के रूपों :

'अहं' - प्रथमा एक-वचन - संज्ञा या सर्वनाम,

'माम्' / - 'मा' - द्वितीया एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम, 

'मया' / - तृतीया एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम,

'मह्यम्' / 'मे' - चतुर्थी एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम,

'मत्' - पञ्चमी एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम, 

'मम' / 'मे' - षष्ठी एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम,

'मयि' - सप्तमी एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम,

दृष्टव्य है कि उपरोक्त पदों को जब संज्ञा (आत्मा) माना जाता है, और तदनुसार उनका अर्थ ग्रहण किया जाता है, तो वह उस तात्पर्य से भिन्न हो सकता है, जो इन्हें सर्वनाम पद माना जाने से प्राप्त हो सकता है। 

एक बहुत अच्छा उदाहरण निम्न श्लोक में देखा जा सकता है :

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।। 

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

(अध्याय ४)

'मे' तथा 'अहं' पदों को संज्ञा (आत्मा) के अर्थ में या सर्वनाम के अर्थ में ग्रहण किया जाए किया जाए तो भिन्न भिन्न अर्थ प्राप्त होते हैं। वाच्यार्थ की दृष्टि से आत्मा को कृष्ण (व्यक्ति विशेष) मानकर, अन्य पुरुष एक-वचन के प्रयोग के अनुसार अर्थ ग्रहण किया जाता है तो अर्जुन की ही तरह उनके भी बहुत से जन्म हुए, -- ऐसा निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है । इस अर्थ की पुष्टि उक्त श्लोक में प्रयुक्त विद् -क्रियापद - 'वेद' के ल-कार से भी होती है।

'वेद' :

लट् ल-कार - अन्य पुरुष एक-वचन, या उत्तम पुरुष एक-वचन हो सकता है। 

लट् ल-कार (वर्तमान काल) में 'विद्' क्रियापद का प्रचलित रूप यह है :

वेत्ति विदतः विदन्ति -- अन्य पुरुष (Third Person)

वेत्सि वित्थः वित्थ -- मध्यम पुरुष (Second Person)

वेद्मि विद्वः विद्मः -- उत्तम पुरुष (First Person) 

और विकल्प की तरह --

वेद विदतुः विदुः - अन्य पुरुष  (Third Person) 

वेत्थ विदथुः विद - मध्यम पुरुष  (Second Person) 

वेद विद्व विद्म - उत्तम पुरुष  (First Person) 

भी प्रयुक्त किए जा सकते हैं। 

'वेत्थ' तो अवश्य ही मध्यम पुरुष एक-वचन ही है ।

तानि अहं वेद सर्वाणि में :

'अहं' पद का अर्थ इस प्रकार से आत्मा और व्यक्ति विशेष दोनों ही अर्थों में भिन्न भिन्न रूपों में समझा जा सकता है।

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Wednesday, June 2, 2021

गीताशास्त्र

6.

(उत्तरगीता)

प्रेरणा और प्रयोजन 

------------©----------

गीता अर्थात् "श्रीमद्भगवद्गीता" नामक महर्षि व्यास द्वारा रचित ग्रन्थ, जो महाभारत के भीष्मपर्व में पाया जाता है अपने इस कलेवर में एक स्वतंत्र धर्मशास्त्र है।

गीता के अध्याय १० में किया गया एक रोचक श्लोक इस प्रकार  से उल्लिखित है :

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।

मुनीनामऽप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ।। ३७

स्पष्ट है कि एक ही अहं (आत्मा रूपी तत्व), पर्याय से वासुदेव ही व्यक्त रूप से या व्यक्ति के रूप में श्रीकृष्ण, अर्जुन, व्यास तथा उशना नामक कवि है। 

यहाँ यह जानना कि कठोपनिषद् का प्रारंभ ही उशना के उल्लेख से ही होता है :

ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ। तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस। १

(प्रथम अध्याय,  प्रथम वल्ली) 

प्रसंगवश यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि उशनस् यह नाम दैत्यों के गुरु, शुक्राचार्य अथवा भृगु / भार्गव का है। 

दूसरी ओर, उशीनर नामक देश कुरु से उत्तर में है :

(गोपथ ब्राह्मण २:९)

इस प्रकार हम संस्कृत से ग्रीक के संबंध का अनुमान कर सकते हैं। 

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चार पुरुषार्थों में से धर्म नामक पुरुषार्थ अर्थ के लिए प्रेरणा का कार्य करता है, जबकि अर्थ, धर्म का एक प्रयोजन-विशेष मात्र है। 

