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Saturday, January 14, 2023

Industry, Business,

Management & Finance. 

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Why Business Empires Crash / Collapse? 

श्रीमद्भगवद्गीता / Shrimadbhagvadgita indirectly points out the reasons.

The word "Business" could be found to have been originated from the Sanskrit roots as a combination of two root words :

√विश् and √न्यस् respectively.

√विश् is used to denote "to enter", while the word √न्यस् (as in न्यास, विन्यास, संन्यास, पंन्यास) is used to mean "to invest", नि (उपसर्ग) / prefix + verb-root - √अस्  to keep secure, safe, and in a good / healthy condition.

Again, the word "invest" could be traced to have roots in अनु-विश् meaning to enter kind of an activity.

There are words like "व्यवसाय" which could be split as "वि अव साय" The root word or the verb-root √सो -- साययति means "to annihilate, or "to completely destroy", while the उपसर्ग / prefix "अव" prefixed to √सो gives us the compound word "अवसाय", -meaning "to save, to protect from destruction", but implies "to prosper" / "to grow"; or to develop.

The उपसर्ग -prefix "वि" turns "अवसाय" into the word : "व्यवसाय" - that means development, growth and progress.

"Business" in this way is quite appropriate a translation of the word "व्यवसाय" that we find in the following shloka / verses --

Chapter 2/41, Chapter 2/44, Chapter 10/36, and Chapter 18/59 :

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।४१।।

(अध्याय २)

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।४४।।

(अध्याय २)

द्यूतं छलयितामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।।

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत् त्ववतामहम्।।३६।।

(अध्याय १०)

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस् त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।

(अध्याय १८)

Maybe, shall elaborate in the next posts.

***




 

Thursday, July 29, 2021

समाधि, समाधातुम्,

ब्रह्मकर्मसमाधिना 4/24,

समधिगच्छति 3/4,

समाधातुम् 12/9,

समाधाय 17/11,

समाधौ 2/44, 2/53,

***

पातञ्ल योगसूत्र का प्रारंभ समाधिपाद से होता है। 

पुनः समाधि के प्रकारों में क्रमशः 

वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात् सम्प्रज्ञातः ।। १७ ।।

तथा 

विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ।।१८ ।।

(समाधिपाद) 

इस प्रकार से मुख्यतः समाधि के  दो प्रकार वर्णित किए गए हैं। 

इसका अर्थ यह हुआ कि समाधिस्थ 'मन' इन दो प्रकारों में से किसी एक में समाधान-पूर्वक अवस्थित होता है ।

वितर्क का अर्थ हुआ तर्क-वितर्कयुक्त, विश्लेषणपरक चिन्तन । 

विचार का अर्थ हुआ किसी व्यवधान से रहित सरलता से किया जानेवाला वैचारिक क्रम, जिसमें तर्क-वितर्क को अधिक महत्व नहीं दिया जाता।

आनन्द का अर्थ हुआ भाव या भावना में निमग्न होने से प्राप्त होने वाला सुख। 

अस्मिता का अर्थ हुआ ज्ञातृत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, और स्वामित्व की भावना में निमग्न होने से प्राप्त होनेवाला सुख अर्थात् अहं-संकल्प। 

इस प्रकार इन चारों के संबंध से युक्त अस्मिता रूप समाधान, या वितर्क, विचार और आनन्द के रूप में होने वाला समाधान, यह  सम्प्रज्ञात समाधि है (उपरोक्त सूत्र १७),

इसी प्रकार इससे अन्य समाधि वह है जिसमें मन ज्ञात- से परे चला जाता है (उपरोक्त सूत्र १८),

किन्तु वहाँ भी संस्काररूप में तो 'मन' होता ही है जो इस समाधि से व्युत्थान की दशा में पुनः पूर्ववत् कार्य करने लगता है ।

यद्यपि इस दूसरी समाधि को प्राप्त कर लेने पर इससे भी 'मन' पर एक नया संस्कार होता है जो पूर्व संस्कारों के बीज को दग्ध कर देता है।

