माम् एकम्।।
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सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।६६।।
(अध्याय १८)
वाच्यार्थ :
समस्त धर्मों का त्याग कर मुझ एक (कृष्ण की) शरण में आओ।
शोक मत करो, मैं (कृष्ण) तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्त कर दूँगा ।
लक्ष्यार्थ :
समस्त धर्मों को त्याग कर मेरे (एकमेव आत्मा के) एक धर्म की शरण में आओ।
शोक मत करो, मेरी / तुम्हारी अपनी यह आत्मा ही तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्त कर देगी।
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धर्म अर्थात् आचरण, -- आचरण किन्हीं परंपराओं, सुनिश्चित तौर तरीकों, सिद्धान्तों पर आधारित हो सकता है और जो आचरण किसी एक परंपरा में पुण्य है, उसे किसी दूसरी परंपरा में पाप भी माना जा सकता है। भिन्न भिन्न परंपराओं के मतभेदों को महत्व मत दो, और मेरे (आत्मा के) धर्म की शरण लो। किन्तु इसके लिए पहले, तुम्हें आत्मा का स्वरूप और धर्म क्या है इसे जानना होगा। और चूँकि यह आत्मा तो सबमें विद्यमान समान आधारभूत तत्व है, इसलिए उसे जानना और प्राप्त कर लेना ही एकमात्र ऐसा उपाय है, जिसका सहारा सभी ले सकते हैं, चाहे उनका आचरण, आचार-विचार एक दूसरे से कितना ही अलग क्यों न हो।
गीता के तात्पर्य को ग्रहण करने में जहाँ जहाँ सर्वनाम अस्मद् के रूपों :
'अहं' - प्रथमा एक-वचन - संज्ञा या सर्वनाम,
'माम्' / - 'मा' - द्वितीया एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम,
'मया' / - तृतीया एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम,
'मह्यम्' / 'मे' - चतुर्थी एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम,
'मत्' - पञ्चमी एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम,
'मम' / 'मे' - षष्ठी एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम,
'मयि' - सप्तमी एक-वचन, संज्ञा या सर्वनाम,
दृष्टव्य है कि उपरोक्त पदों को जब संज्ञा (आत्मा) माना जाता है, और तदनुसार उनका अर्थ ग्रहण किया जाता है, तो वह उस तात्पर्य से भिन्न हो सकता है, जो इन्हें सर्वनाम पद माना जाने से प्राप्त हो सकता है।
एक बहुत अच्छा उदाहरण निम्न श्लोक में देखा जा सकता है :
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।
(अध्याय ४)
'मे' तथा 'अहं' पदों को संज्ञा (आत्मा) के अर्थ में या सर्वनाम के अर्थ में ग्रहण किया जाए किया जाए तो भिन्न भिन्न अर्थ प्राप्त होते हैं। वाच्यार्थ की दृष्टि से आत्मा को कृष्ण (व्यक्ति विशेष) मानकर, अन्य पुरुष एक-वचन के प्रयोग के अनुसार अर्थ ग्रहण किया जाता है तो अर्जुन की ही तरह उनके भी बहुत से जन्म हुए, -- ऐसा निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है । इस अर्थ की पुष्टि उक्त श्लोक में प्रयुक्त विद् -क्रियापद - 'वेद' के ल-कार से भी होती है।
'वेद' :
लट् ल-कार - अन्य पुरुष एक-वचन, या उत्तम पुरुष एक-वचन हो सकता है।
लट् ल-कार (वर्तमान काल) में 'विद्' क्रियापद का प्रचलित रूप यह है :
वेत्ति विदतः विदन्ति -- अन्य पुरुष (Third Person)
वेत्सि वित्थः वित्थ -- मध्यम पुरुष (Second Person)
वेद्मि विद्वः विद्मः -- उत्तम पुरुष (First Person)
और विकल्प की तरह --
वेद विदतुः विदुः - अन्य पुरुष (Third Person)
वेत्थ विदथुः विद - मध्यम पुरुष (Second Person)
वेद विद्व विद्म - उत्तम पुरुष (First Person)
भी प्रयुक्त किए जा सकते हैं।
'वेत्थ' तो अवश्य ही मध्यम पुरुष एक-वचन ही है ।
तानि अहं वेद सर्वाणि में :
'अहं' पद का अर्थ इस प्रकार से आत्मा और व्यक्ति विशेष दोनों ही अर्थों में भिन्न भिन्न रूपों में समझा जा सकता है।
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