इसी प्रकार काम नामक पुरुषार्थ, मोक्ष का प्रेरक है और मोक्ष ही काम का प्रयोजन है।

किन्तु प्रेरणा और प्रयोजन की दृष्टि से गीता मूलतः धर्मशास्त्र है, जो कि धर्म के तीन व्यक्त प्रकारों, अधिभौतिक, आधिदैविक व आध्यात्मिक स्वरूप, और उसके आचरण अर्थात् अनुष्ठान की शिक्षा देता है। अतः गीता को एकेश्वरवाद या अनेकेश्वरवाद के सन्दर्भ में समझने का प्रयास ही मूलतः दोषपूर्ण, भ्रमोत्पादक और त्रुटिपूर्ण है। 

स्पष्ट है कि गीता में 'धर्म' का सन्दर्भ और उल्लेख व्यापक अर्थ में किया गया है, न कि समुदायों या सम्प्रदायों की अपनी अपनी मान्यताओं और पार्टियों (rituals) के तात्पर्य में 'religion' के अर्थ में। 

इसलिए गीता में जिस आधार पर इन विषयों की विवेचना की गई है, वह अधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक है।  मनुष्य को जो ज्ञात है, अस्तित्व / धर्म के  इन्हीं तीनों तलों पर, तथा उसी सन्दर्भ में यह विवेचन (treatment) गीता में पाया जाता है।

अधिभौतिक का तात्पर्य है : 

सांसारिक, लौकिक (mundane, secular), 

आधिदैविक का तात्पर्य है : 

मनो-जगत (psyche, mind) या मन का कार्यक्षेत्र, 

और आध्यात्मिक का तात्पर्य है :

आत्म-तत्व (the spiritual).

'आत्म-तत्व' शब्द से जिस तत्व (element) का उल्लेख वेदान्त के शास्त्रों में किया जाता है, उसका ही उल्लेख 'अहं-पदार्थ' शब्द के द्वारा भी किया जाता है । और पुनः उसका ही उल्लेख 'अहं' अर्थात् 'आत्मा' एवं 'अहंकार' इन दो पदों से भी किया जाता है।

इसलिए इस धर्मशास्त्र के गूढ विषय को रचनाकार महर्षि व्यास ने संस्कृत भाषा में इस प्रकार वर्णित किया कि केवल कोई पात्र मनुष्य ही इस विषय को इस ग्रन्थ के माध्यम से ग्रहण कर सके, किन्तु किसी भी अपात्र मनुष्य के लिए, पात्र अर्थात् अधिकारी होने तक, यह विषय और ग्रन्थ कठिन और दुरूह जान पड़े। 

इसलिए इस ग्रन्थ का तात्पर्य जान और समझ सकने के लिए बुद्धि की सूक्ष्मता ही नहीं, बल्कि चेतना (अर्थात् मन एवं चित्त) का शुद्ध होना ही उतनी ही अपरिहार्य आवश्यकता है।

चेतना (आत्मा) के चार व्यक्त प्रकार क्रमशः मन, बुद्धि, चित्त एवं अहं होते हैं। 

यही चेतना 'अहं' के अर्थ में आत्मा (Self), जबकि अहंकार के अर्थ में वैयक्तिकता (individuality,  self) है।

गीता नामक ग्रन्थ को धर्मशास्त्र (scripture) की तरह देखें, तो इसके तात्पर्य को तीन स्तरों से ग्रहण किया जा सकता है, और उस आधार पर इसकी विवेचना भी भिन्न भिन्न तरीकों से की जा सकती है :

बौद्धिक या सैद्धान्तिक (philosophical),

व्यावहारिक प्रयोग की दृष्टि से, मन (psychological) के परिप्रेक्ष्य में, तथा 

आध्यात्मिक सत्य (spirituality) की जिज्ञासा शान्त करने हेतु।

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Tuesday, June 1, 2021

कालेन

5.

(उत्तरगीता) 

महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा :

हे प्रभु! 

पात्रता की दृष्टि से अर्जुन में और मुझमें क्या समानता और क्या भिन्नता है, कृपया कहें! 

तब भगवान् श्रीकृष्ण बोले :

युधिष्ठिर! जैसा कि तुम्हारा नाम और गुण है, तुम युद्ध के समय भी स्थिरबुद्धि होते हो, जबकि अर्जुन ऐसे समय में कर्तव्य क्या है तथा अकर्तव्य क्या है, इस द्वन्द्व से मोहित-बुद्धि हो गया था। 

इस प्रकार उसकी निष्ठा साङ्ख्य के अनुकूल न होकर कर्म के अनुकूल थी। तुममें ऐसा द्वन्द्व या संशय नहीं उत्पन्न होता है।

उसे उसके अनुकूल शिक्षा देने हेतु मैंने उससे कहा :

(अध्याय ३)

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्ताश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ।। २५