इस प्रकार 'चित्त' नामक वस्तु का अस्तित्व क्रमशः संस्कार, 'मन' की वृत्ति तथा समाधानयुक्त दशा के रूप में हुआ करता है। 

यद्यपि असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति हो जाने पर कुछ या सारे बीजरूप संस्कार दग्ध हो जाते हैं किन्तु उस समाधि में निरंतर बने रहने से वे पूरी तरह भस्म हो जाते हैं और यही वास्तविक ज्ञानाग्नि है ।

पातञ्जल योगसूत्र में 'समाधि' और 'संयम' इन दोनों का अभिप्राय भिन्न भिन्न है, क्योंकि विभूतिपाद के 

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।।१।।

तत्रप्रत्ययैकतानता ध्यानम्  ।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।।३।।

तथा, 

त्रयमेकत्र संयमः।।४।।

से यही प्रतीत होता है। 

इसी प्रकार 'तदेवार्थमात्रनिर्भासं' की पुनरावृत्ति समाधिपाद के

स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ।।४३।। 

सूत्र से सुसंगत है। 

पुनः 'अर्थ' का अभिप्राय वही है जो 

इन्द्रियार्थान् 3/6,

इन्द्रियार्थेभ्यः  2/58, 2/68,

तथा 

इन्द्रियार्थेषु 5/9, 6/4, 13/8,

में है, अर्थात् इन्द्रियों के विषय ।

किन्तु 'समाधातुम्' का प्रयोग अध्याय १२ में :

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थितम् ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ।।९।।

दृष्टव्य है। यह भी उल्लेखनीय है कि उपरोक्त श्लोक में 'योग'  शब्द भी देखा जा सकता है। 

पुनः अध्याय ३ के निम्न श्लोक में समधिगच्छति शब्द का प्रयोग भी उपलब्धि के अर्थ में किया गया है 

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।

न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति  ।।४।।

समाधान और समाधि एक ही प्रक्रिया का प्रारंभ और पूर्णता है । यह अध्याय २ के निम्न श्लोकों से भी स्पष्ट होता है --

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।४४।।

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।५३।।

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ।।५४।।

किन्तु गीता में भी उसी प्रकार से 'संयम' को 'समाधि' की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है, जैसा महर्षि पतञ्जलि ने उनके योगसूत्र में दिया है। 

इस बारे में अगले पोस्ट में! 

***








Wednesday, September 25, 2019

सुदुराचारः / सुदुराचारी

सुदुराचारः / सुदुराचारी
--
गीता अध्याय 9 श्लोक 30 इस प्रकार है :
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि स।।30
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गीता अध्याय 9 श्लोक 29 इस प्रकार है :
समोऽहं सर्वभूतेषु न में द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।29
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गीता अध्याय 2 श्लोक 41  इस प्रकार है :
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।41
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गीता अध्याय 2 श्लोक 44  इस प्रकार है :
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृत चेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।44
--
उपरोक्त श्लोकों के हिन्दी तथा अंग्रेज़ी तात्पर्य इसी ब्लॉग में अन्यत्र देखे जा सकते हैं।
The English transcript and translation of the above four stanzas could be found,
in this blog elsewhere, ... so I wanted to avoid unnecessary repetition here.
However, you can click the labels underneath to check the exact location of them.
--
'पाहि कृपामयि मामज्ञानम्'
में जैसे 'अज्ञान' का अर्थ है 'अज्ञानी' वैसे ही उपरोक्त श्लोक 9/30 में
'सुदुराचारः' का अर्थ है सुदुराचारी'--अत्यन्त दुराचारी।
उल्लेखनीय बात यह है कि इसी श्लोक में 'भजते मामनन्यभाक्' में 'भज्' धातु का प्रयोग
आत्मनेपदी है,
जबकि श्लोक 9/29 में 'भज्' धातु का प्रयोग परस्मैपदी है, किन्तु इसके तुरंत बाद ही
'मयि ते तेषु चाप्यहम्'
में स्पष्ट कर दिया गया है कि ऐसा 'दुराचारी' भी वस्तुतः अपने आचरण में कर्तृत्व-बुद्धि
से रहित होने से उसे 'साधु-पुरुष' और 'सम्यग्व्यवसित' माना जाना चाहिए।
इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि ऐसा मनुष्य उस स्थिति में है,
जैसा कि गीता अध्याय 6 श्लोक 22 में वर्णन है :
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते। 41
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Friday, August 9, 2019

अपलायनम्, अपश्यत्, अपहृतचेतसाम्

श्रीमद्भगवद्गीता
शब्दानुक्रम -Index 
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अपलायनम् 18/43,
अपश्यत् 1/26, 11/13,
अपहृतचेतसाम् 2/44,
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Thursday, August 28, 2014

आज का श्लोक, ’विधीयते’ / ’vidhīyate’

आज का श्लोक,
’विधीयते’ / ’vidhīyate’  
_________________

’विधीयते’ / ’vidhīyate’ - प्रयुक्त की जाती है, प्रयुक्त की जा सकती है,

अध्याय 2, श्लोक 44,

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते
--
(भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम् तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥)
--
भावार्थ :
जिनकी बुद्धि भोग और ऐश्वर्य से अत्यन्त लुब्ध और आसक्त है, और इसलिए उनकी ही प्राप्ति के लिए लालायित है, इस प्रकार के लोगों की परमात्मा में कदापि रुचि नहीं होती, और उनकी ध्येयपरक बुद्धि उस परमार्थ तत्व में संलग्न भी नहीं हो पाती ।  
--
’विधीयते’ / ’vidhīyate’ - to be engaged in, could be taken help of as an instrument / tool, 
 
Chapter 2, śloka 44,

bhogaiśvaryaprasaktānāṃ 
tayāpahṛtacetasām |
vyavasāyātmikā buddhiḥ 
samādhau na vidhīyate ||
--
(bhogaiśvaryaprasaktānām 
tayāpahṛtacetasām |
vyavasāyātmikā buddhiḥ 
samādhau na vidhīyate ||)
--
Meaning :
Those whose minds are attracted towards the enjoyments of wealth and pleasures of the world, and so have a deep attachment towards them, their intellect of determination never tends to be drawn towards the ultimate destiny (paramārtha tatva) of consciousness. 
--

Tuesday, August 5, 2014

आज का श्लोक, ’व्यवसायात्मिका’ / ’vyavasāyātmikā’

आज का श्लोक,
’व्यवसायात्मिका’ / ’vyavasāyātmikā’
___________________________

’व्यवसायात्मिका’ / ’vyavasāyātmikā’ - सार्थक, कल्याणकारी, प्रयोजनपरक,

अध्याय 2, श्लोक 41,

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥
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(व्यवसायात्मिका बुद्धिः एका इह कुरुनन्दन ।
बहुशाखाः हि अनन्ताः च बुद्धयः अव्यवसायिनाम् ॥)
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भावार्थ :
हे कुरुनन्दन (अर्जुन)!
यहाँ, इस संसार में मनुष्य के लिए कल्याणकारी बुद्धि एक ही है, जबकि कल्याण से विमुख करनेवाली बुद्धियाँ अनेक शाखाओंवाली और असंख्य हैं ।
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अध्याय 2, श्लोक 44,

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
--
(भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम् तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥)
--
भावार्थ :
जिनकी बुद्धि भोग और ऐश्वर्य से अत्यन्त लुब्ध और आसक्त है, और इसलिए उनकी ही प्राप्ति के लिए लालायित है, इस प्रकार के लोगों की परमात्मा में कदापि रुचि नहीं होती, और उनकी ध्येयपरक बुद्धि उस परमार्थ तत्व में संलग्न भी नहीं हो पाती ।  
--

’व्यवसायात्मिका’ / ’vyavasāyātmikā’ - one-pointed, meaningful, that is of real help in attaining the supreme good.