तथा, 

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्। 

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।। २६

इस प्रकार उसकी निष्ठा कर्म में होने से उसमें कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व और ज्ञातृत्व रूपी अज्ञान और तज्जनित दुविधा एवं संशय भी थे ही। 

इसलिए मैंने परिस्थिति के अनुरूप उसे वह शिक्षा दी जिससे कि समय आने पर वह भी तुम्हारी तरह साङ्ख्य की शिक्षा का पात्र हो सके। 

इसीलिए मैंने उसे कर्मयोग अर्थात् राजयोग, राजविद्या की वही शिक्षा प्रदान की जो कि महान काल के प्रभाव से विलुप्तप्राय हो चुकी थी।

इसलिए तुम्हारे लिए मैं पुनः जिस उत्तरगीता का उपदेश करूँगा, उसे सुनकर तुम्हारी यह जिज्ञासा शान्त हो जाएगी कि क्या मैंने अर्जुन को तुमसे भिन्न कोई विशेष शिक्षा दी थी।

(अध्याय ४)

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।। १

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।। २

स एवायं मया तेऽद्य योगं प्रोक्तः पुरातनः।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।। ३

अर्जुन उवाच :

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।। ४

तब मैंने अर्जुन से कहा :

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। 

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप।। ५

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। 

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।। ६

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। 

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। 

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। ८

तथा --

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः। 

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।। ९

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।। ३७

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हे युधिष्ठिर! 

उपरोक्त श्लोकों से तुम समझ सकते हो कि यहाँ मुझ परमात्मा अर्थात् ईश्वर, जीवात्मा अर्थात् जीव, और आत्मा की अनन्यता को इंगित किया गया है। 

'अहं' पद (शब्द) का प्रयोग उत्तम पुरुष एकवचन तथा अन्य पुरुष एकवचन दोनों अर्थों में ग्राह्य है। 

इसी प्रकार से क्रिया-पद 'वेद' भी उत्तम पुरुष एकवचन तथा अन्य पुरुष एकवचन से सुसंगत है। 

इसलिए जो इसे जान लेता है कि मेरा जन्म तथा कर्म दिव्य है, उसे पुनर्जन्म प्राप्त नहीं होता, और वह मुझे ही प्राप्त हो जाता है।

जिस तरह एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए मनुष्य पैदल या वाहन आदि के मार्ग से जाते हैं, किन्तु पक्षी आकाश के मार्ग से उड़कर शीघ्र ही वहाँ पहुँच जाता है, उसी प्रकार कर्मयोग के मार्ग का अधिकारी पुरुष यद्यपि कुछ समय व्यतीत करते हुए अनेक माध्यमों से मुझे प्राप्त हो सकता है, किन्तु साङ्ख्य-योग का अधिकारी ज्ञानमार्ग का अवलंबन करते हुए, तत्काल ही मुझे प्राप्त हो जाता है।

किन्तु यह भेद भी वैसा ही औपचारिक और आभासी है, जैसे कि स्वप्न के पूर्ण हो जाते ही, जाने पर, स्वप्न में प्रतीत होनेवाला समय मिथ्या प्रतीत होने लगता है।

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Monday, August 26, 2019

अहम् / अहं, ...11., अहंकारविमूढात्मा

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अहम् / अहं 18/70, 18/74, 18/75,
अहंकारविमूढात्मा 3/27,
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अहम् / अहं ... 10 .

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
अहम् / अहं 15/13, 15/14, 15/15, 15/18, 16/14, 16/19, 18/66,
-- 

अहम् / अहं ... 9.

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
--
अहम् / अहं 11/46, 11/48, 11/53, 11/54, 12/7, 14/3, 14/4, 14/27,
--  

अहम् / अहं ... 8.

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अहम् / अहं 10/37, 10/38, 10/39, 10/42, 11/23, 11/42, 11/44,
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अहम् / अहं ...7.

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अहम् / अहं 10/30, 10/31, 10/32, 10/33, 10/34, 10/35, 10/36,
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अहम् / अहं ... 6 ...

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अहम् / अहं 10/20, 10/21, 10/23, 10/24, 10/25, 10/28, 10/29,
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अहम् / अहं ... 5.

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अहम् / अहं 9/22, 9/24, 9/26, 9/29, 10/1, 10/2, 10/8, 10/11, 10/17,
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Saturday, August 24, 2019

अहम् / अहं ... 3.

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अहम् / अहं 7/2, 7/6, 7/8, 7/10, 7/11, 7/12, 7/17, 7/21, 7/25,
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अहम् /अहं ... 2.

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अहम् /अहं 4/1, 4/5, 4/7, 4/11, 6/30, 6/33, 6/34,
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अहम् / अहं ... 1.

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index
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अहम् / अहं  1/22, 1/23, 2/4, 2/7, 2/12, 3/2, 3/23, 3/24, 3/27,
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