Chapter 2, śloka 41,

vyavasāyātmikā buddhi-
rekeha kurunandana |
bahuśākhā hyanantāśca
buddhayo:'vyavasāyinām ||
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(vyavasāyātmikā buddhiḥ
ekā iha kurunandana |
bahuśākhāḥ hi anantāḥ ca
buddhayaḥ avyavasāyinām ||)
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Meaning :
O kurunandana (arjuna)! -- The intellect that is of immense help in attaining the supreme good is unique and only one of its own kind, while there are others with many branches and infinite kinds, that distract one from this goal.
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Chapter 2, śloka 44,

bhogaiśvaryaprasaktānāṃ
tayāpahṛtacetasām |
vyavasāyātmikā buddhiḥ
samādhau na vidhīyate ||
--
(bhogaiśvaryaprasaktānām
tayāpahṛtacetasām |
vyavasāyātmikā buddhiḥ
samādhau na vidhīyate ||)
--
Meaning :
Those whose minds are attracted towards the enjoyments of wealth and pleasures of the world, and so have a deep attachment towards them, their intellect of determination never tends to be drawn towards the ultimate destiny (paramārtha tatva) of consciousness.
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Sunday, July 6, 2014

आज का श्लोक, ’समाधौ’ / ’samādhau’

आज का श्लोक,
’समाधौ’ / ’samādhau’
______________________

’समाधौ’ / ’samādhau’ - समाधि की ओर, समाधि में, परमात्मा में, परमार्थ में, योग की उपलब्धि में,

अध्याय 2, श्लोक 44,

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
--
(भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम् तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥)
--
भावार्थ :
जिनकी बुद्धि भोग और ऐश्वर्य से अत्यन्त लुब्ध और आसक्त है, और इसलिए उनकी ही प्राप्ति के लिए लालायित है, इस प्रकार के लोगों की परमात्मा में कदापि रुचि नहीं होती, और उनकी ध्येयपरक बुद्धि उस परमार्थ तत्व में संलग्न भी नहीं हो पाती ।  
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अध्याय  2, श्लोक 53,
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श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥
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(श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधौ-अचला बुद्धिः तदा योगम् अवाप्स्यसि ॥)
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भावार्थ :
विविध प्रकार के परस्पर भिन्न मतों को सुनने से विचलित और भ्रमित हुई तुम्हारी बुद्धि निश्चल होकर जब अचलरूप से समाधि में सुस्थिर हो जाएगी, तब तुम्हें  योग की उपलब्धि हो जाएगी ।
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’समाधौ’ / ’samādhau’ - towards merging in the meditation, towards peace, towards ultimate destiny of consciousness, in the yoga,

Chapter 2, śloka 44,

bhogaiśvaryaprasaktānāṃ
tayāpahṛtacetasām |
vyavasāyātmikā buddhiḥ
samādhau na vidhīyate ||
--
(bhogaiśvaryaprasaktānām
tayāpahṛtacetasām |
vyavasāyātmikā buddhiḥ
samādhau na vidhīyate ||)
--
Meaning :
Those whose minds are attracted towards the enjoyments of wealth and pleasures of the world, and so have a deep attachment towards them, their intellect of determination never tends to be drawn towards the ultimate destiny (paramārtha tatva) of consciousness.
--
Chapter 2, śloka 53,
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śrutivipratipannā te
yadā sthāsyati niścalā |
samādhāvacalā buddhis-
tadā yogamavāpsyasi ||
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(śrutivipratipannā te
yadā sthāsyati niścalā |
samādhau-acalā buddhiḥ
tadā yogam avāpsyasi ||)
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Meaning :
When your mind becomes free from the many intellects of the varied and confusing kinds, and stays silent in the Self, then in that silence of the mind, you attain the yoga.
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